आप क्या करें-हम क्या करें?

March 1967

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अनावश्यक भीड़-भाड़ की छटनी कर देने के बाद अब अखण्ड-ज्योति परिवार में इस वर्ष थोड़े-से व्यक्ति ही बचे हैं। उन्हें काम-के भावनाशील एवं प्रबुद्ध कहा जाये तो कुछ अत्युक्ति न होगी। गत वर्ष छटनी इसी प्रयोजन के लिए भी की गई थी। अब अपने छोटे से परिवार से हम बड़े सन्तुष्ट और प्रसन्न हैं, क्योंकि मिल-जुलकर कुछ तथ्यपूर्ण काम कर सकना इन लोगों के सहयोग से संभव हो सकेगा।

अध्यात्म तत्त्व-ज्ञान को पढ़, सुन या समझ लेने पर से कुछ काम नहीं चलता। उसका लाभ तभी मिलता है, उसे आवश्यक नित्यकर्मों में तथा दैनिक जीवन की विचार पद्धति में सम्मिलित करने के लिए आवश्यक उत्साह एवं साहस उत्पन्न हो सके। अपने छोटे-से परिवार को इसी प्रयोग में निरत करना है। इस वर्ष जो थोड़े-से ही काम अपने प्रबुद्ध परिजनों को सौंपे जा रहें है, उन्हीं की चर्चा इस अंक में की जा रही है।

गत फरवरी अंक में ‘उच्चस्तरीय गायत्री साधना’ स्तम्भ के अंतर्गत जो भावनात्मक उपासना पद्धति बताई गई है, वह जितनी सरल है, उतनी ही प्रेरक भी है। प्रत्येक परिजन से आशा की गई है कि उसे आरंभ कर दिया जाये। आत्म-विकास में वह निश्चित रूप से बड़ी सहायक होगी।

इसी अंक में पीछे ‘आत्म-कल्याण की त्रिविधि साधना’ लेख के अंतर्गत प्रातः उठने और रात को सोते समय की आत्म-निरीक्षण साधना का उल्लेख है। वह हमारी जीवन साधना में अनिवार्य रूप से सम्मिलित होनी चाहिए। अध्यात्म को व्यवहार में परिणत करने की प्रेरणा उसी से मिलेगी। आलस्य और प्रमाद को उसी आधार पर जीता जा सकेगा। भूलों के सुधार के लिए वही अमोघ उपचार है। उसे हर परिजन कार्य-रूप में परिणत कर दे।

तीसरा कार्यक्रम विचार-निर्माण का है। लगभग सभी परिजनों के यहाँ दोनों पत्रिकायें जाती हैं। कुछ ही ढीले-पोले लोग बचे हैं, जिन्होंने युग-निर्माण पत्रिका अभी नहीं मंगाई है-ऐसे लोगों को उपेक्षा-अन्यमनस्कता छोड़ कर उसे भी मंगाना आरंभ कर देना चाहिए। इन दोनों पत्रिकाओं को स्वयं पढ़ें, अपने हर घर के शिक्षित के पढ़ाने और अशिक्षित को सुनाने का प्रबंध करें।

चौथा कार्य घर में ज्ञान-मन्दिर की, ब्रह्म विद्यालय की स्थापना का है निर्धन-से-निर्धन, व्यस्त-से-व्यस्त को विश्व के नव-निर्माण का महान प्रयोजन पूरा करने के लिए एक घंटा समय और 10 नये पैसे लगाते रहने की पुण्य प्रक्रिया अपनानी चाहिए। हमारे ‘झोला पुस्तकालय’ बड़े उत्साह से चले। सस्ते ट्रैक्ट 70 छप चुके हैं। आगामी जून तक 100 और तैयार हो जायेंगे। उन्हें 10 नये पैसा फंड से मंगाया जाता रहे और एक झोला में साथ रखा जाये। अपने परिचय एवं प्रभाव क्षेत्र में इन्हें देने और वापिस लेने का क्रम बराबर चलता रहे। यह ‘ज्ञान-यज्ञ’ मानव जाति के भावी निर्माण का अत्यंत महत्त्वपूर्ण आधार है। संकोच, झिझक, बहानेबाजी, आलस्य आदि किसी भी व्यवधान को इस मार्ग में नहीं आने देना चाहिए और समझना चाहिए कि यह छोटा दीखने वाला कार्य वस्तुतः अत्यन्त उच्चकोटि का परमार्थ है। इसी आधार पर अनेक आत्माओं में उत्कृष्टता का बीज बोया जाता है और उससे विशालकाय वट-वृक्षों, का महान व्यक्तित्वों का उत्पादन किया जाता है।

यह चारों ही कार्य एक-से-एक बढ़कर, एक-से-एक महत्त्वपूर्ण हैं। हम आशा करेंगे कि अपने छोटे परिवार में यह चारों की प्रक्रियायें कार्यान्वित होंगी। इनकी उपेक्षा न की जायेगी।

साहित्य-सृजन के अतिरिक्त एक दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य इस वर्ष से हम कर रहे हैं और व्यक्तित्व के समग्र निर्माण की जीवन कला से सर्वांगीण ज्ञान की शिक्षा परिवार के प्रत्येक व्यक्ति को देना आरंभ कर रहे हैं। हमारे कार्यकाल की अवधि मात्र 5 वर्ष शेष है। अपने वर्तमान परिजनों में से प्रत्येक को अपने समीप अधिक-से-अधिक रखने का हमारा विचार है। कारण यह है कि जिन तथ्यों की शिक्षा हम देते रहे हैं वह केवल साहित्य के माध्यम से ही पूरी नहीं हो सकती जिसके लिए यह भी आवश्यक है कि इस विद्या का व्यावहारिक पहलू भी जाना-समझा जाये और उन सिद्धान्तों को कार्यरूप में परिणत करते हुए जो कठिनाई होती है उन्हें हल करने का उपाय जाना जाये। इसके लिए सान्निध्य आवश्यक है।

प्राचीन काल में शिक्षा का आधार यही था। छात्र गुरुकुलों में तत्त्वदर्शी आचार्यों के सान्निध्य में रहकर शिक्षा प्राप्त करते थे। वहाँ उन्हें पुस्तकों का ही ज्ञान नहीं मिलता था वरन् साथ-साथ स्वभाव में सत्यप्रवृत्तियों के समावेश का व्यावहारिक प्रयोग भी हो जाता था। वातावरण का भारी प्रभाव पड़ता है। घरों के दूषित वातावरण में बच्चे अनेक दुर्गुण सीखते हैं। अतएव कच्ची उम्र सीखने की उम्र में उन्हें गुरुकुलों के वातावरण में रहने की व्यवस्था की जाती थी। पढ़कर जब वे घर आते थे तो पुस्तकीय ज्ञान ही नहीं वरन् परिपुष्ट प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के निर्माण का लाभ भी उन्हें मिल जाता था। इस दुहरे ज्ञान को लेकर जब वे घर आते थे तो अपनी महान आन्तरिक विशेषताओं के कारण जीवन के हर क्षेत्र में आश्चर्यजनक सफलतायें प्राप्त करते थे। पारिवारिक जीवन में स्वर्ग का सृजन करते थे और भौतिक जीवन की समृद्धियों और विभूतियों से सुसज्जित बनते चले जाते थे। जब तक वह गुरुकुल पद्धति रही तब तक इस देश में प्रत्येक घर-नर रत्नों का भाँडागार बना रहा। अब वह आधार ही टूट गया तो व्यक्तियों की ढलाई का प्रयोजन कैसे पूरा हो?

यों कहने को आज भी कितने ही गुरुकुल जहाँ-तहाँ चल रहे हैं पर उनमें से अधिकाँश छात्रावास साहित्य-अध्ययन मात्र की सी सुविधा देते हैं। उनमें से बहुत कम ऐसे हैं जिनमें ऐसे अध्यापक हों जिनके संपर्क से छात्रों के व्यक्तित्व को चन्दन के समीप उगे हुए पौधों के सुगंधित हो उठने जैसे लाभ मिल सकें। गुजारे के लिए पढ़ाने की नौकरी करने वाले शिक्षक केवल पुस्तकें पढ़ा सकते हैं, जिनके पास स्वयं व्यक्तित्व नहीं वे छात्रों को व्यक्तित्व कहाँ से देंगे? इस एक अभाव के कारण गुरुकुलों की इमारतें तथा विधि-व्यवस्था लम्बी-चौड़ी होने पर भी वह परिणाम देखने को नहीं मिल रहा है कि जो भी छात्र वहाँ से निकले अपने प्रकाश से अपना क्षेत्र प्रकाशवान करता चला जाये। इस आवश्यकता की पूर्ति जहाँ से हो सके, ऐसे गुरुकुल कठिनाई से ही कहीं मिल सकेंगे?

कोई बड़ा गुरुकुल चलाने की स्थिति में अभी हम नहीं हैं, पर इतना अवश्य चाहते हैं कि वर्तमान अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्यों में से हर वर्ग के लोगों को अपने जीवन के अनुभवों एवं निष्कर्षों की पूँजी के आधार पर जिनसे हमने स्वयं प्रगति की है-उन सद्गुणों की सम्पत्ति का वितरण इन थोड़े से शेष दिनों में करते जाने की उत्कंठा प्रबल हो रही है। इसलिए प्रशिक्षण की ‘एक योजना इन दिनों बनाई है और उसे आगामी जून से कार्यान्वित करने जा रहे हैं।

इस प्रशिक्षण के अंतर्गत चार परिस्थितियों के व्यक्तियों के स्तर का ध्यान रखते हुए चार प्रकार के प्रशिक्षण होंगे। 1. अत्यधिक व्यस्त-व्यवसाय या नौकरी आदि में लगे हुए लोगों के लिए वर्ष में पन्द्रह दिन का शिक्षण शिविर। यह हर वर्ष जेठ सुदी प्रतिपदा से पूर्णिमा तक हुआ करेगा। 2. युवकों के लिए एक वर्ष का प्रशिक्षण जिसमें व्यावहारिक जीवन के हर पहलू की शिक्षा दी जायेगी। इस अवधि में कुछ ऐसे शिल्प भी सिखा दिये जायेंगे जिनके आधार पर यदि घर में निज का व्यवसाय न हो तो सुविधापूर्वक आजीविका भी उपार्जित की जाती रहे। 3. पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्त लोगों के लिए चार वर्ष की शिक्षा जिसमें 1. गीता, रामायण, वेद उपनिषद् एवं धर्मशास्त्र का महत्वपूर्ण अध्ययन, 2. चौबीस पक्ष का एक गायत्री पुरश्चरण, 3. लोक-सेवा की भावनात्मक नव-निर्माण की योग्यता, 4. साधना तथा तपश्चर्या का यथा योग अभ्यास। 4. जूनियर हाईस्कूल (कक्षा 8) की योग्यता के 15 वर्ष से अधिक आयु के छात्रों के लिए 4 वर्षीय कालेज स्तर की शिक्षा। यद्यपि सरकारी उपाधि प्राप्त न की जा सकेगी, पर इस प्रशिक्षण से निकले हुए छात्रों में बी.ए. के छात्रों की तुलना में हर दृष्टि से कहीं अधिक ज्ञान होगा। वे नौकरी करना पसंद ही न करेंगे क्योंकि तब उनके पास इतना ज्ञान, अनुभव एवं मनोबल होगा कि वे दूसरों को नौकर रखने की बात ही सोच सकेंगे।

इन चार स्तर की शिक्षाओं का स्वरूप आगे चार लेखों में प्रस्तुत किया जा रहा है, और परिजनों से आशा की जा रही है कि वे स्वयं को एवं अपने परिवार के सदस्यों को इस शिक्षा व्यवस्था से लाभान्वित करने की चेष्टा करें। इस प्रशिक्षण का आरंभ मथुरा से अभी छोटे रूप में हो रहा है पर भविष्य में यह प्रक्रिया देश-व्यापी व विश्वव्यापी बनेगी और इस आधार पर व्यक्ति एवं समाज के नये निर्माण का महान प्रयोजन सफलता पूर्वक पूर्ण किया जा सकेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118