जेष्ठ का पन्द्रह दिवसीय शिक्षण-शिविर

March 1967

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जेष्ठ सुदी प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक इस वर्ष शुक्ल पक्ष 14 दिन का पड़ेगा। इस पखवाड़े में गायत्री तपोभूमि में शिक्षण-शिविर चलेगा। अंग्रेजी तारीखों के हिसाब से 9 जून शुक्रवार से आरंभ होकर यह 23 जून शुक्रवार को समाप्त होगा।

वर्ष में एक बार अपने स्वजन सहचरों से मिलने, उनके साथ हंसने-खेलने, विचार-विनियम करने का अवसर ग्रीष्मऋतु के इस शिविर के समय निकल आता है। यों स्वल्प समय के लिए बीच-बीच में भी मिलना-जुलना होता रहता है, पर विस्तृत विचार-विनिमय करने अपनी बात कहने, दूसरों की सुनने का एक-दूसरे को अधिक निकटता और घनिष्ठता के साथ समझने का अवसर 15 दिन की अवधि में ही जरा अच्छी तरह मिलता है। गर्मी के दिन सबके लिये थोड़ी सुविधा के रहते हैं। स्कूलों की छुट्टियाँ रहने से अध्यापक एवं विद्यार्थी वर्ग आसानी से आ सकता है। कचहरियों की भी उन दिनों छुट्टी रहती है। किसान भी खेत-खलिहानों से निवृत्त हो जाता है।

जिस जीवन-कला का प्रशिक्षण इन ग्रीष्म शिविरों में किया जाता है, उसे सार्थक तभी बनाया जा सकता है जब पति-पत्नी दोनों ही मिल कर उस प्रकार की व्यवस्था बनायें। परिवार निर्माण के लिये तो पत्नी का सहयोग और भी अधिक आवश्यक है इसलिए शिक्षार्थियों को पत्नियों सहित आने को कहा जाता है। स्त्रियों के लिए उन दिनों घर पर छोड़ना कठिन होता है जब उनके बच्चे पढ़ने जाते हैं और समय पर तैयार करना पड़ता है। गर्मी के दिनों में स्कूलों की छुट्टियाँ रहने से बच्चों के साथ महिलायें भी सुविधापूर्वक आ सकती हैं। इसलिये ग्रीष्म ऋतु में ही कई वर्षों से एक शिविर का हर साल आयोजन किया जाता है। गर्मी जरूर इन दिनों अधिक पड़ती है फिर भी सुविधा का समय वही है।

अलग-अलग समय पर हमसे मिलने आने की अपेक्षा एक निर्धारित समय पर बहुतों का इकट्ठे हो जाना, सभी के लिए सुविधाजनक रहता है। हमें साहित्य सृजन का महत्वपूर्ण कार्य इन पाँच वर्षों में ही पूरा करना है। पत्र-व्यवहार से लेकर शाखा-सम्मेलनों में बाहार जाने तक प्रायः व्यस्तता ही बनी रहती है। जो मिलने आते हैं उनसे एक-एक करके अलग-अलग लम्बा वार्तालाप एवं मार्गदर्शन करने की भी असुविधा रहती है। श्िवर के पूरे 15 दिन हम और कुछ नहीं करते, आने वालों से परामर्श करने में, उनका मार्गदर्शन करने में ही लगे रहते हैं। जो बातें एक दिन में पूरी नहीं हो सकीं वह धीरे-धीरे पन्द्रह दिन में तो पूरी हो ही जाती हैं। इसलिए हमें विस्तारपूर्वक अपने विचार प्रकट करने और आगन्तुकों से विस्तृत विनिमय करने में वही समय सुविधा का रहता है।

आगन्तुकों को भी इस सुविधा से बहुत लाभ मिलता है। अन्य अवसरों पर उन्हें थोड़ी देर अपनी काम की बात कर लेने पर छुट्टी मिल जाती है। पर इस समय वे पूरे पन्द्रह दिन हमारे साथ हंसते-बोलते, पूछते-बताते रहते हैं। जीवन जीने की कला के हर पहलू पर इन दिनों हमारे क्रमबद्ध एवं शृंखला व्यवस्था में बंधे हुए भाषण होते हैं। जिनमें हर व्यक्ति को अपने सामने प्रस्तुत समस्याओं में से प्रायः प्रत्येक के हल मिल जाते हैं। अन्य व्यक्ति अपनी-अपनी समस्याओं, जिज्ञासाओं के संदर्भ में अनेक प्रश्न पूछते हैं, उनके उत्तर सुनने से वह जानकारी मिल जाती है जो अपने लिये भी बड़ी उपयोगी सिद्ध होती है।

तपोभूमि के स्थान की अपनी विशेषता है, उस भूमि में एक प्रेरणा-प्रद प्रभाव है। शिविर के दिनों में एक ही प्रकृति के, एक ही स्वभाव एवं एक ही मार्ग के चलने वाले व्यक्ति इकट्ठे होते हैं तो पारस्परिक आत्मीयता एक दूसरे को आनन्दविभोर कर देती है। तपोभूमि में लगभग 150 व्यक्तियों का स्थान है। इतने व्यक्तियों को ही स्वीकृति दी जाती है। यह सारा समाज एक घनिष्ठ आत्मीयता के साथ जितने दिन साथ-साथ रहता है उतने दिन ऐसा लगता है मानो वहाँ स्वर्ग का अवतरण हो चला। इस वातावरण को छोड़ते हुए लोगों के दिल टूटते हैं और कितने ही तो बिछोह की व्यवस्था से सिसकियाँ भर-भर कर रोते हैं। एक ही बात हर एक की जबान पर रहती है-’इन थोड़े दिनों में हम स्वर्ग में रहने का आनन्द अनुभव करके जा रहे हैं।’

इस परस्पर प्रेम, परिचय और सहयोग से आगे चलकर कई साँसारिक लाभ भी मिलते हैं। कितने ही व्यक्ति अपने लड़के-लड़कियों के विवाह के लिये उपयुक्त खाँचे मिला लेते हैं। अपने व्यापार, व्यवहार के लिए साथी ढूँढ़ लेते हैं और कई बार तो इस प्रकार के ताल-मेल बड़े ही उत्साहवर्द्धक सिद्ध होते हैं।

ब्रज की तीर्थ यात्रा का लाभ प्रत्यक्ष है। मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, गोवर्धन, दाऊजी, नन्दगाँव, बरसाना आदि ब्रज के तीर्थों की सहयात्रा बसों में होती है, तो समय भी कम लगता है, किफायत भी अधिक होती है, जानकारी भी अधिक मिलती है और आनन्द भी अधिक आता है। सैर-सपाटे के लिए अक्सर लोगों का बड़ा मन रहता है और इसके लिये पैसा भी खर्च करते हैं। इस दृष्टि से भी मथुरा यात्रा बड़ी मनोरंजक और आकर्षक रहती है। यहाँ देखने को बहुत कुछ है।

जून के हर शिविर में जीवन जीने की कला का प्रशिक्षण रहता है। आनन्द और उल्लास से प्रगति और समृद्धि से, सफलता और सम्मान से ओत-प्रोत बलिष्ठ और प्रबुद्ध जीवन किस तरह जिया जा सकता है उस प्रश्न के विभिन्न पहलुओं पर विभिन्न दृष्टिकोणों से संक्षेप में बहुत कुछ सिखाया जाता है। इस वर्ष के शिविर में प्रश्नोत्तर की विशिष्ट पद्धति अपनाई जायेगी। शरीर, मन, परिवार, समाज, देश, व्यवसाय, मित्रता, शत्रुता, राजनीति, धर्म, संस्कृति, अध्यात्म आदि मानव जीवन से संबंधित अगणित प्रश्नों के सुलझे हुए उत्तर दिये जायेंगे। इससे हर आगन्तुक को अपनी उलझनों को सुलझाने एवं अवरोधों का हल उपलब्ध हो सकेगा।

जो परिजन अधिक व्यस्त रहते हैं, जिन्हें समय का अभाव रहता है, उन्हें भी इस शिविर में आना चाहिये। सफलता और समृद्धि के लिये वे दिन-रात व्यस्त रहते हैं फिर भी निराशा ही हाथ लगती है। ऐसे लोग अपने अवरुद्ध मार्ग को पुनः खोलने के लिए नये सिरे से प्रकाश प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार प्रशिक्षण उनके लिए घाटे का नहीं लाभ का ही सौदा सिद्ध होगा।

प्रबुद्ध परिजनों को इन शिविरों में विशेष रूप से आमंत्रित किया जाता है। वे लौकिक और अध्यात्मिक जीवन की अनेक उलझनों, समस्याओं का समाधान यहाँ प्राप्त करेंगे। अपने व्यक्तित्व का, परिवार का, समाज का हित साधन के करने के लिए आवश्यक साहस और प्रकाश उपलब्ध करेंगे।

जिन्हें यज्ञोपवीत कराना हो, वानप्रस्थ लेना हो तथा बच्चों का नामकरण, विद्यारंभ, मुण्डन आदि संस्कार कराना हो उनके लिये भी यह अवसर उत्तम है। इसी बीच गंगा दशहरा को गायत्री जयन्ती पड़ती है। गायत्री उपासकों को अपने इष्टदेव की जयन्ती मनाने के लिए उसकी सिद्धपीठ में उपस्थित होना, एक आध्यात्मिक आवश्यकता की पूर्ति करना है। एक वर्ष में एक बार माता का दर्शन ऐसे पुण्य पर्व पर कर लिया जाए तो उससे अन्तःकरण में सन्तोष होना स्वाभाविक ही है।

तपोभूमि में निवास के लिये सीमित स्थान है इसलिये जिन्हें आना हो अप्रैल के अन्त तक पत्र भेज कर स्वीकृति प्राप्त कर लें। स्थान पूरा हो जाने पर किसी को भी अनुमति न दी जा सकेगी। हर आगन्तुक को अपनी भोजन-व्यवस्था स्वयं करनी चाहिये। इसके लिये आवश्यक बर्तन साथ लाने चाहिये, उसी में सुविधा रहेगी। जो न बना सकें उनके लिये मूल्य देकर खरीदने का भी प्रबंध रहेगा।


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