वानप्रस्थों की आध्यात्मिक शिक्षा साधना

March 1967

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जिनकी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ निवृत्त हो चुकी हैं, बच्चे कमाने-खाने लगे हैं, उपार्जन एवं व्यवस्था का उत्तरदायित्व दूसरों ने संभाल लिया है, नौकरी से निवृत्त होकर पेंशन, फंड आदि की व्यवस्था बना ली है अथवा जिन्हें पैतृक उत्तराधिकार में गुजारे जितनी सम्पत्ति मिल गई है, उनके लिए यही उचित है कि अपना शेष जीवन धन उपार्जन करते रहने की तृष्णा में ही बर्बाद न करे। बाल-बच्चों को प्यार करना उचित है, पर उनके मोह में अपना जीवनोद्देश्य नष्ट करना उचित नहीं। नाती-पोतों को गोदी खिलाते रहने की और आराम से दिन काटने की रीति-नीति निरुद्देश्य निकम्मे व्यक्तियों के लायक है। जिनमें थोड़ा जीवन है, विवेक है, अन्तः प्रकाश है, उन्हें अपनी गतिविधियाँ आदर्शवादिता के ढांचे में ढालनी चाहिए।

जब तक परिवार की जिम्मेदारियाँ अपने सिर पर हैं तब तक घर की सीमा में बंधे रहना ही होता है, पर जब बड़े बच्चे ने घर संभाल लिया तो उसके ऊपर छोटे भाई बहनों की जिम्मेदारी भी चली जाती है। प्राचीन काल में यही प्रथा थी, बड़े बच्चे को उत्तराधिकारी-युवराज बना कर लोग आत्मकल्याण के लिए आत्मोत्थान की दिशा में चल पड़ते थे। वानप्रस्थ जीवन व्यतीत करके अपना और समस्त संसार का भला करते थे। ढलती आयु में वही मार्ग अपनाना हर विवेकशील व्यक्ति के लिए उचित है।

बचपन की लौकिक शिक्षा-साधना जवानी में गृहस्थ को सुखी समृद्धि बनाती है। ढलती आयु में पुनः वैसा ही समय आता है। वानप्रस्थ में आध्यात्मिक शिक्षा-साधना का पुनः वैसा ही अवसर आता है। इससे मरणोत्तर जीवन बनता है। आत्मा को परमात्मा की दिशा में बढ़ने का अवसर मिलता है और समस्त संसार की, देश, धर्म, समाज, संस्कृति की सेवा करने का मंगलमय सौभाग्य मिलता है। जीवनकाल में ढलती आयु के गृह निवृत्त वानप्रस्थ ही लोक निर्माण की समस्त सत्प्रवृत्तियों का संचालन करते थे। वे ही अपने समय एवं समाज के सच्चे नेता और निर्माता होते थे। खेद है कि ढलती आयु के- गृह निवृत्त व्यक्ति भी तृष्णा-वासना के कीचड़ में पड़े सड़ रहे हैं और मानव जाति को उज्ज्वल भविष्य की संभावनाओं से वंचित कर रहे हैं।

उपरोक्त स्तर के व्यक्तियों को शेष जीवन का सदुपयोग करने के लिए विशेष रूप से आमंत्रित किया जा रहा है। उनके लिए एक चार वर्षीय शिक्षा-साधना की समग्र योजना बनाई गई है जो- 1. साधना 2. स्वाध्याय 3. सेवा, इन तीनों भागों में विभक्त है।

1. साधना वर्ग में चार वर्षों के अंतर्गत एक 24 लक्ष्य गायत्री महापुरश्चरण कराया जायेगा। इसके लिए गायत्री तपोभूमि की सिद्ध पीठ हर दृष्टि से उपयुक्त है। यहाँ अखण्ड-ज्योति व नित्य यज्ञ व्यवस्था रहने से तथा गायत्री माता के सान्निध्य में निरन्तर जप पुरश्चरण होते रहने से भूमि में वह प्रभाव है जिससे गायत्री साधना भली प्रकार सफल हो सकती है। साथ-साथ उच्चस्तरीय पञ्चकोषी गायत्री उपासना का भी साधना क्रम चलेगा। अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष, आनन्दमय कोष इन पाँचों आवरणों के हटने से आत्म साक्षात्कार तथा ब्रह्म निर्वाण का लक्ष्य पूरा होता है। इन कोष के अनावरण से आत्मा की प्रसुप्त अन्तः कक्षायें जागृत होती हैं और ये छिपी पड़ी दिव्य विभूतियों का अनुभव होता है। इस साधना क्रम के आधार पर बढ़ी हुई आत्म शक्ति से साधक आत्मकल्याण का श्रेय प्राप्त करते हुए मानव जाति की, समस्त संसार की महती सेवा कर सकने में समर्थ हो सकता है।

2. स्वाध्याय वर्ग के अंतर्गत गीता, रामायण, वेद, उपनिषद्, दर्शन, धर्मशास्त्र आदि की नियमित शिक्षा चलेगी। चार वर्षों में अध्यात्म, धर्म एवं नीति के संबंध में प्राचीन ऋषियों की आर्य पद्धति का सार एवं निष्कर्ष भली प्रकार समझा जा सकेगा।

इस ज्ञान से अपनी अन्तः चेतना जगेगी, अज्ञान का अन्धकार हटेगा, आत्मा प्रकाशवान होगी, ज्ञान-योग सधेगा तथा वह क्षमता प्राप्त होगी जिसके आधार पर समस्त मानव जाति को चिरस्थायी सुख शाँति का सन्देश दिया जा सकेगा। भविष्य में भारतीय तत्व ज्ञान ही संसार भर का, मानव मात्र का आदर्श बनेगा। इसलिए भारतीय दर्शन एवं तत्व ज्ञान का प्रकाश मानव मात्र तक पहुँचाया जाना आवश्यक है। इस प्रयोजन की पूर्ति वे ही धर्मोपदेशक कर सकेंगे जिन्होंने आर्ष सद्ग्रंथों का ठीक तरह अध्ययन किया हो। अपनी शिक्षा पद्धति इस प्रकार की है, जिसमें संस्कृत का अधिक ज्ञान न होने पर भी उपरोक्त शास्त्रों का अध्ययन नियमित रूप से कराये जाने के कारण इस शिक्षा को पूरी करने के बाद एक कुशल धर्म नेता की आवश्यकता पूरी कर सकने जैसी क्षमता शिक्षार्थी में उत्पन्न हो सकती है।

3. सेवाओं में सर्वश्रेष्ठ सेवा मनुष्य की भावनायें सुधारने तथा प्रवृत्तियाँ विकसित करने की है। प्राचीन काल में साधु ब्राह्मण इसी सेवा धर्म में संलग्न रह कर अपने लिए अक्षय पुण्य लाभ करते और संसार की सुख-शाँति बढ़ाते थे। उनकी इस सेवा के फलस्वरूप ही आज तक इन साधु ब्राह्मणों का कलेवर पहन कर साधारण व्यक्ति भी जनता का सम्मान और अनुराग प्राप्त करते देखे जाते हैं।

अपना समाज आज अनेक दृष्टि से पिछड़ गया है उसको प्रगतिशील बनाने के लिए अनेक रचनात्मक कार्यों का आरंभ एवं संचालन करना पड़ेगा। स्वास्थ्य संवर्धन के लिए व्यायामशालायें, शिक्षा के लिए प्रौढ़ पाठशालायें तथा रात्रि पाठशालायें, ज्ञान वृद्धि के लिए पुस्तकालय, अर्थ व्यवसाय के लिए गृह उद्योग, स्वभाव सद्गुणों का निर्माण करने के लिए संस्कार शिक्षा, नव जागृति के लिए सभा-सम्मेलन, कुरीतियों एवं अनैतिकताओं का विरोध करने के लिए प्रतिरोधात्मक संघर्ष, सत्प्रवृत्तियों का अभिनन्दन, आदि-आदि अनेक रचनात्मक प्रक्रियायें प्रतिष्ठापित, संचालित एवं परिपुष्ट करनी होंगी। वानप्रस्थों को ही भावी लोक नेतृत्व करना है इसलिए उन्हें इस प्रकार की जानकारियाँ, मार्ग की कठिनाइयाँ तथा सफलता की सम्भावनायें विस्तारपूर्वक सिखाई समझाई जायेंगी।

आश्विन की नवरात्रियों में हर वर्ष गीता सम्मेलन का आयोजन हुआ करेगा। जिसमें यही शिक्षार्थी मिल-जुल कर भाषण किया करेंगे। उन्हें अभ्यास हो जायगा कि देश-भर में जब ऐसे सम्मेलनों का आयोजन किया जाना है तो अपने लोग ही मिल-जुल कर किस तरह उनकी आवश्यकता पूरी कर लिया करें। गीता-कथायें, रामायण-कथायें, सत्य नारायण-कथायें अब घर-घर, मुहल्ले-मुहल्ले और गाँव-गाँव आरंभ की जानी हैं। साँस्कृतिक पुनरुत्थान की रीति-नीति यही तो हो सकती है। वानप्रस्थ इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए पूरी तरह प्रशिक्षित होंगे।

पुँसवन, नामकरण, अन्नप्राशन, मुण्डन, विद्यारंभ, यज्ञोपवीत, विवाह, वानप्रस्थ, अन्तेष्ठि आदि संस्कार और श्रावणी, विजय-दशमी, दिवाली, गीता जयन्ती, बसन्त पञ्चमी, होली, गंगा दशहरा, गुरु पूर्णिमा आदि त्यौहारों को प्रेरणाप्रद ढंग से मनाने की शिक्षा, गायत्री यज्ञों के आधार पर विशाल धर्म सम्मेलन बुलाने की सफल योजना आदि-आदि धर्म आयोजनों की व्यवस्था एवं प्रक्रिया कैसे पूरी की जा सकती है इसमें यह वानप्रस्थ शिक्षार्थी भली प्रकार प्रशिक्षित किए जायेंगे। ऐसे ही अन्य धर्मानुष्ठानों की शिक्षा इस अवधि में उन्हें मिल जायेगी जिसके आधार पर वे एक सुयोग्य पुरोहित का उत्तरदायित्व संभाल सकें।

जिस प्रकार की शिक्षा-व्यवस्था गायत्री तपोभूमि में की गई है, वैसी ही देश के कौने-कौने में आरंभ की जानी है। इसलिए यह वानप्रस्थ इस विद्यालय में थोड़ा-थोड़ा प्रशिक्षण कार्य भी करेंगे और यहाँ की शिक्षण व्यवस्था को सीखेंगे ताकि यहाँ के जाने के बाद वे ऐसी ही संस्थायें स्वतः रूप में भी चला सकने के योग्य हो सकें।

अन्य शिक्षार्थियों की तरह यह वानप्रस्थ भी अपना निर्वाह खर्च स्वयं वहन करेंगे। निवास व्यवस्था यहाँ है। वे अपनी पत्नी समेत भी रह सकेंगे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118