विश्व का भावी धर्म-अध्यात्मवाद

March 1967

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अध्यात्मवाद का केन्द्रबिन्दु इस तथ्य की धुरी पर घूमता है कि-”मनुष्य के भीतर असामान्य शक्तियों का भाँडागार छिपा पड़ा है। उन शक्तियों को विकसित करने के लिये गुण, कर्म स्वभाव को, अन्तःकरण को उत्कृष्ट स्तर पर विकसित किया जाए। यह विकास जितना ही होगा उतना ही भौतिक एवं आँतरिक जीवन में सुख-शाँति की, श्री समृद्धि की स्वर्गीय परिस्थितियाँ उत्पन्न होती चलेंगी।”

जप, तप, पूजा, ध्यान आदि की उपासनात्मक, क्रियात्मक पद्धति अपने आप में कोई लक्ष्य नहीं है। वह आत्मिक विकास की एक प्रक्रिया मात्र है। लोगों का यह समझना निताँत भ्रमपूर्ण है कि इन क्रिया-कलापों को अमुक समय तक या अमुक मात्रा में पूरा कर लेंगे तो अमुक देवता प्रसन्न होकर अमुक वरदान देगा। वस्तुस्थिति यह है कि अपना आत्मा ही सर्वोपरि देवता है और उसे जगाने, प्रसन्न करने के लिये व्यक्ति का समग्र निर्माण, गुण-कर्म स्वभाव का विकास अनिवार्य रूप से आवश्यक है। आध्यात्मिकता का प्रयोजन इसी आवश्यकता की पूर्ति करना है। प्राचीन काल में यही असली आध्यात्म सर्व-साधारण के व्यवहार में था, उसका सत्परिणाम भी सबके सामने था। व्यक्ति का देवोपम विकास हो सके तो स्वर्ग उसके पैरों तले बिखरा पड़ा ही रहेगा। भारत के प्राचीन इतिहास का पन्ना-पन्ना इसी तथ्य को अक्षरशः सत्य सिद्ध कर रहा है।

आज व्यक्तित्व के निर्माण वाली बात को आध्यात्मिक क्रिया-कलाप का अंग नहीं माना जा रहा है। बताया जा रहा है कि अमुक नदी, तीर्थ, तालाब के स्नान करने, अमुक तीर्थ मन्दिरों का दर्शन करने, अमुक कर्मकाँड को पूरा करने, अमुक पुस्तक का पाठ करने से आध्यात्मिक लक्ष्य की पूर्ति हो जायेगी। बेशक इन उपकरणों की आध्यात्मिक विकास के लिये उपयोगिता है पर यदि व्यक्तित्व के विकास वाले तथ्य को भुला दिया जाए तो फिर इस क्रिया-कलाप का कुछ भी महत्व नहीं रह जाता। भगवान जिस भजन से प्रसन्न होते हैं, उसमें जप-तप के साथ-साथ सर्वांगीण आत्म-विकास की प्रक्रिया अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है।

प्राचीन काल में हर व्यक्ति अपनी आध्यात्मिक साधना आजीवन चलाता रहता था। अपने दैनिक जीवन की हर विचारणा में, हर क्रिया-पद्धति में अध्यात्म आदर्शों की गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता का समावेश करता था। अतएव वह चाहे घर में रहे, चाहे वन में समान रूप से बाह्य और अन्तःजीवन के हर क्षेत्र में विकास होता चला जाता था और जीवन-लक्ष्य प्राप्त कर लेता था। आज के कल्पित अध्यात्मवाद में चरित्र निर्माण की उपेक्षा है। कहा जाता है कि दुष्प्रवृत्तियाँ अपनाये रहने पर भी उनके दुष्परिणाम से पूजा-पाठ का थोड़ा-सा उपचार ही बचा देगा। अमुक छोटी-सी प्रक्रिया कर दी जाए तो समस्त पापों का नाश हो जाता है। भजन करने वाले से प्रसन्न होकर भगवान उसके सब पापों को क्षमा करते रहते हैं। इस भ्राँत धारणा के कारण लोग सस्ते कर्म-कांडों को सब कुछ समझ बैठे और अध्यात्म के मूल तत्व अध्यात्म-विकास की उपेक्षा करने लगे। नकल को अपनाया असल को छोड़ दिया। वस्त्र को ही व्यक्ति समझ लिया। ऐसी दशा में वह लाभ कहाँ से मिलता जो असली वस्तु से मिलना चाहिये। मिट्टी की बनी सस्ती गौ दूध कहाँ से देगी? निष्प्राण अध्यात्मकों अपना कर कोई उन लाभों को कैसे प्राप्त कर सकता है जो प्राणवान अवलम्बन के नाम पर प्रचलित हैं? आज ऐसी विडम्बना अध्यात्मवाद के नाम पर प्रचलित है। फलस्वरूप उस मार्ग पर चलने वालों में योग व्यक्तियों की तुलना में कोई विशेषता दिखाई नहीं पड़ती। जबकि होना यह चाहिए था कि सच्चा अध्यात्मवादी सूर्य और चन्द्र की तरह चमकता। अपने प्रकाश से अपना ही नहीं अन्य अनेकों को भी प्रकाशवान करता।

अखण्ड-ज्योति असली अध्यात्म की प्रबल प्राण-प्रतिष्ठा करने के लिए अवतीर्ण हुई है। उसने अपने जीवनकाल से ही वस्तुस्थिति को सर्व-साधारण के सामने उपस्थित किया है। क्योंकि संसार का भावी निर्माण अध्यात्मवाद के नाम पर होने वाला है। वही समस्त संसार का, समस्त मानव जाति का एकमात्र धर्म होगा। उसी के आधार पर विश्व संस्कृति आचार-संहिता, विचारणा क्रिया पद्धति, सामाजिकता एवं राजनीति का निर्धारण होने वाला है। अतएव यह आवश्यक ही था कि मानव जाति के भावी भविष्य का निर्माण निर्धारण करने वाले इस तत्व ज्ञान का असली स्वरूप सर्वसाधारण के सामने रखा जाए और उसका व्यावहारिक स्वरूप समझाया जाए। पिछले 28 वर्षों में हम लोग अपने स्वल्प साधनों के अनुरूप यही करते रहे हैं।

युग-निर्माण की आधार भूमिका मान्यताओं एवं विचारणाओं का परिवर्तन है। दुर्भावनाओं की दुष्प्रवृत्तियों को अपना कर हमने नरक का-कलियुग का-वरण किया है। इस ढर्रे को बदल कर जब सद्भावनाओं का-सत्प्रवृत्तियों का-मार्ग अपनाया जायेगा तो कोई कारण नहीं कि स्वर्ग का-सतयुग का वरदान उपलब्ध न किया जा सके। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है। भगवान ने वह सुविधा और स्वतंत्रता उसे दी है जिसके अनुसार वह इच्छानुसार मार्ग अवलम्बन करके कडुए-मीठे फल चखने का अनुभव ले सके। कुमार्ग पर चल कर कडुए फल चखने, ठोकरें खाने का अनुभव लिया जा चुका अब पीछे लौटकर सत्पथ पर चलने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। सर्वनाश के गर्त में गिरने की अपेक्षा पीछे लौटना ही श्रेयस्कर समझा जायेगा। अनीति का और अधिक कडुए परिणाम देखने का साहस अब लोगों को रह भी नहीं गया है, इसलिए भूल तो सुधारनी ही पड़ेगी। पीछे तो हटना ही होगा। राह तो बदलनी ही होगी। वर्तमान सन्ध्याकाल इसी परिवर्तन की बेला का है। इस हेर-फेर की घड़ी में, प्रसव बेला में, हमें चतुर दाई की भूमिका अदा करनी है। सो-ही की भी जा रही है। युग-निर्माण आन्दोलन का यही प्रयोजन है। संसृति नये युग का प्रजनन कर रही है। इस कष्टकारक घड़ी में उनका बड़ा उत्तरदायित्व है जो संघर्ष बेला को सुव्यवस्थित बना सकने में समर्थ हैं। हमें इसी भूमिका का सम्पादन करना पड़ रहा है।

जिस विचार-धारा और क्रिया-पद्धति से विश्व का भावी निर्माण होने वाला है, उसका मानव जाति के सामने समान रूप से प्रस्तुत करना आवश्यक ही है। अध्यात्मवाद के असली स्वरूप को लोग लगभग भूल चुके हैं। धर्म और अध्यात्म के नाम पर उपहासास्पद विडम्बना मात्र ही खड़ी है। तथ्यों का लोप हो चुका है। हमें तथ्यपूर्ण आध्यात्म का अनुभव एवं रसास्वादन लोगों को कराना है ताकि हर समझदार व्यक्ति, हर कसौटी पर कस कर यह अनुभव कर सके कि व्यक्ति एवं समाज की सर्वांगीण प्रगति सर्वांगीण सुख-शाँति इसी मार्ग पर चल कर उपलब्ध की जा सकती है। इसी प्रयोग, परीक्षण के लिए आज युगनिर्माण योजना ने विवेकशील मानव का आह्वान किया है।


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