जीवन विद्या का एक-वर्षीय प्रशिक्षण

March 1967

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अपने आप में समान रूप से सुविकसित, सुसंस्कृत और समाज के लिए उपयोगी एवं परिपुष्ट व्यक्तित्वों का निर्माण करने के लिए हमें शिक्षा प्रणाली के सुधार एवं परिवर्तन पर आवश्यक ध्यान देना होगा। मनुष्य हाड़-माँस का पुतला मात्र है, भौतिक दृष्टि से वह एक कमजोर-सा जानवर मात्र है। उसमें जो विशेषता, महानता दिखाई पड़ती है वह उसकी अन्तःचेतना ही है। इस अन्तःचेतना को सत्पथ गामिनी, सुव्यवस्थित एवं उत्कृष्ट स्तरीय बनाना ही शिक्षा का वास्तविक प्रयोजन है। सच्ची शिक्षा पशु को मनुष्य बना देने में सर्वथा समर्थ एवं सफल होती है।

शिक्षा का मतलब रोटी कमाने में सहायता करने वाली जानकारी मात्र नहीं है। पेट भरने की कला तो जानवरों को भी आती है। कितने ही अशिक्षित व्यक्ति ऐसे हैं जो प्रशिक्षितों से कहीं अधिक अर्थ उपार्जन करते हैं। शिक्षा वह है जो मनुष्य को सुसंस्कृत, सुविकसित, समर्थ और सर्वांगीण प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व का निर्माण करने में सहायता करे। प्राचीन काल में हमारी शिक्षा-पद्धति ऐसी ही थी। आज हमने उस प्रक्रिया को संस्कार विहीन बना दिया। मोटी-मोटी पुस्तकों में दिमाग को थका देने वाला ऐसा कूड़ा-करकट तो पढ़ाया जाता है जो व्यावहारिक जीवन में कदाचित ही कभी किसी के कुछ काम आता हो, पर व्यक्तित्व को विकसित करने वाले संस्कारों का अभिवर्धन करने के लिये तनिक भी ध्यान नहीं दिया जाता। ऐसी निकम्मी शिक्षा पद्धति का ही परिणाम है कि इस तथाकथित ऊंची शिक्षा को प्राप्त कर लेने के बाद भी जो लड़के समाज में आते हैं वे अपने निजी जीवन में, परिवार तथा समाज में उस ज्ञान का कोई आलोक उत्पन्न नहीं कर पाते।

युग-निर्माण के लिए शिक्षा पद्धति का सुधार एवं परिवर्तन अवश्य होगा। इस पुण्य प्रयोजन को हम आज छोटे रूप में-नमूना या मॉडल के रूप में जन साधारण के सामने प्रस्तुत करते हैं और आशा करते हैं कि प्रस्तुत आधार पर समाज के कर्णधार शिक्षा की नई रूपरेखा विनिर्मित करेंगे और उसी का सर्वत्र प्रसार होगा। शिक्षा का स्वरूप बदलने पर व्यक्ति और समाज का स्वरूप बदलना निश्चित है।

आगामी जून को हम कई प्रकार की शिक्षा प्रणालियों के विकास के लिए कुछ महत्वपूर्ण प्रयोग आरंभ कर रहे हैं। इनमें थोड़े-थोड़े शिक्षार्थी ले रहे हैं, और उन पर अपनी आदर्श शिक्षा प्रणाली का प्रयोग कर के देश के विचारशील लोगों के सामने एक अभिनव अनुभव उपस्थित करने जा रहे हैं। प्रयोगों का, शिक्षा व्यवस्था का, स्वरूप छोटा, अपने सीमित साधनों के अनुरूप सीमित कलेवर का, रखेंगे। फिर भी उसका महत्व अत्यधिक महत्वपूर्ण होगा। इस परीक्षण के क्या परिणाम होते हैं इसको विज्ञ जनों में उत्सुकता पूर्वक देखा जायेगा। क्योंकि संसार को भावी शिक्षा प्रणाली का ढाँचा, इन प्रयोगों के प्रकाश में ठीक तरह से खड़ा किया जाना है।

एक वर्षीय शिक्षा पद्धति 15 से लेकर 50 वर्ष तक के प्रौढ़ व्यक्तियों के लिए है। इसमें मानव जीवन से संबंधित अनेक समस्याओं का स्वरूप तथा उनको हल करने के लिए विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न हल सुझाना प्रमुख आधार होगा। शिक्षार्थियों का व्यक्तित्व परिष्कृत करने के लिए जो बताया और कराया जाना आवश्यक है वह सब कुछ बताया और कराया जायेगा।

स्वास्थ्य जीवन का मूल आधार है। बिगड़े स्वास्थ्य को सुधारना, सुधरे को बनाये रखना और बढ़ाना किस प्रकार हो सकता है? मन की चंचलता, अस्थिरता, अस्त-व्यस्तता कैसे दूर की जा सकती है, और मन, मस्तिष्क को शाँत, सद्भावी, दूरदर्शी एवं सुसन्तुलित कैसे बनाया जा सकता है, इस विज्ञान को न केवल समझाया ही जायेगा वरन् अभ्यास भी कराया जायेगा। शरीर और मन की अस्वस्थता दूर करने के लिये एक प्रशिक्षणात्मक चिकित्सा व्यवस्था यदि इस एक वर्षीय प्रयोग को कहा जाए तो कुछ भी अत्युक्ति न होगी।

शरीर से बीमार तथा मन से विक्षिप्तों की चिकित्सा के लिये अस्पताल तो नहीं बन सकेगा पर साधारणतः जिनके ढीले मन कमजोर पड़ गये हैं वे इस शिक्षण का समुचित लाभ ले सकेंगे। स्वभाव परिवर्तन के लिए, वातावरण का परिवर्तन आवश्यक है। घरों में एक ढर्रे का वातावरण होता है। चिरकाल से उसमें रहते-रहते कुछ खास किस्म के अभ्यास बन जाते हैं और वे अपने समय पर आप ही उठते उभरते रहते हैं। इसलिए जीवन-क्रम में आवश्यक हेरफेर करना हो तो व्यक्ति को अपना निवास वातावरण बदलना पड़ता है। पूर्व काल में बच्चे घरों में रह कर नहीं गुरुकुलों के प्रेरणाबद्ध वातावरण में रह कर पढ़ते थे। घरों का ढर्रा उतना सुसंकृत नहीं होता, जितना गुरुकुलों का। इसलिए संस्कारों का निर्माण घरों के वातावरण में कठिनाई से ही सुधारा, बदला जा सकता है। कोई विरले ही मनस्वी ऐसे होते हैं जो अवाँछनीय घर, परिवार, पड़ोस या समाज में रहते हुए भी इस सबसे भिन्न प्रकार का, अनोखा, व्यक्तित्व विकसित कर सकें। साधारण स्तर के व्यक्ति तो उसी ढर्रे में ढल जाते हैं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए व्यक्तित्वों का निर्माण करने वाली शिक्षा-प्रणाली का स्वरूप वही हो सकता है जिसमें शिक्षार्थी को किसी आदर्श वातावरण में रहने की सुविधा हो।

एक वर्षीय शिक्षा इसी आवश्यकता को पूरा करेगी। प्रातः उठने से लेकर सोने तक की सारी कार्यपद्धति एक विशेष ढांचे में ढल जायेगी। शिक्षार्थी की वाणी, व्यवहार, चाल-ढाल, रीति-नीति पर पूरा ध्यान रखा जायेगा और उससे जहाँ भूल होती होगी सुधारा जायेगा। जीवन विज्ञान के हर पहलू पर नित्य-नियमित काम लिए जायेंगे, साहित्य पढ़ाया जायेगा, नोट्स लिखाये जायेंगे, प्रश्नोत्तरों में बहुत कुछ कहा सुना जायेगा। इस सबके साथ सबसे बड़ी बात यह होगी कि छात्र की प्रत्येक गतिविधि पर कड़ी निगाह रखी जायेगी और उसे एक ढांचे में ढालने के लिए उस प्रकार संभाला जायेगा जिससे वह पुरानी अनुपयुक्त आदतों को छोड़ सके और प्रसुप्त सद्भावों को सुविकसित कर सके। इसे एक कायाकल्प प्रयोग कहना चाहिए। शिक्षार्थियों से आशा की जायेगी कि वे एक वर्ष के लिए इन छोटे बच्चों सदृश बन कर आवेंगे जिनकी गतिविधियाँ उनके माता-पिता की इच्छानुसार रहती हैं। अनुशासन शिक्षार्थियों की अनिवार्य योग्यता होगी। ढीठ, उच्छृंखल, अवज्ञाकारी, उद्दण्ड, अपनी मनमर्जी चलाने वाले किसी की न मानने वाले छात्रों को निकाल दिया जायेगा। जो कहना ही न माने, अनुशासन ही स्वीकार न करे आखिर उसे सुधारा, संभाला भी कैसे जायेगा?

व्यक्तित्व का निर्माण मानव जीवन का सबसे बड़ा लाभ है। यह विभूति जिसके हाथ आ गई उसकी प्रगति के लिए दसों-दिशायें खुल जायेंगी। पर इस विभूति को पाने के लिए शिक्षार्थी में अनुशासन पालन की उपयुक्त श्रद्धा होना निताँत आवश्यक है। जो इस प्रशिक्षण के लिए आवें-वे अपने को गीली मिट्टी के रूप में मान कर आयें, जिसे आसानी से उपयुक्त साँचे में ढाला जा सके।

इस शिक्षण में दिन-दिन का निर्धारण, पहनाव-उढ़ाव, बोलना, बात करना तथा जीवन की हर विधि व्यवस्था को ठीक तरह से रखना प्रधान रूप में सिखाया जायेगा। व्यावहारिक प्रशिक्षण का सही स्वरूप यही है। यों प्रशिक्षण की क्रमबद्ध व्यवस्था भी चलेगी ही।

प्रातः दो क्लास और सायंकाल दो क्लास कुल चार क्लास पढ़ाई के लिए चला करेंगी। 7.30 से 8.30 तक पहला और 9 से 10 तक दूसरा क्लास चलेगा। पहले क्लास में मानव जीवन से सम्बंधित, शरीर, मन, परिवार, धन, सम्मान, अध्यात्म आदि हर पहलू का स्वरूप समझाया जाया करेगा और उनमें विकृतियाँ आने के कारणों तथा सुधारने के उपायों पर विस्तृत चर्चा की जाया करेगी। शिक्षण भाषणों के आधार पर चलेगा, छात्र नोट्स लिखते जायेंगे। कोई पाठ्य पुस्तक निर्धारित नहीं रहेगी। हाँ पुस्तकालय में उन विषयों की अनेकों पुस्तकें रहेंगी जिन्हें छात्र सहायक शिक्षा के रूप में नियमित रूप से पढ़ते रहा करेंगे।

दूसरा क्लास संसार तथा समाज की विविध जानकारियाँ देने के लिए सामान्य ज्ञान का रहा करेगा। पृथ्वी की रचना, आकाशस्थ ग्रह नक्षत्र, जीव विज्ञान, वनस्पति-शास्त्र, संसार का भूगोल, संसार के विभिन्न देशों का राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं साँस्कृतिक इतिहास, विभिन्न देशों की वर्तमान परिस्थितियाँ, संसार में चल रहे वर्तमान संघर्ष एवं विचार प्रवाह, अपने देश का अब तक का सर्वतोमुखी इतिहास, मध्यकालीन अन्धकार युग की खेदजनक परिस्थितियाँ, देश को पतन से उत्थान की ओर ले चलने वाली प्रवृत्तियों का इतिहास, राष्ट्र की वर्तमान परिस्थितियाँ तथा समस्या, भारतीय समाज का प्राचीन और अर्वाचीन ढाँचा, अपनी साँस्कृतिक विशेषतायें, वर्तमान सामाजिक दोष और उनको सुधारने के उपाय, हमारी आर्थिक आवश्यकतायें और उनकी पूर्ति का उचित मार्ग, अपराधों की प्रवृत्ति और उसका उन्मूलन, दुष्टों से निबटने के लिए किन आधारों का अवलम्बन करना पड़ता है, राजनीति के सिद्धाँत समाज-शास्त्र की पृष्ठभूमि, मनोविज्ञान के दैनिक जीवन में प्रयोग, सफल दांपत्य जीवन, बालकों के स्वस्थ विकास की विधि व्यवस्था, आत्मबल और मनोबल का अभिवर्धन, विश्व-धर्म और संस्कृतियों की तुलना, मानव जाति का उज्ज्वल भविष्य और उसका निर्माण आदि-आदि, व्यक्ति, समाज और विश्व से संबंधित समस्याओं पर इस सामान्य ज्ञान वाली कक्षा में आवश्यक जानकारी दी जायेगी। देश के कानूनों का उतना पक्ष भी समझा दिया जायेगा जिससे कभी अदालत कचहरी जाना पड़े तो वस्तुस्थिति समझने तथा उचित ढंग से न्याय प्राप्त करने में कठिनाई न पड़े। इसी प्रकार व्यापार, व्यवसाय तथा लोगों के साथ सद्भावनापूर्ण निर्वाह करने के लिए क्या रीति−नीति अपनानी चाहिए इसका ज्ञान अनेक उदाहरणों के साथ कराया जाता रहेगा।

सायंकाल की दो कक्षाओं में दो घंटे की शिक्षा और एक घंटे का संभाषण रहेगा। जिनके घर में अपनी कृषि व्यापार आदि हैं, जिनके पास कमाने के ढर्रे मौजूद हैं उनकी बात दूसरी है, पर साधारण छात्रों को कुछ ऐसे शिल्प भी सीख लेने चाहिएं जो समय पड़ने पर उनकी आजीविका समस्या हल करने में भी सहायक हो सके। इस दृष्टि से एक वर्ष में दो शिल्प-व्यवसाय सिखाने की व्यवस्था की गई है। 1. प्रेस व्यवसाय 2. साबुन व्यवसाय। एक बजे से तीन बजे तक यह दो शिल्प सिखाये जाया करेंगे।

जैसे-जैसे देश में शिक्षा बढ़ती जायेगी उसी अनुपात से मुद्रण व्यवसाय बढ़ेगा। अभी 20 प्रतिशत लोग पढ़े हैं। आगामी दस वर्ष में यह संख्या चौगुनी अर्थात् 80 प्रतिशत हो जायेगी। तब प्रेस भी उसी अनुपात से बढ़ेंगे। इस व्यवसाय में लाभ भी है, सम्मान भी है और विकास की गुँजाइश भी है। घाटे की कोई संभावना नहीं है। इसलिए एक वर्ष में प्रेस संबंधी हर पहलू का उतना क्रियात्मक ज्ञान करा दिया जायेगा कि अपना स्वतंत्र प्रेस खोल कर उसे सफलता पूर्वक चलाया जा सके। या किसी दूसरे प्रेस का मैनेजर बना जा सके।

अक्षर जोड़ना (कम्पोज), छपाई मशीनों की साज संभाल, उन्हें खोलना-कसना, पैर से छापने वाली मशीनों का ज्ञान, बिजली से चलने वाली मशीनों का चलाना तथा खोलना-कसना, पुस्तक बाइडिंग, नम्बरिंग, परफोरेटिंग, कटिंग आदि प्रेस संबंधी सभी छोटे-बड़े क्रिया-कलापों का ठीक तरह अभ्यास करा दिया जायेगा। ग्राहकों में काम कैसे मिलता है, छपाई के रेट कितने होते हैं, कागज कितने किस्म के होते हैं, वे कहाँ से किस भाव मिलते हैं, विभिन्न प्रकार के जाँब काम किस प्रकार, किस कागज, किस साइज और किस टाइप में छापे जाते हैं दूसरे प्रेसों की प्रतियोगिता में किस प्रकार खड़ा रहा जा सकता है, कर्मचारियों संबंधी उलझनें, प्रेस संबंधी सरकारी ज्ञान, रंगीन स्याहियों के अनेक सम्मिश्रण आदि वे सभी बातें सिखा दी जाती हैं, जो किसी प्रेस-मालिक या मैनेजर को जाननी आवश्यक है।

इस शिक्षा को प्राप्त कर कोई व्यक्ति पाँच हजार की पूँजी से ही प्रेस खोल सकता है, उससे अपनी आजीविका कमा सकता है। कई लोगों को, यहाँ तक कि महिलाओं को भी उसी काम में खपाकर सबके लिए आजीविका का कार्य खोला जा सकता है। अपनी स्थिति प्रेस खोलने की न हो तो किसी के यहाँ नौकरी की जा सकती है। वह भी न मिले तो कम्पोजीटर और मशीनमैन बनकर बेकारी का हल तो कभी भी निकाला जा सकता है। अखबार निकालना व पुस्तक-प्रकाशन का व्यवसाय भी प्रेस से सम्बंधित है, जिन्हें वैसी सुविधा है वे इस तरह के काम भी प्रेस के साथ-साथ चला सकते हैं।

दूसरा व्यवसाय साबुन का है। अनेक तरह के सस्ते महंगे, धोने के, नहाने के ठंडे गरम साबुन बनाने का शिल्प तो सिखाया ही जायेगा साथ ही यह भी बताया जायेगा कि इस व्यवसाय को बाजार में सफल बनाने का तरीका क्या है? दूसरे साबुन वालों से अच्छा और सस्ता माल कैसे तैयार किया जा सकता है? प्रतिद्वन्दिता में कैसे ठहरा जा सकता है? अपनी खपत कैसे बढ़ाई जा सकती है? प्रयोग में आने वाली वस्तुयें तेल, सोडा आदि कहाँ से, किस किस्म के, कितनी किफायत से मंगाये जा सकते हैं? आदि जानकारियाँ प्राप्त कर लेने के बाद कोई भी व्यक्ति सहायक धंधे के रूप में इस व्यवसाय को चला सकता है। आजकल साबुन का प्रचलन बहुत है। देश की शिक्षा और सभ्यता जैसे-जैसे बढ़ेगी साबुन की आवश्यकता भी बढ़ेगी। इसलिए इस व्यवसाय का भविष्य उज्ज्वल है। लाभ भी कम नहीं है।

आम तौर से हर व्यवसाय के कुछ गुप्त रहस्य होते हैं, जो कोई किसी को बताता नहीं। इसी जानकारी के अभाव में व्यवसाय असफल हो जाते हैं। यहाँ की शिक्षा में यह विशेषता होगी कि उपरोक्त शिल्प सिखाये ही नहीं जायेंगे वरन् सफलता से संबंध रखने वाले सभी आवश्यक रहस्य तथा उतार-चढ़ाव भी समझा दिये जायेंगे ताकि अजनबी होने के कारण इन कार्यों में जोखिम न उठानी पड़े।

एक वर्षीय शिक्षा में उपरोक्त दो शिल्प प्रधान हैं। दो छोटे सहायक शिल्प और भी सिखा दिये जायेंगे, जैसे रबड़ की मुहरें बनाना-यह कार्य प्रेस के साथ-साथ बड़ी आसानी से चल सकता है और लाभ भी बहुत हैं। 2. बत्ती बनाना साबुन के साथ यह कार्य भी बड़ी आसानी से चल सकता है।

चौथा काम वक्तृत्व कला तथा शस्त्र-संचालन का है। सप्ताह में तीन दिन भाषण देने की कला सिखाई जाया करेगी ताकि शिक्षार्थी अच्छी वक्तृत्व कला सीखकर समयानुसार अपने विचार धड़ल्ले से प्रकट कर सकें और जन समाज का नेतृत्व कर सकने की क्षमता उपलब्ध कर सकें। सप्ताह में तीन दिन शस्त्र-विद्या सिखलाई जाया करेगी जिसमें लाठी चलाने के विविध प्रयोग, छुरी, भाला, फरसा आदि को चलाने तथा उनसे अपने को बचाने के अभ्यास, निशानेबाजी, गुलेल, धनुष-बाण और बन्दूक चलाने का अभ्यास होगा, आत्म-रक्षा और स्वास्थ्य अभिवर्धन के लिये शस्त्र-संचालन का ज्ञान होना भी जीवन की एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। यह वक्तृत्व कला और शस्त्र कला चौथे क्लास में सिखाया जाया करेगा और छात्र एक वर्ष में दोनों ही कार्य भली प्रकार सीख लेंगे।

कुछ कार्य प्रतिदिन के अभ्यास में और भी रहेंगे- 1. अपना भोजन स्वयं पकाना 2. अपने कपड़े स्वयं धोना 3. नित्य-नियमित व्यायाम। व्यायामों में पी.टी. ढंग की कवायदों की प्रधानता रहेगी। भोजन सस्ता पड़े, अपनी मन-मर्जी का बने और उस कला का अभ्यास भी हो जाये इसलिए हर छात्र को भोजन बनाने की शिक्षा आदि से अन्त तक दें दी जायेगी। इसी प्रकार कपड़े धोना, प्रेस करना, संभालकर रखना आदि भी सिखाया जायेगा। रविवार का दिन विशेष खेल-कूद यात्रा, मनोरंजन आदि के लिए रहा करेगा। इन्हीं दिनों गृहशिल्प की भी कितनी ही बातें सिखा दी जायेंगी। टूटे बर्तनों की मरम्मत, चुचाती छतों को ठीक करना, धूप-धूप करती लालटेनों को सुधारना, स्टोवों की सफाई, कपड़े रंगना, किताबों की जिल्दें बनाना, चारपाई बुनना आदि ऐसे कितने ही गृहशिल्पों का अभ्यास भी करा दिया जाता है, जिनकी आये दिन आवश्यकता पड़ती है और जिनके न जानने पर हानि उठानी पड़ती है।

नित्य, सूर्योदय से पूर्व उठना, स्नान, संध्या, जलपान, भोजन, विश्राम, व्यायाम, बौद्धिक कक्षायें, शिल्प, शस्त्र-संचालन, भाषण, विचार-विनिमय, स्वाध्याय, विनोद जैसे कार्यक्रमों में बंटी हुई दिनचर्या, एक स्तर के शिक्षार्थियों का पारस्परिक स्नेह-सहयोग, शिक्षकों की अभिभावकों जैसी आत्मीयता, तपोभूमि का स्वर्गीय वातावरण, प्रतिदिन मिलने वाला अमृतोपम ज्ञान यह सब मिलाकर शिक्षार्थी के लिए यह अवधि बड़ी उल्लास, आनन्द और संतोष से भरी-पूरी बीतेगी।

जिन्हें सुविधा हो इस प्रशिक्षण में सम्मिलित होने का प्रयास करें। भोजन-वस्त्रों का अपना खर्च छात्र स्वयं वहन करेगा। शिक्षा, निवास, बिजली आदि की व्यवस्था निःशुल्क है।


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