कर्त्तव्य पालन मानवी गरिमा की कसौटी

May 1976

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प्रकृतिगत सम्पदाओं पर- सृष्टि के समस्त प्राणिओं पर आधिपत्य का दावा करने वाला इस सृष्टि में एक ही प्राणी है- मनुष्य। आदिम काल की इस ऊबड़-खाबड़ धरती को उसी ने आज की सर्वांग सुन्दर स्थिति तक लाने में अथक प्रयास किया है और सफलता पाई है। विज्ञान, व्यवसाय, शासन, संगठन, कृषि, पशु-पालन, शिल्प, शिक्षा कला, चिकित्सा आदि अनेक क्षेत्रों में मनुष्य द्वारा की गई प्रगति का इतिहास देखने पर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता और लगता है मानवी शक्ति का अन्त नहीं । शक्ति का सुनियोजित स्वरूप जहाँ कहीं दिखाई पड़ता है वह मनुष्य की कल्पना शक्ति एवं सृजन शक्ति का ही चमत्कार है। अपनी इन्हीं मौलिक विशेषताओं के कारण मानव प्राणी सृष्टि का मुकुट मणि बना है। देखने में मनुष्य की शारीरिक, मानसिक क्षमता स्वल्प भले ही प्रतीत होती है, पर जब उसकी प्रखरता देखते हैं तो यही मानना पड़ता है कि सर्व शक्तिमान परमात्मा के लगभग समकक्ष ही उसके पुत्र आत्मा की स्थिति है।

शक्ति के भले-बुरे दोनों ही उपयोग हैं। माचिस की तीली ठण्ड दूर करने, भोजन पकाने, उद्योग चलाने, प्रकाश देने जैसे अनेक उपयोगी कामों की भूमिका बना सकती है, पर उसी का अवाँछनीय उपयोग करें तो वह किसी सघन प्रदेश को दावानल बनकर भस्म सात कर सकती है, उससे गृह नगर, भण्डार, कारखानों में सन्निहित करोड़ों अरबों की पूँजी देखते-देखते स्वाहा हो सकती है। बिजली से कितने उपयोगी काम चलते हैं और वह हमारे दैनिक जीवन में कितनी अधिक सहायक होती है किन्तु यदि उसके खुले तारों को सैकिण्ड भर के लिए स्पर्श कर लिया जाय तो प्राण संकट उत्पन्न होने में देर न लगेगी। इसलिए आग, बिजली आदि को मर्यादाओं में बाँधकर रखा जाता है और उनका उपयोग अति सतर्कतापूर्वक किया जाता है अन्यथा इन उपयोगी शक्तियों के अमर्यादित होने पर उत्पन्न संकट की विभीषिकाओं का पारावार न रहेगा।

मनुष्य इस संसार की सर्वोच्च शक्ति है। उसकी रचनात्मक शक्ति पर जब विचार करते हैं, तो लगता है नैपोलियन की वह उक्ति बहुत अंशों में सार्थक है जिसमें वह कहा करता था कि- “असंभव शब्द मूर्खों के कोश में रहने योग्य है।” जब मनुष्य अपनी क्रिया शक्ति, ज्ञान शक्ति और इच्छा शक्ति को सुविकसित करके उपयुक्त प्रयोजन में समय तत्परता के साथ लगा देता है तो सचमुच ऐसी ही स्थिति बन जाती है जिसमें असम्भव को सम्भव बनाया जा सके। महर्षि व्यास की यह उक्ति अक्षरशः सत्य है कि- ‘मनुष्य से बढ़कर श्रेष्ठ इस विश्व में और कुछ नहीं है।’ इतने पर भी यह तथ्य जहाँ का तहाँ बना रहेगा कि यदि वह कुमार्ग पर चल पड़े तो फिर विनाशकारी दुष्परिणामों का भी अन्त नहीं। अस्तु यह आवश्यक समझा गया कि बिजली एवं आग की तरह उसे भी मर्यादित रखा जाय। कहना न होगा कि यह मर्यादाएं उसकी अन्तरात्मा द्वारा स्वेच्छया स्वीकृत होनी चाहिए। यों सामाजिक भर्त्सना एवं शासकीय दण्ड विधान भी उच्छृंखलता को एक सीमा तक, रोकने में सहायक होता है, पर वास्तविक नियन्त्रण तो स्वेच्छया स्वीकृति से ही सम्भव है। मनुष्य की चतुरता बाहरी प्रतिबन्धों को निरस्त करने में अनेकानेक तरकीबें ढूँढ़ लेती है और अपराधी लोग निर्भयतापूर्वक अपना धन्धा चलाते रहते हैं। विश्रृंखलित समाज में भी विरोध असहयोग एवं संघर्ष की उतनी क्षमता नहीं रही कि वह अवाँछनीयताओं को कठोरता पूर्वक रोक सके। मानवी सत्ता को उच्छृंखल न होने देने और सत्प्रयोजन में ही संलग्न रहने के लिए बाध्य करने वाली एक मर्यादा व्यवस्था तत्वदर्शी महामनीषियों ने बनाई है जिसे आचार संहिता, धर्माचरण, मर्यादा पालन, कर्त्तव्य-निष्ठा आदि नामों से जाना जाता है। वस्तुतः व्यक्ति और समाज को विनाश के गर्त में गिरने से बचाते हुए सर्वतोमुखी प्रगति के मार्ग पर अग्रसर करने वाली धुरी यही है। इसे विश्व शांति की रीढ़ भी कहा जा सकता है।

आवश्यकता इस बात की है कि प्रत्येक मनुष्य को उसका जीवन दर्शन समझाया जाय और उसे औचित्य की मर्यादाएँ निवाहने के लिए कर्त्तव्य-पालन के प्रति निष्ठावान बनाया जाय। धार्मिकता, आध्यात्मिक एवं आध्यात्मिकता का सुविस्तृत तत्वज्ञान विशाल कलेवर के साथ इसलिए सृजा गया है कि मानवी चिन्तन की महत्व-पूर्ण धाराओं को कर्त्तव्य-निष्ठा के साथ सुनियोजित कर दिया जाय।

व्यक्ति अपनी शारीरिक, मानसिक, सम्पर्क जन्य तथा सम्पत्तिपरक सारी क्षमताओं को सदुद्देश्य में ही संलग्न रखे, उन्हें कुमार्गगामी न होने दे। इसी कर्तव्यनिष्ठा को गहराई तक अन्तःकरण में प्रतिष्ठापित करने के लिए स्वाध्याय, सत्संग, एवं धर्मकृत्यों का विशालकाय ढाँचा खड़ा किया है। धर्म कलेवर का प्राण तत्व ढूंढ़ना हो तो कर्त्तव्य-पालन ही मिलेगा।

कठपुतली के हाथ, पैर, कमर, गर्दन आदि कई स्थानों में धागे बँधे होते हैं, बाजीगर उन्हें अपनी उँगलियों में बाँधकर हिलाता-ढुलाता है और मजेदार तमाशा आरम्भ हो जाता है। बिना धागे की कठपुतली हाथ से पकड़ कर हिलाई, उछाली तो जा सकती है, पर उससे मजेदार तमाशे का आनन्द नहीं मिल सकता। मनुष्य जीवन की गरिमा तथा सफलता इसी कसौटी पर कसी जाती है कि उसने कर्त्तव्य पालन में कितनी निष्ठा रखी और मर्यादाओं का पालन कितने कठोर अनुशासन के साथ निवाहा। यही वे धागे हैं जो जीवन को निखारते, उभारते हैं। कठपुतली का नाच अधिक धागों के बन्धनों से बाजीगर की कला कौशल से शानदार बनता है। मनुष्य जीवन की प्रशंसा प्रतिष्ठा का आधार एक ही है कि मर्यादाओं के धागे कितने अधिक और कितने मजबूत रखे गये तथा उनका सुसंचालन किस मनोयोग के साथ किया गया। जिसने इन मर्यादाओं की कितनी उपेक्षा की- जो कर्त्तव्य-पालन की कितनी अवज्ञा करता रहा वह उतना ही निन्दनीय बना-उतना ही घृणित बना-उतना ही अप्रामाणिक माना गया और उतना ही असफल रहा है।

मनुष्यता और कर्त्तव्य-पालन दोनों एक ही तथ्य के दो नाम हैं। संस्कृति एवं सभ्यता के दोनों पहिये इसी धुरी के साथ सटे हुए हैं। नर-पशु वे हैं जिनके लिए अपनी आवश्यकताएँ किसी भी प्रकार पूरी करने में संकोच नहीं, जो उचित-अनुचित के झंझट में नहीं पड़ते और जैसे भी बने वैसे अपना उल्लू सीधा करते हैं। पशु प्रवृत्ति यही है। पशुओं को अपने-विराने का-नीति-अनीति का भेद नहीं होता। वे किसी का भी खेत चर सकते हैं। यह हमारा नहीं है-हमारे लिए नहीं है, यह सोचने की उनमें क्षमता नहीं होती। दूसरे को वस्तु का उपभोग करने की अनधिकार चेष्टा नहीं करनी चाहिए यह उन्हें नहीं मालूम इसलिए जहाँ भरी हरियाली दीखती है वहाँ जा पहुँचते हैं और उस अतिक्रमण के कारण डंडे खाते हैं। पशुओं को नियत समय पर नियत उत्तरदायित्व निभाने की प्रवृत्ति नहीं होती। वे स्वेच्छा से नहीं बलात् कराये जाने पर ही काम करते हैं। पत्नी पुत्री का भेद भी वे नहीं करते। कोई किसी से भी कामुकता की शान्ति कर लेता है। मनुष्य और पशु में यही अन्तर है कि वह उचित-अनुचित का भेद समझता है- मर्यादाओं का पालन करता है और उत्तरदायित्वों को निवाहता है। जो ऐसा नहीं करता उसे नर-पशु कहते हैं। मानवी गरिमा कठोर कर्त्तव्यों के साथ जुड़ी जकड़ी है। जो इसे नहीं जानता, मानता, नीति-अनीति बरतने में सोच विचार नहीं करता, जिसे उच्छृंखलता बरतने में लज्जा, संकोच का अनुभव नहीं होता समझना चाहिए कि उसकी आकृति मनुष्य जैसी भले ही हो प्रकृतितः वह पशु वर्ग में ही गिना जाने योग्य है।

मनुष्य अनेक क्षेत्रों में कठोर कर्त्तव्यों से बँधा है उसे अपने सभी उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना चाहिए। शरीर किराये का मकान है बिना तोड़-फोड़ किये उसका उपयोग करना चाहिए अन्यथा उसके मालिक परमेश्वर का कोपभाजन बनना पड़ेगा और दण्ड में रोगों की व्यथा पीड़ा सहनी पड़ेगी। आहार-विहार में पूर्ण सतर्कता और सात्विकता बरतने की नीति अपनाये रखी जाय तो समझना चाहिए कि शरीर पर तो अधिकार मिला था उसके साथ जुड़े हुए कर्त्तव्य को भी निभा दिया गया। स्मरण रखना चाहिए केवल अधिकार और उसका उपभोग करने की बात ही नहीं सोचनी चाहिए वरन् कर्त्तव्य पालन को भी अधिकार का अविच्छिन्न सहचर मानकर चलना चाहिए। दोनों में से एक को प्रधान और दूसरे को गौण मानना हो तो कर्त्तव्य प्रथम और अधिकार द्वितीय है।

संयमशीलता, नियमितता और श्रमनिष्ठा को अपनाये रहने पर ही आरोग्य सुरक्षित रह सकता है। अद्भुत कला-कौशल के साथ गढ़ा गया यह शरीर मिला है, पर उसे स्वस्थ सुरक्षित रखने का उत्तरदायित्व भी साथ ही लादा गया है। इसी प्रकार अद्भुत प्रतिभाओं से भरा-पूरा मस्तिष्क देकर ईश्वर ने यह भी अपेक्षा की है कि उसे अवाँछनीय चिन्तन द्वारा विकृत नहीं किया जायगा- विद्याध्ययन, स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन, मनन जैसे माध्यम अपनाकर उसकी क्षमता को निरन्तर प्रखर बनाया जायगा। यह पोषण मिलते रहने पर मस्तिष्क की भूख बुझती रहेगी और उसे अधिक विकसित परिष्कृत होने का अवसर मिलता रहेगा। यदि इस ओर ध्यान न दिया जाय, प्रमादग्रस्त रहा जाय, मूढ़ मान्यताओं में जकड़े रखा जाय तो समझना चाहिए कि विलक्षण मनः शक्ति देने के साथ-साथ सन्निहित ईश्वरीय प्रयोजन को नष्ट कर दिया गया।

परिवार में स्त्री, पुत्र, भाई, बहिन, माता, पिता आदि होते हैं इन सभी के साथ अपने-अपने ढंग स्तर के कर्त्तव्य होते हैं और उन सभी का सन्तुलित पालन करना होता है। उपार्जित धन का, समय का, स्नेह का लाभ घर के सभी सदस्यों को उनकी आवश्यकतानुसार उचित मात्रा में मिलना चाहिए। न किसी के साथ पक्षपात हो न किसी की उपेक्षा की जाय, ऐसी न नीति अपनाने वाले परिवारों में स्नेह, सौजन्य स्थिर रहता है। जहाँ दुरंगी नीति चलेगी वहाँ भीतर ही भीतर विद्वेष पनपेगा और बिखराव उत्पन्न होगा। जिन्हें अपने परिवार को सौजन्य सूत्र में बाँधकर रखना है वे स्वयं अपनी कर्त्तव्य-निष्ठा में अन्तर नहीं आने देते और अन्य सभी सदस्यों को यही नीति अपनाने का मार्ग-दर्शन करते हैं। पक्षपात के लिए स्त्री पुत्र होने के नाते यदि किसी का दबाव पड़ता है तो उसे स्नेह, सौजन्य के साथ सारी ऊँच-नीच समझाते हैं, फिर भी यदि आग्रह बना ही रहे तो नाराजगी सहना स्वीकार करते हैं, पर अनीति अपनाने के लिए सहमत नहीं होते। प्रियजनों के सन्तोष और आग्रह के लिए उदार होना उचित है, पर वह इस सीमा तक नहीं होना चाहिए कि दूसरों के उचित अधिकारों का हनन करते हुए उसे पूरा करना पड़े।

देश, धर्म, समाज, संस्कृति के प्रति आत्मा और परमात्मा के प्रति भी प्रत्येक व्यक्ति कर्त्तव्यों की पवित्र शृंखला में बँधा हुआ है। मात्र शरीर पोषण, मनोविनोद और परिवार पालन का ही ध्यान रखा जाय, इतने भर के लिए ही सारी जीवन सम्पदा निचोड़ दी जाय तो यह संकीर्णता निन्दनीय ठहराई जायगी और स्वार्थपरता कही जायगी। कर्त्तव्य का दायरा जितने छोटे क्षेत्र तक सीमित कर लिया जाय उसी अनुपात से मनुष्य की क्षुद्रता नापी जायगी। उदात्त महामानव वे होते हैं जिनकी आत्मीयता का विस्तार अधिकाधिक व्यापक क्षेत्र में बिखरा होता है, जो दूसरों का दुःख देखकर अपने ऊपर आने वाले दुःख की तरह दुःखी होते हैं और उसके निवारण का वैसा ही प्रयत्न करते हैं जैसा अपने ऊपर विपत्ति आने पर किया जा सकता है। उदार व्यक्ति अपनी कमाई को बाँटकर खाते हैं। कोई मिठाई आदि बाहर से लाते हैं तो घर में सब को देते हैं। ठीक इसी प्रकार अपनी सुख सम्पदा, विद्या, वैभव आदि का लाभ स्वयं ही उठाते रहने की अपेक्षा उनका जी सबको बाँटकर खाने का होता है। यह उदार आत्मीयता जितनी व्यापक होगी मनुष्य उतना ही महान माना जायगा। आत्मा एकाकी है, अकेला आता और अकेला चला जाता है। पर जब वह विभूति सम्पन्न होता है तो विकास की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए वह महात्मा, देवात्मा, परमात्मा बन जाता है। यह व्यक्तित्व के स्तर हैं जिनमें मनुष्य को अपने लाभ की-स्वार्थ की परिधि अधिकाधिक विस्तृत करते हुए देश, समाज, संस्कृति, मनुष्य प्राणिमात्र तक विस्तृत करते हुए देश, समाज, संस्कृति, मनुष्य प्राणिमात्र तक विस्तृत करनी पड़ती है। सब अपने लगते हैं तो सबके दुःख मिटाने और सुख बढ़ाने के लिए प्रबल प्रयत्न किये बिना चैन नहीं पड़ता। यह कर्त्तव्य-निष्ठा का विस्तार है। हमारी अन्तः चेतना जितनी विकसित होगी कर्त्तव्य पालन का उत्तरदायित्व उतना ही व्यापक बनता चला जायगा।

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