पंच वर्षीय योजना के पाँच कार्यक्रम

March 1967

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नव निर्माण का जो शुभारंभ इन दिनों किया गया है वह अगले तीस वर्षों में पूरी तरह शाखा प्रशाखाओं समेत विशाल वट वृक्ष के रूप में पल्लवित, पुष्पित और फलित होगा। पर उसका महत्वपूर्ण भाग बीजारोपण तो आज ही करना है। साँस्कृतिक पुनरुत्थान का जो विशाल भवन खड़ा होने जा रहा है उसकी नींव तो इन्हीं दिनों भरी जा रही है। हमारे जीवन के अन्तिम अध्याय का यह अतीव सौभाग्य भरा सुअवसर है, जबकि पिछले 30 वर्षों में युग-निर्माण की पृष्ठभूमि बनाने के उपरान्त अब उसे व्यवस्थित क्रिया-कलाप का रूप दे रहे हैं।

यह हमारी प्रथम पंच वर्षीय भावात्मक नव-निर्माण की युग परिवर्तन की योजना है। हमारी हार्दिक इच्छा यह है कि अपने परिवार का प्रत्येक सदस्य इसमें सच्चे मन से भाग ले। यों हम जिस जमाने में रह रहे हैं वह बड़ी दुर्बल मनोभूमि वाले, आन्तरिक दृष्टि से छोटे, संकीर्ण, ओछे और बौने लोगों का जमाना है। इन दिनों दृढ़ संकल्प किन्हीं विरलों में ही दीख पड़ते हैं। जिनका थोड़ा मन अच्छे कामों की ओर चलता है वे भी क्षणिक आवेश के बाद अपनी गर्मी खो बैठते हैं और उसी पुराने निर्जीव ढर्रे पर घूमने लगते हैं। ऐसे लोग अपने परिवार में भी कम नहीं, फिर भी उसमें जीवित और जागृत लोगों का बाहुल्य है। ऐसी प्रत्येक प्रबुद्ध आत्मा से हमें यही आशा है कि वे इस ऐतिहासिक अवसर पर अपनी भूमिका एवं जिम्मेदारी का सही ढंग से निर्वाह करेंगे और इस योजना को सफल बनाने में सच्चे मन से योग देंगे।

हमें केवल एक ही पंचवर्षीय योजना पूरी करानी है। शेष चार को हमारे उत्तराधिकारी पूरी करेंगे। पाँच-पाँच वर्ष की पाँच योजनाओं में हम विश्व के नये निर्माण का स्वप्न पूर्ण तथा साकार होने का विश्वास रखते हैं और यह मान ही लेना चाहिए कि यह संभावना सुनिश्चित रूप में पूरी होकर रहेगी। योजना के प्रथम चरण में हमने साथी स्वजनों को प्रबल अनुरोध के साथ हमारे कदम से कदम मिला कर चलने के लिये आह्वान किया है। आशा यही करनी चाहिए कि इसे सहायक स्वजन अस्वीकार न करेंगे।

इन पाँच वर्षों में प्रथम वर्ष की योजना इस अंक के साथ प्रस्तुत की जा रही है। अगले चार वर्षों में इसी प्रकार एक-एक वर्ष का कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता रहेगा। सन् 67 में कार्य आरंभ होकर सन् 72 का राष्ट्रीय चुनाव कराने के उपराँत हम अपनी इन स्थूल गति-विधियों को विश्राम दे देंगे। दूसरी अगली पंच वर्षीय योजना दूसरों को आरंभ करनी है। वे दूसरे लोग वे होंगे जो इस योजना में समुचित सहयोग देकर अपनी आन्तरिक, समर्थता परिपुष्ट कर लेंगे।

प्रथम पंच वर्षीय योजना के प्रथम वर्ष में पाँच कार्यक्रम रखे गये हैं। जिनमें से तीन की चर्चा पिछले पृष्ठों पर हो चुकी है। 1. उच्चस्तरीय उपासना 2. भावनात्मक नव निर्माण का ज्ञान यज्ञ 3. जीवन निर्माण की सर्वांगपूर्ण शिक्षा। इन तीनों का स्वरूप हमें भली-भाँति समझ लेना चाहिए।

1. फरवरी अंक में प्रस्तुत जिस उच्चस्तरीय गायत्री उपासना की प्रेरणा दी गई है वह जितनी सरल है उतनी प्रखर भी है। उसे श्रद्धापूर्वक अपनाये रहने वाले के अन्तःकरण में प्रेम तत्व का ऐसा निर्झर उद्भूत होगा जिससे वह स्वयं भी आनन्द उल्लास से ओत-प्रोत रहे और अपने साथियों को भी स्नेह सौहार्द में द्रवित कर दे। यही सच्चा भक्तियोग है। प्रथम वर्ष में जो शिक्षण है उसे ठीक तरह कर लिया गया तो अगले वर्ष और भी अधिक प्रेरक प्रकाश प्राप्त करने का मार्ग दर्शन मिलेगा और इस प्रकार पाँच वर्ष में उपासक की मनोभूमि में आशाजनक उत्कर्ष दृष्टिगोचर होगा। इसी उपासना का अविच्छिन्न अंग है आत्म विकास। प्रातः सोकर उठते ही और सोते समय जिस विचारणा के द्वारा जीवन-क्रम व्यवस्थित किया जाता है उसे उपासना का अनिवार्य अंग माना जाए। हम जितने-जितने सुसंस्कृत, सुव्यवस्थित होते चलेंगे उतनी ही हमारी उपासना सफल होगी।

2. योजना का दूसरा अंग है भावनात्मक नव-निर्माण के प्रारंभ में किया गया ज्ञान-यज्ञ, भगवान को मन्दिरों तथा ध्यान भूमिका में जिस प्रतिमा के साथ देखा जाता है वह तो उसके स्मरण का आरंभिक प्रयास मात्र है। वस्तुतः भगवान मनुष्य के अन्तःकरण में उच्च भावनाओं का रूप धारण करके ही उपस्थित होता है। किसी को भगवान मिला कि नहीं, इसकी पहचान यह नहीं है कि स्वप्न में या अर्ध तन्द्रा में अमुक कल्पित छवि के दर्शन हुए या नहीं, यह तो मस्तिष्क की एक सुखद सी लहर मात्र है। असली भगवान की प्राप्ति तब समझनी चाहिए जब ऊंची से ऊंची भावनाएं आत्मा में उठने लगें, तब समझना चाहिए कि असली भगवान का प्रकाश जीवन में आ गया। जो ध्यान जप तो घण्टों करें पर जिसके अन्तःकरण में स्वार्थ, संकीर्णता, आलस्य, अवसाद जैसी कमीनी प्रवृत्तियाँ भरी पड़ी हों, समझना चाहिए कि वह व्यक्ति अभी भगवान से लाखों कोस दूर है।

जन-जन के मन-मन में भगवान की प्रतिष्ठापना करने की महानतम भक्ति-भावना का प्रकाश हमें देवर्षि नारद के, भगवान बुद्ध, शंकराचार्य एवं प्राचीनकाल के सच्चे साधु ब्राह्मणों के पद-चिन्हों पर चल कर करना होगा। युग-निर्माण योजना के अंतर्गत युग परिवर्तन की समस्त संभावनाओं में परिपूर्ण अत्यन्त तेजस्वी साहित्य का सृजन किया जा रहा है। इसका प्रसार अपने परिवार एवं परिचय क्षेत्र में करने की जो कार्य पद्धति चल रही है उसे अग्रसर करके प्रस्तुत ज्ञान यज्ञ को सफल बनाने में हमें आवश्यक योगदान देने, एक घंटा समय-दस पैसा रोज खर्च करने की जो प्रेरणा दी गई है, वह देखने में छोटी बात भले ही लगे पर उसका परिणाम इतना महान, इतना उत्साहवर्धक हो सकता है कि उसे संसार का ऊंचे से ऊंचा परमार्थ कहने में भी कोई अत्युक्ति नहीं मानी जा सकती।

3. योजना का तीसरा अंग है-जीवन निर्माण की शिक्षा का व्यापक एवं व्यवस्थित आयोजन। उत्कृष्ट व्यक्तियों का निर्माण उत्कृष्ट स्तर की शिक्षा ही कर सकती है। शिक्षा का उद्देश्य पेट पालन की कला में प्रवीणता उत्पन्न करना ही नहीं, व्यक्तियों में महानता उत्पन्न करना भी होना चाहिए। इस दृष्टि से आज की शिक्षा प्रणाली को सर्वथा असफल ही कहा जा सकता है। हमें मानव जाति के सम्मुख नई शिक्षा पद्धति उपस्थित करनी है।

जून में मथुरा में जिस प्रशिक्षण व्यवस्था को आरंभ करने की घोषणा है कि वह एक शुभारंभ एवं क्रियात्मक मार्ग दर्शन मात्र है। यहाँ प्रयोग किए जायेंगे और यहाँ से वे अध्यापक, उपाध्याय तैयार किये जायेंगे जो देश भर में इस स्तर की शिक्षा पद्धति का अपने-अपने क्षेत्रों में प्रसार करें। हम गुरुकुल विद्यालय चलाते, पर हमारे साधन बहुत स्वल्प हैं। गायत्री तपोभूमि में एक सौ से अधिक छात्रों को रखने एवं पढ़ाने का स्थान नहीं है। इसलिए हम प्रधानतया एक वर्षीय शिक्षा को ही प्रमुखता देते जा रहे हैं। 18 से लेकर 50 वर्ष तक के ऐसे व्यक्ति उसमें पढ़ेंगे जो स्वावलम्बन पूर्वक अपनी आजीविका चलाने की कला सीखकर अपना शेष समय रचनात्मक कार्यों में लगावें। इस शिक्षण में यों 1. प्रेस व्यवसाय-रबड़ की मुहरें तथा 2. साबुन मोमबत्ती यह दो ही कार्य रखने की घोषणा की गई है। परन्तु प्रयत्न यह कर रहे हैं कि इसी स्तर के दस-बारह उद्योग सिखाने का प्रबंध हो जाए। जिससे, जिन्हें जो उद्योग अपनी परिस्थिति के अनुरूप अनुकूल लगे उसे वे अपना सकें। अपने स्त्री-बच्चों के द्वारा उस गृह-उद्योग को अपने घर में चलाने की व्यवस्था करके आजीविका का प्रश्न हल कर लें, और शेष समय नव निर्माण की विचार धारा को व्यापक बनाने में लगावें। संभव हो तो इसी स्तर का विद्यालय भी अपने क्षेत्र में चलावें ताकि वहाँ के लोगों को आजीविका तथा स्वावलम्बन की दिशा में प्रगति करके इन निर्माणात्मक कार्यों में योग देने की सुविधा मिल सके।

ढलती आयु के गृह निवृत्तों को झकझोरे बिना राष्ट्र को सच्चा नेतृत्व नहीं मिल सकेगा। नौकरी के लिए समाज सेवा करने वाले अपना गौरव खो बैठते हैं। इसलिये उनके ऊपर परिवार की आर्थिक जिम्मेदारी नहीं रही, उन्हें समाज की बहुमूल्य सम्पत्ति ही माना जायेगा। इसकी बर्बादी नहीं ही होने देनी चाहिये। इस स्तर के लोग मोहग्रस्त स्थिति में पड़े घरों में घुसे सड़ते रहें तो इसे मानव समाज का एक दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है। इस वर्ग को प्रशिक्षित करके आत्म-कल्याण और विश्व कल्याण के लिए सुयोग्य बनाना चार वर्षीय वानप्रस्थ शिक्षण का उद्देश्य है। आशा करनी चाहिए कि इस प्रशिक्षण में आये हुए व्यक्ति ‘निकम्मे, बुढ़ऊ’ की घृणित स्थिति से उठ कर राष्ट्र के भाग्याकाश में उज्ज्वल नक्षत्रों की तरह चमकेंगे। वे यहाँ से जाने के बाद अपने-अपने क्षेत्रों में जीवन निर्माण की शिक्षा व्यवस्था का भी आयोजन करेंगे।

पन्द्रह से अठारह वर्ष तक की आयु में लड़कों का एक वर्ग ही आरंभ किया जा सके तो बहुत है। नमूने के लिए हम लोगों को बताना चाहते हैं कि किशोरवय सबसे महत्त्वपूर्ण, सबसे भयानक समय है। इसी अवधि में लड़कों का स्वभाव एवं चरित्र बनता बिगड़ता है। इस वय को संभाल लिया गया-तो समझना चाहिये कि उज्ज्वल भविष्य की सारी संभावनाएं मूर्तिमान होंगी। अन्यथा यदि बिगड़ने की और पैर बढ़े तो सर्वनाश सत्यानाश निश्चित है। किशोरों का निर्माण एक बहुत बड़ी जीवन कला है। इस कला का प्रयोगात्मक स्वरूप लोगों के सामने हम रखने जा रहे हैं ताकि लोग इस पद्धति की समग्र रूप-रेखा, देख समझ सकें।

वस्तुतः यह मथुरा में आरंभ किया जा रहा प्रशिक्षण एक मार्ग दर्शक नमूना भर है। यह व्यवस्था देश के कौने-कौने में, गाँव-गाँव में बनानी होगी। तपोभूमि में 100 छात्रों का स्थान मुश्किल ही है। यहाँ सारा देश कैसे पढ़ेगा? अभी तो 3 से 5 वर्ष वाले छात्रों के शिशु मन्दिर और 5 से 15 वर्ष तक की प्राथमिक, माध्यामिक शिक्षा व्यवस्था बनाई, चलाई जानी है, जिनका प्रयोग मथुरा में ही नहीं वरन् अन्यान्य स्थानों पर जहाँ साधन होंगे वहाँ होना है।

कार्य अत्यन्त विशाल है, उसे कैसे किया जाए, इसका मार्गदर्शन करने, व्यावहारिक स्वरूप बताने के लिए मथुरा में जून से शुभारंभ किया जा रहा है, इसे सफल बनाने के लिए प्रयत्न करना हर अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्य का पवित्र कर्त्तव्य है। इन समस्याओं पर विस्तृत विचार-विनिमय करने के लिये उन्हें 14 दिन के शिविर में 9 से 22 जून तक मथुरा आना आवश्यक है। तथा जो प्रौढ़, किशोर, वृद्ध उपर्युक्त तीनों शिक्षाओं के उपयुक्त जान पड़े, उनसे व्यक्तिगत संपर्क स्थापित करके इन प्रशिक्षणों में सम्मिलित होने की प्रेरणा देनी चाहिए। अध्यापक, चिकित्सक या ऐसे ही दूसरे वे लोग जिनका जन-संपर्क अधिक रहता है, यदि आवश्यक दिलचस्पी लें तो अच्छे शिक्षार्थी अभीष्ट मात्रा में उपलब्ध हो सकेंगे, यह प्रक्रिया यदि ठीक से चल पड़ी तो युग-निर्माण योजना का एक महत्वपूर्ण अंग पूरा होने लगेगा।

4. हमारी प्रथम पंचवर्षीय योजना के प्रथम वर्षीय कार्यक्रम का चौथा अंग है- प्रबुद्ध व्यक्तियों के जन्म दिन मनाना। पिछले कई अंकों के कई लेखों में तथा ट्रैक्टों में इस बात पर बहुत जोर दिया गया है कि प्रबुद्ध परिजनों को जन्म दिन मनाने की प्रेरणा दी जाए। यह प्रक्रिया जहाँ भी आरंभ हुई है वहाँ बड़े उत्साहवर्धक परिणाम निकले हैं। 1. जिसका जन्म दिन मनाया जाता है उसे उस दिन अपने जीवन की महत्ता समझने और भावी जीवन को अधिक सुन्दर ढंग से बिताने के लिए कदम उठाने की प्रेरणा मिलती है। 2. मित्रों, कुटुम्बियों एवं गुरुजनों द्वारा आशीर्वाद, अभिवादन, पुष्प उपहार, दीपदान, जल-पान आदि के आकर्षक कार्यक्रम द्वारा जिसका जन्मदिन होता है उसे बहुत उत्साह मिलता है जो प्रगति की प्रेरणा देने में उपयोगी सिद्ध होता है। 3. इस आयोजन से उस व्यक्ति से संपर्क रखने वाले जो नये लोग आते हैं, उनमें यह विचार धारा फैलने का अवसर मिलता है। 4. साप्ताहिक हवनों की अपेक्षा यह घर-घर पर होने वाले सत्संग सम्मेलन अधिक सफल होते हैं और उससे संस्था का संगठन बढ़ता एवं मजबूत होता है।

इन लाभों पर ध्यान रखते हुए जहाँ जितने अखण्ड-ज्योति सदस्य हैं उन सबका जन्म दिन मनाने की व्यवस्था हर जगह बना ली जाए। छोटे बच्चों के जन्म दिन मनाने का आरंभ संस्था के जिम्मे पर छोड़ा जाए, यह कार्य उनके माता-पिता का है। संगठित रूप में केवल वयस्कों के जन्म दिन मनाये जाएं जिससे उन्हें कुछ प्रेरणा दी जा सके। बच्चों के जन्म दिन तो एक खुशी मनाना मात्र है। उपर्युक्त प्रयोजन तो परिवार के वयस्क व्यक्तियों के जन्म दिन मनाने से ही पूरा होता है। हर जगह यह प्रचलन आरंभ किया जाए। अखण्ड-ज्योति का एक भी सदस्य ऐसा न बचे जिसका जन्म दिन न मनता हो।

अब हम स्वयं अपने परिजनों के जन्म दिन अपनी पूजास्थली पर बैठकर मनाया करेंगे और उनके लिये विशेष प्रेरणा एवं विशेष आशीर्वाद भेजा करेंगे। उसके लिए अखण्ड-ज्योति परिवार के सभी सदस्यों की जन्म-तिथियाँ मंगाई जा रही हैं। जो पंचवर्षीय स्थायी सदस्यता फार्मों के साथ लिख चुके हैं, उन्हें छोड़कर शेष सभी अखण्ड-ज्योति के सदस्य अपनी जन्म-तिथि महीना, सन-संवत् सहित लिखकर भेज दें। उस अवसर पर हम उन्हें प्रेरणाप्रद संदेशों से भरी एक छोटी उपहार पुस्तिका भी भेजा करेंगे। पाँच वर्ष तक यह पुस्तिकाएं हमारे एक चिर-स्मरणीय उपहार की तरह जिनके पास रहेंगी, वे उनसे आजीवन महत्वपूर्ण प्रेरणाएं प्राप्त करते रहेंगे। हमें भी इस निमित्त से साल में एक बार उनका विशेष स्मरण आया करेगा और उनसे अपनी आत्मीयता का आनन्द अधिक मात्रा में उपलब्ध कर लिया करेंगे।

5. योजना का पाँचवा अंग है-भावनात्मक नव-निर्माण का सर्वांगपूर्ण साहित्य सृजन एवं उसका व्यापक प्रसार। अब तक अखण्ड-ज्योति एवं युग-निर्माण पत्रिकाओं द्वारा एक छोटे क्षेत्र में अपने परिचित परिजनों में हम युग के अनुरूप अध्यात्म तत्व ज्ञान का प्रसार करते रहें है। आगे यह क्षेत्र अत्यन्त व्यापक और विशद् बनना है। हमारे सामने समस्त राष्ट्र, समस्त विश्व, समस्त मानव समाज है, उसका सर्वांगीण भावनात्मक परिवर्तन करने के लिए अभिनव प्रेरणाओं का क्षेत्र भी उसी अनुपात से बड़ा किया जाना है। अत्यंत सस्ते, लागत मात्र मूल्य के ट्रैक्टों को इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए उपयुक्त समझा गया है। 70 ट्रैक्ट सितम्बर में छपे थे। लगभग 100 और नये मई-जून तक छप जायेंगे। यह विचारात्मक निबंध ट्रैक्ट हैं। आगे जीवन चरित्रों की, कला साहित्य की कविताओं की प्रेरणाप्रद ट्रैक्ट मालाएं भी उसी योजना के अंतर्गत प्रकाशित होने जा रही हैं। कमरों में लगाने के छोटे-बड़े साइज के आदर्श वाक्य भी छपेंगे जो भिन्न स्तर के वातावरण में फिट बैठ सके। इस समस्त साहित्य का एक-एक अक्षर ऐसा प्रखर एवं प्रेरणाप्रद होगा जो पढ़ने वाले की विचारधारा पर सीधी चोट करे, उसे अनुपयुक्त ढंग से सोचने का तरीका बदल कर सही ढंग से विचार करने की रीति-नीति विदित हो जाए। विचार क्राँति का महान प्रयोजन यह साहित्य पूरा करेगा। इसे पढ़ों को पढ़ाया जाना और अनपढ़ों को सुनाया जाना एक आवश्यक कार्य है, जो हमें ही पूरा करना है।

लिखने-लिखाने की व्यवस्था की जा रही है। हिन्दी में लिखे-छपे इस साहित्य को भारत की 14 भाषाओं में अनुवादित प्रकाशित किया जाना है। इतना ही नहीं, इसे संसार की समस्त भाषाओं में भी प्रस्तुत किया जायेगा।

अखण्ड-ज्योति के वर्तमान पाठकों से गत अंक में अनुरोध किया गया था कि वे हिन्दी के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा पर अच्छा अधिकार रखते हों, और साहित्य की दृष्टि से ऊंचे स्तर का अनुवाद कर सकते हों तो वे अपनी सेवाएं हमें दें। कई सज्जनों के पत्र भी आये हैं। अभी इतना ही करना चाहिये कि अखण्ड-ज्योति के किसी लेख का अनुवाद करके वे हमारे पास उस भाषा में भेज दें। उससे अनुमान लगाया जायेगा कि उनका साहित्यिक ज्ञान एवं अनुवाद प्रवाह किस स्तर का है। घटिया लड़खड़ाती, अस्त-व्यस्त भाषा के अनुवाद उपयुक्त न होंगे। उनसे आवश्यक प्रयोजन पूरा न होगा। इसलिए प्रथम परीक्षण के बाद जिनसे अनुवाद करने का अनुरोध किया जाए उन्हें ही वह कार्य हाथ में ले लेना चाहिये। अपनी ही इच्छा से कोई अनुवाद शुरू नहीं कर देना चाहिये। क्योंकि एक क्रमबद्ध व्यवस्था के साथ ही अनुवाद होंगे। एक ही पुस्तक को कई व्यक्ति अपनी मनमर्जी से अनुवाद करने और भेजने लगें तो एक को छोड़कर सबका परिश्रम व्यर्थ चला जायेगा। गुजराती, मराठी, बंगला, अंग्रेजी, तमिल, तेलगू इन छः भाषाओं को प्रथम हाथ में लिया है। जिन्हें इनका अच्छा ज्ञान हो वे कोई भी अखण्ड ज्योति का एक लेख अनुवाद करके भेज दें। उसी को देख कर उन्हें आगे शुरू करने के लिये अनुरोध किया जायेगा।

यह कार्य अत्यन्त विशद् एवं महान् है। ईसाई मिशन ने अपना धर्म समस्त विश्व में लगभग 600 भाषाओं में अनेक सस्ती पुस्तकों द्वारा पहुँचाया है। हमें भी इस मार्ग का अनुकरण करना होगा। जहाँ लिखने-छापने का प्रश्न काफी पेचीदा है, वहाँ इसका प्रसार भी नये ढंग से गठित करना होगा। वर्तमान पुस्तक विक्रेता इसे बेचने को तैयार नहीं होते। क्योंकि यह चीज जन-रुचि की नहीं, गन्दे उपन्यासों की तरह अंधाधुंध नहीं बिकती। फिर इनमें कमीशन की भी बहुत स्वल्प गुंजाइश है। ऐसी दशा में इनके विक्रय प्रसार की मशीन भी अपनी निज की ही गठित करनी पड़ेगी। जो सज्जन किसी अन्य वस्तु की दुकान चलाते हैं वे एक अलमारी इस साहित्य की भी रख सकते हैं और जो भी ग्राहक आवे उससे इस साहित्य की भी चर्चा एवं प्रेरणा कर सकते हैं।

कुछ सज्जन इस कार्य में पूरी तरह संलग्न होकर सेवा भाव से तथा थोड़ी आजीविका कमाने के लिए भी इस महान कार्य में जुट सकते हैं। सबेरे से दोपहर तक थैलों में भरकर शिक्षा-संस्थाओं तथा पढ़े-लिखे लोगों में इस साहित्य को दिखाने ले जा सकते हैं। शाम को 3-4 घंटे बाजार में या अपनी बैठक में पुस्तकालय एवं विक्रय विभाग चला सकते हैं। ढकेलने की गाड़ी में सजा कर भी इसे उपयुक्त लोगों के पास, पार्कों के समीप, मेले-ठेलों में ले जाया जा सकता है। इस तरह से थोड़ी आजीविका कमा लेंगे और उस पर सन्तोषपूर्वक गुजर करना वैसा ही है जैसा प्राचीनकाल के ऋषि कन्द-मूल, फल, घास के बीज खाकर अपना गुजारा कर लेते थे और जीवन को जन-कल्याण के कार्यों में समर्पित किये रहते थे। इस गतिविधि को अपनाने वाले लोग अपने परिवार में से निकलने चाहिये। हर शहर, कस्बे में अपने ऐसे कार्यकर्त्ता होने चाहिए। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिये उपयुक्त कार्यकर्त्ताओं की तलाश अभी से की जानी चाहिये। यह विक्रय विभाग संभवतः जून के बाद काम करने लगेंगे। तब तक उतनी संख्या में ट्रैक्ट हो जायेंगे, जिनके आधार पर विक्रय की उपर्युक्त प्रकार की व्यवस्था बन सके। इसलिए इस संदर्भ में पूरा या अधूरा समय लगाकर कुछ कार्य कर सकने वाले सज्जन अभी से पत्र-व्यवहार करना आरंभ कर सकते हैं।

उपर्युक्त पाँच कार्यक्रम हमारी प्रथम पंचवर्षीय योजना के पहले वर्ष के हैं। इनके शुभारंभ में प्रत्येक परिजन को यह विचार करना है कि वह किस प्रकार उसमें योगदान कर सकता है। आत्म-निर्माण और समाज-निर्माण के दोनों मोर्चों पर परिवार के प्रबुद्ध व्यक्ति को अपना कर्त्तव्य निर्धारित करना चाहिए। हम में से एक भी ऐसा न रहे जो इस युग के इस महानतम अभियान में निरपेक्ष होकर अलग बैठा रहे। संस्कृति-सीता को वापिस लाने का त्रेता युगी अभियान, रीछ-बन्दरों के ही नहीं-बालों में धूलि भर कर समुद्र पाटने में सहायता करने वाली गिलहरी तक के सहयोग से आगे बढ़ा था। युग-निर्माण अभियान भी अखण्ड-ज्योति परिवार के हर प्रबुद्ध सदस्य से उसकी स्थिति के अनुरूप सहयोग की अपेक्षा करेगा।

उपर्युक्त पाँच कार्यक्रम हमारी प्रथम पंचवर्षीय योजना के पहले वर्ष के हैं। इनके शुभारंभ में प्रत्येक परिजन को यह विचार करना है कि वह किस प्रकार उसमें योगदान कर सकता है। आत्म-निर्माण और समाज-निर्माण के दोनों मोर्चों पर परिवार के प्रबुद्ध व्यक्ति को अपना कर्त्तव्य निर्धारित करना चाहिए। हम में से एक भी ऐसा न रहे जो इस युग के इस महानतम अभियान में निरपेक्ष होकर अलग बैठा रहे। संस्कृति-सीता को वापिस लाने का त्रेता युगी अभियान, रीछ-बन्दरों के ही नहीं-बालों में धूलि भर कर समुद्र पाटने में सहायता करने वाली गिलहरी तक के सहयोग से आगे बढ़ा था। युग-निर्माण अभियान भी अखण्ड-ज्योति परिवार के हर प्रबुद्ध सदस्य से उसकी स्थिति के अनुरूप सहयोग की अपेक्षा करेगा।

फार्म 4

1. प्रकाशन का स्थान- मथुरा

2. प्रकाशन का अविध क्रम- मासिक

3. मुद्रक का नाम- श्रीराम शर्मा आचार्य

राष्ट्रीयता- भारतीय

पता- जन जागरण प्रेस, मथुरा।

4. प्रकाशक का नाम- श्रीराम शर्मा आचार्य

राष्ट्रीयता- भारतीय

पता- अखण्ड-ज्योति संस्थान, मथुरा

5. सम्पादक का नाम- श्रीराम शर्मा आचार्य

राष्ट्रीयता- भारतीय

पता- अखण्ड-ज्योति संस्थान, मथुरा

6. स्वत्वाधिकारी- श्रीराम शर्मा आचार्य,

अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा अखण्ड-ज्योति संस्थान, मथुरा

मैं, श्रीराम शर्मा आचार्य यह घोषित करता हूँ कि ऊपर दिए गए सब विवरण मेरी अधिकतम जानकारी और विश्वास के अनुसार सत्य हैं।

(हस्ता.) श्रीराम शर्मा, आचार्य

(हस्ता.) श्रीराम शर्मा, आचार्य


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