शरीर पर मन का नियन्त्रण है इस तथ्य को हम प्रतिक्षण देखते हैं। मस्तिष्क की इच्छा और प्रेरणा के अनुरूप प्रत्येक अंग अवयव काम करता है। प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देने वाले क्रियाकलाप हमारी मानसिक प्रेरणाओं से ही प्रेरित होते हैं। जो कार्य स्वसंचालित दिखाई पड़ते हैं वे भी वस्तुतः हमारे अचेतन मन की क्षमता एवं प्रवीणता से संचालित होते हैं। श्वास-प्रश्वास, रक्ताभिषरण, आकुँचन-प्रकुँचन, निद्रा-जागृति, पाचन मल-विसर्जन जैसी स्वयमेव चलती प्रतीत होने वाली क्रियाएँ भी अचेतन मन के द्वारा गतिशील रहती हैं। शरीर को ऐसा घोड़ा मानना चाहिए जिसकी प्रत्यक्ष और परोक्ष नियन्त्रण सत्ता पूरी तरह मस्तिष्क के हाथ में है।
मस्तिष्क को स्वस्थ, संतुलित और हल्का-फुलका रखे बिना कोई व्यक्ति अपने शरीर को नीरोग एवं परिपुष्ट रख सकने में सफल नहीं हो सकता। मन पर उद्वेगों का तनाव छाया रहेगा तो शरीर का आहार-विहार ठीक रहने पर भी रोगों के आक्रमण होने लगेंगे और बढ़ती हुई दुर्बलता अकाल मृत्यु की ओर तेजी से घसीटती ले चलेगी। इसके विपरीत यदि हँसते-हँसाते शान्त संतुलित मनःस्थिति में जीवनयापन हो रहा होगा तो शरीरगत असुविधाओं के रहते हुए भी स्वास्थ्य अक्षुण्ण बना रहेगा।
शरीर की देखभाल रखने और उसे स्वस्थ, सुन्दर रखने के लिए खुराक, साज-सज्जा, सुविधा आदि का जितना ध्यान रखा जाता है, उतना ही ध्यान मस्तिष्क को उद्वेग रहित, सन्तुष्ट एवं प्रसन्न रखने का प्रयत्न किया जाये तो स्वास्थ्य रक्षा की तीन चौथाई समस्या हल हो सकती है।
परिस्थिति वश उद्विग्न रहने की बात अक्सर कही जाती है, पर वास्तविकता इससे सर्वथा भिन्न है। मानसिक कुसंस्कार के कारण चिन्तन की सही रीति-नीति से अपरिचित होने के कारण ही तरह-तरह के विक्षोभ हमें घेरते हैं। संसार में ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं जो अनेकों समस्याओं और कठिनाइयों से घिरे रहने पर भी अपनी मनःस्थिति को विक्षुब्ध नहीं होने देते और हँसते-हँसाते सामने प्रस्तुत उलझनों को सुलझाने के लिए धैर्य और साहस पूर्वक जुटे रहते हैं। इसके विपरीत ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो राई की बराबर कठिनाई को पहाड़ के बराबर मान लेते हैं और तिल को ताड़ के रूप में देखने की मानसिक दुर्बलता के कारण निरन्तर उद्विग्न बने रहते हैं।
चिन्ता, निराशा, खीज, झूँझल, आवेश, चिड़चिड़ापन, ईर्ष्या, द्वेष, आशंका जैसी विक्षोभकारी प्रवृत्तियां अकारण ही अपनाये रहने वालों की कमी नहीं। ऐसे लोग अपनी इस मानसिक रुग्णता के कारण शरीर को भी रोगी बना लेते हैं और असमय में ही अकाल मृत्यु के मुँह में जा घुसते हैं। धैर्य, साहस, विवेक और सन्तुलन के आधार पर हलका-फुलका जीवन सहज ही जिया जा सकता है और अपेक्षाकृत अधिक सरलतापूर्वक कठिनाइयों का समाधान किया जा सकता है। स्वास्थ्य संरक्षण की दृष्टि से तो मानसिक सन्तुलन की स्थिरता और प्रसन्न रहने की आदत नितान्त आवश्यक है।
कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के संरक्षण में चलने वाले ईथलपर्सी जेरोन्टालाजी सेन्टर के प्राध्यापक प्रो0 जोसफ ह्राचविक ने जीवन और मृत्यु सम्बन्धी अपने लम्बे शोध कार्य का निष्कर्ष यह निकाला है कि औसत आदमी थोड़ी भलमनसाहत से चले और सावधानी बरते तो आसानी से 100 वर्ष जीवित रहता है। अधिकाँश लोग समय से पहले अपनी ही गलतियों के कारण बेमौत मरते हैं।
जल्दी मरने के लिए विवश करने वाले उनने प्रमुख कारण तीन गिनाये हैं- (1) अखाद्य आहार का अनावश्यक मात्रा में खाते रहना (2) शारीरिक श्रम से जी चुराना और दिनचर्या अनियमित रखना (3) मस्तिष्क पर चिन्ताओं का तनाव लादे फिरना।
डा0 डब्ल्यू0 सी0 डालवीरिस के मेयोक्लीनिक में पन्द्रह हजार उदर रोगियों का न केवल उपचार वरन् गम्भीर अध्ययन भी किया गया। इस शोध का निष्कर्ष यह प्रकाशित किया गया कि 70 प्रतिशत रोगियों के पीछे यह व्यथा इसलिए पड़ी कि वे परिस्थितियों के साथ अपना तालमेल न बिठा सके, फलतः मानसिक उद्विग्नता ने उनके पेट को विषाक्त बनाकर रख दिया।
उद्योग क्षेत्रों के अमेरिका डाक्टरों के वार्षिक सम्मेलन में एक अनुभवी डा0 हेराल्ड सी0 ने अपने विश्लेषण का सार प्रस्तुत करते हुए कहा- व्यावसायियों में से 44 प्रतिशत रक्तचाप और उदर रोगों से पीड़ित पाये गये हैं। इसका कारण उनकी तनाव पूर्ण मनःस्थिति होती है। उन्होंने यह भी कहा-प्रशासनिक जिम्मेदारियाँ वहन करने वालों में से आधे आदमी ढलती आयु तक पहुँचने से पहले ही स्नायु संस्थान के रोगी बन जाते हैं। इसका कारण उनका चिन्तित और उद्विग्न रहना है।
अब संसार में मूर्धन्य शरीर विज्ञानी इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि- अस्वस्थता की जड़े शारीरिक पदार्थों एवं अवयवों में ढूंढ़ते रहने से काम न चलेगा, अब मस्तिष्कीय स्थिति को निदान एवं उपचार में प्रमुखता दी जानी चाहिए क्योंकि आधी से अधिक रुग्णता पेट से रक्त से नहीं वरन् मस्तिष्क से उत्पन्न होती है। इस सन्दर्भ में ‘साइकोसोमेटिक’ नामक एक स्वतन्त्र शास्त्र को विकसित किया जा रहा है।
विख्यात चिकित्सक ओ॰ एफ॰ ग्रोवर बारह वर्ष तक उदर से पीड़ित रहे। बहुत उपचार करने के पश्चात भी जब निराशा हाथ लगी तो वे एक मनोविज्ञानवेता के पास गये। उसने बताया कि यदि आप चिन्ता मुक्त हंसता-हंसता जीवन जीने लगें तो प्रस्तुत व्यथा से छुटकारा पा सकते हैं। डॉ0 ग्रोवर ने मनोयोगपूर्वक अपने मस्तिष्क और स्वभाव में परिवर्तन करना आरम्भ किया और वे अन्ततः उसी उपचार से रोग मुक्त हो सके। इसके उपरान्त उन्होंने अपने रोगियों को भी वैसा ही परामर्श देना आरम्भ किया फलतः उपचार की सफलता आश्चर्यजनक परिणाम में बढ़ती चली गई। अपने अनुभवों का निचोड़ बताते हुए उनने लिखा है- “यदि रोगियों की मनःस्थिति को चिन्ता मुक्त एवं हलका-फुलका बनाया जा सके तो औषधि उपचार की सफलता कई गुनी अधिक बढ़ सकती है। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि स्नायु दौर्बल्य, हृदय व्याधि, अनिद्रा, अजीर्ण, गठिया, रक्तचाप जैसे जटिल रोगों की जड़ वस्तुतः उद्विग्न मनः स्थिति में ही होती है। मन का शरीर पर असाधारण रूप से अधिकार है, इस तथ्य को हम जितनी अच्छी तरह और जितनी जल्दी समझ सकें उतना ही अच्छा है।’
नोबेल पुरस्कार विजेता एलेग्जी केरेल का कथन है कि संसार में जितने लोग शारीरिक विकृतियों से मरते हैं उससे कहीं अधिक की अकाल मृत्यु मनोविकारों के कारण होती है। रोगों की रोकथाम के लिए औषधि उपचार एवं शल्य चिकित्सा जैसे प्रयत्नों से ही काम न चलेगा मनुष्य को किस प्रकार चिन्ता मुक्त रहना चाहिए यह रहस्य भी उसके गले उतरना चाहिए।
संसार भर में उदर रोगों में अब ‘अल्सर’ के मरीजों की संख्या दस प्रतिशत तक पहुँच गई है। यह महाव्याधि खर्चीले उपचारों को भी अनूठा दिखाती हुई गहरी जड़े जमाये बैठी रहती है और टस से मस नहीं होती। जोसेफ एफ॰ मोन्टग्युमरी अल्सर के विशेषज्ञ माने जाते हैं उनने अपनी पुस्तक ‘नर्वस स्टमक ट्रबल’ नामक पुस्तक में लिखा है यह महाव्याधि आहार सम्बन्धी विकृतियों से उतनी नहीं होती जितनी कि चिन्ता, आशंका और भयाक्रान्त मनःस्थिति के कारण।
लम्बे समय तक स्नायु दौर्बल्य से ग्रसित रोगियों की मरणोत्तर पोस्टमार्टम प्रक्रिया द्वारा खोज-बीन की गई तो पता चला कि उनके स्नायु संस्थान साधारण मनुष्य जैसे निर्दोष थे जो कष्ट वे भुगत रहे थे वह मात्र मस्तिष्कीय विकृति की प्रतिक्रिया भर थी।
अब दार्शनिक प्लेटो की उस लताड़ को याद किये जाने लगा है जिसमें उनने चिकित्सकों को कहा था वे शरीर को ठोकने ,बजाने में न लगे रहें वरन् रोगियों के मस्तिष्क की ढूंढ़ खोज करना सीखें।
‘स्टौप वरी एण्ड गैटवैल’ नामक ग्रन्थ के लेखक एडवर्ड पोडोलन ने रक्तचाप, गठिया, जुकाम, मधुमेह, उदर विकार जैसे रोगों का मूलकारण उद्विग्नता को बताया है और कहा है भली चंगी शारीरिक स्थिति के लोग भी मानसिक सन्तुलन खोने पर इन या ऐसे ही अन्य रोगों से ग्रसित होते देखे गये हैं। दन्त चिकित्सकों के सम्मेलन में उस विज्ञान के विशेषज्ञ डॉ0 आइ0 एल0 मैकस्गोनिगल ने अपने अनुभव के आधार पर कहा था- दाँतों की जड़े हिला देने और मसूड़ों को सड़ा देने वाले कारण में मानसिक तनाव सबसे अग्रणी है।
विलियम जेम्स ने कहा है- “हमारे पापों को भगवान तो क्षमा कर सकता है, पर स्नायु संस्थान के लिए यह सम्भव नहीं कि हमारी मानसिक विकृतियों को सहन कर सकें।”
यूरोप और अमेरिका के सभ्यताभिमानी देशों में जिन पाँच प्रधान रोगों के कारण अधिक लोग मरते हैं उनमें ‘आत्म हत्या’ भी एक प्रधान रोग है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि आत्म हत्या का प्रमुख कारण मानसिक उद्वेग ही होता है।
द्वितीय महायुद्ध में 3 लाख से कुछ अधिक व्यक्ति लड़ाई के मैदान में मरे थे, पर उन्हीं दिनों दस लाख से अधिक व्यक्ति हृदय रोग से आक्रान्त होकर मर गये। इसका कारण तलाश करने पर यही समझा गया कि युद्ध जन्य विभीषिका से उद्विग्न होकर लोग सन्तुलन खोने लगे और एक महाव्याधि के चंगुल में फंसकर अपनी जान गंवा बैठे।
प्रो0 एनाय हार्वन का कथन है कि- जितना ध्यान शारीरिक चिकित्सा पर दिया गया है, उतना यदि मानसिक अस्वस्थता के निवारण पर दिया जाता तो लोग अधिक नीरोग और सुखी रह सकते थे। मानसिक अस्वस्थता घेरे रहने पर शरीर संरक्षण के लिए किये गये प्रयास अधिक सफल नहीं हो सकते।