हममें से प्रत्येक अपना कर्त्तव्य निबाहे

March 1967

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युग परिवर्तन का अर्थ है विचार परिवर्तन। यदि जन-साधारण की वर्तमान मान्यताओं एवं आस्थाओं का स्तर बदला जा सके तो हाड़-माँस की दृष्टि से ज्यों का त्यों रहने पर भी मनुष्य आश्चर्यजनक रीति से बदल जायेगा। साधारण राजकुमार का भगवान बुद्ध, एक जघन्य डाकू का ऋषि बाल्मीक, दुर्दान्त हत्यारे का ऋषि अंगुलिमाल, वेश्या का साध्वी आम्रपाली, अशिक्षित जुलाहे का सन्त कबीर, अछूत का तत्त्वज्ञानी रैदास, व्यभिचारी का विल्वमंगल बन जाना विचारणाओं के परिवर्तन का ही चमत्कार है। मनुष्य का हाड़-माँस का आवरण भले ही न बदले विचारणाओं का परिवर्तन कुछ ही समय में किसी को भी देवता या असुर बना सकता है।

सामूहिक परिस्थितियों के बारे में यही बात लागू होती है। दुष्प्रवृत्तियों का समूह जहाँ रहता है वहाँ नरक की दुर्गंध उड़ती है और दुःख-दारिद्र एवं शोक का दावानल जलता रहता है। किन्तु वे व्यक्ति यदि अपनी गतिविधियों को बदल डालें सज्जनोचित रीति-नीति अपना लें तो देखते-देखते वहीं स्वर्ग का अवतरण उपस्थित हो जायेगा। सुविधा एवं साधन सामग्री ऐसे वातावरण से सहज ही प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो जाती है। पारस्परिक स्नेह सहयोग एवं सौजन्य के द्वारा बड़ी से बड़ी कठिनाई का हल संभव हो जाता है। भावना-स्तर में प्रविष्ट हुई सत्प्रवृत्ति बाह्य-जीवन को समृद्धियों एवं विभूतियों से सहज ही परिपूर्ण कर देती है।

युग-निर्माण का अर्थ है व्यक्तित्व एवं विचार स्तर को सत्प्रवृत्तियों से ओत-प्रोत करना। विश्व शाँति का यही एकमात्र मार्ग है। हमें इस पुण्य परम्परा को पुनर्जीवित करके नये युग के अवतरण में महत्वपूर्ण योग देना है। मानव जाति का भविष्य उज्ज्वल है। अगला समय स्वर्गीय संभावनाओं से ओत-प्रोत है। गंगा आने वाली है-भागीरथों को उसकी पूर्व भूमिका-भर बनानी है। अगले दिनों मानव जाति का आध्यात्मिक उत्कर्ष होना है। इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। अनात्म संस्थाओं को अपना कर व्यक्ति निजी जीवन में नारकीय यंत्रणायें सह रहा है और सामूहिक दृष्टि से सर्वनाश के कगार पर खड़ा है। ईर्ष्या, द्वेष और लोभ-स्वार्थ से प्रेरित मनुष्य तृतीय युद्ध की विभीषिका में फंस सकता और अणु आयुधों से अपना सर्वनाश कर सकता है। तब विज्ञानाचार्य दार्शनिक आइन्स्टीन की भविष्यवाणी सार्थक होकर रहेगी जिसमें उसने कहा था कि-’तीसरा महायुद्ध अणु-आयुधों से और चौथा महायुद्ध पत्थरों से लड़ा जायेगा।’ तब मनुष्य के पास न इतना ज्ञान रहेगा और न साधन जिसके आधार पर वह पत्थर के अतिरिक्त और किसी शस्त्र का उपयोग कर सके।

सर्वनाश के कगार पर पहुँचने के उपराँत अब पीछे लौटने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। मनुष्य बड़ा मूर्ख जानवर है पर उसकी बुद्धिमता में भी सन्देह नहीं। अनात्मक रीति-नीति अपना कर उसके दुष्परिणाम उसने देख लिये। इससे वह शिक्षा लेगा ही। मानना चाहिये कि वह आत्महत्या नहीं करेगा, जो देखा समझा और सीखा है उससे लाभ उठायेगा। अपने को बदलेगा और उस राह पर चलेगा जिस पर चलते हुए स्वयं जीवित रहना और दूसरों को जीवित रहने देना संभव हो सकता है। अगले दिन इसी प्रकार के आ रहे हैं। मनुष्य मूर्खता का अध्याय समाप्त कर बुद्धिमता का शुभारंभ करने जा रहा है। इस भवितव्यता में हमें अनुकूल भूमिका प्रस्तुत कर अपने को श्रेय-साधकों-भागीरथों की पंक्ति में खड़ा करना चाहिये। अखण्ड-ज्योति परिवार यही कर रहा है।

अखण्ड-ज्योति परिवार के वर्तमान सदस्यों में अब केवल सक्रिय कर्मठ, प्रबुद्ध एवं भावनाशील व्यक्ति ही रह गये हैं। कौतूहल के रूप में समय काटने के लिए जो लोग पत्रिका मंगाते थे और चंदा भेजने तक में बेतरह हीला-हुज्जत करते थे उनकी छटनी गत वर्ष कर दी गई है। अब हम लोग एक ऐसे छोटे परिवार के रूप में रह गए हैं जिनका विश्वास सद्विचारों को पढ़ने-सुनने तक ही सीमित न रह कर उन्हें कार्यान्वित करने पर भी है। जो आदर्शवाद को केवल पढ़ कर ही समाप्त नहीं कर देना चाहते वरन् उसे कार्य रूप में भी परिणत करने को उद्यत हैं। आदर्शवाद में किसी की कितनी निष्ठा है इसकी परीक्षा उसके गाल बजाने से नहीं वरन् प्रयत्न, परिश्रम को देख कर ही की जा सकती है। परमार्थ के पथ पर चलने वाले के लिये तपश्चर्या का अवलम्बन अनिवार्य रूप से करना होता है। ये ऊंचे लक्ष्य बिना कष्ट सहे-बिना त्याग किये पूरे हो ही नहीं सकते। उसे अध्यात्मवादी कौन कहेगा जिसने अपने लक्ष्य को सार्थक करने के लिए बढ़-चढ़ कर त्याग करने का साहस नहीं संजोया।

युग की सबसे बड़ी आवश्यकता मानवता की सबसे बड़ी सेवा-परमेश्वर की समयानुसार सर्वोत्तम उपासना नव-निर्माण योजना में योग-दान करने के लिए परिजनों का हमने जो आह्वान किया था वह निरर्थक नहीं गया। भगोड़े भाग गये। पर जिनमें वास्तविकता थी वे अभी भी जमे हुए हैं और हमारे कंधे से कन्धा लगा कर कदम से कदम मिला कर-चल रहे हैं। विचार क्राँति के लिये ऐसे भावनाशील व्यक्तियों की आवश्यकता थी कि जो अपना थोड़ा समय इस पुण्य प्रयोजन के लिये नियमित रूप से खर्च करते रह सकें। आखिर इसके बिना इतना बड़ा प्रयोजन पूरा हो भी कैसे सकता है? उसे एक व्यक्ति पूरा नहीं कर सकता। इसके लिए बड़ी सेना चाहिये भले ही वह रीछ-बंदरों जैसे साधन रहित किन्तु भावना सम्पन्न लोगों की ही क्यों न हो।

विचार क्राँति के लिए अखण्ड-ज्योति परिजनों को अपना ज्ञान यज्ञ निरन्तर चालू रखना है। ब्रह्म-विद्यालय को निरन्तर संचालित रखना है। हर परिजन के पास अखण्ड-ज्योति और युग-निर्माण पत्रिकाएं जाती हैं, उन्हें अपने परिवार के हर शिक्षित व्यक्ति को पढ़ाना और अशिक्षित को सुनाना एक अनिवार्य कर्त्तव्य बताया गया है। घर का एक भी व्यक्ति ऐसा न बचे जो इन विचारों से प्रेरणा ग्रहण न करता हो। इसके अतिरिक्त पड़ौस, रिश्तेदारी, मित्र, दफ्तर में जहाँ भी अपना प्रवेश, प्रभाव है, वहाँ इस विचारधारा को पढ़ाने एवं सुनाने की सुविधा उत्पन्न करनी चाहिए।

‘झोला पुस्तकालय’ ज्ञान-यज्ञ का सबसे बड़ा आधार है। एक झोला साथ रखा जाए जिसमें दोनों पत्रिकाओं के पुराने अंक तथा सस्ते ट्रैक्ट भरे रहें। उपयुक्त व्यक्तियों से इस साहित्य के महात्म्म को बता कर उनमें पहले पढ़ने का ज्ञान उत्पन्न करना और पीछे पढ़ने को देना। यह क्रम चलाते रहा जाए तो दिन में आसानी से दस-पाँच व्यक्तियों को यह प्रकाश प्रदान किया जा सकता है। यद्यपि देश में शिक्षितों की संख्या बहुत कम है, अभी 21-22 फीसदी ही पढ़े-लिखे लोग हैं फिर भी इनका महत्व कम नहीं। प्रयत्न यह करना चाहिए कि अपने प्रभाव एवं परिचय क्षेत्र के हर शिक्षित व्यक्ति तक यह विचारधारा अपना प्रकाश पहुँचा सके। अशिक्षितों को उसे सुनाने के लिए जहाँ जो भी सुविधा हो वहाँ वैसा प्रबंध करना चाहिए।

कार्य बहुत छोटा-सा, देखने में नगण्य-सा लगता है। पर इसका जो प्रभाव परिणाम हो सकता है, उसकी आज कल्पना कर सकना भी कठिन है। जिस विचारधारा का नव-निर्माण योजना के अंतर्गत सृजन किया जा रहा है वह अत्यन्त प्रेरक और असाधारण रूप से सामयिक प्रयोजनों को पूरा करने वाली है। इसे विचार क्राँति के लिए ही विनिर्मित किया जा रहा है। जिस स्थिति में जिस व्यक्ति द्वारा जिन भावनाओं के साथ इसे लिखा जा रहा है वह इतना प्रभावपूर्ण है कि उसे पढ़ कर कोई व्यक्ति जैसे का-तैसा नहीं बना रह सकता उसमें आवश्यक प्रेरणा एवं स्फुरणा उत्पन्न होनी ही है। अतएव दीखने में छोटा लगने वाला यह विचार-प्रचार कार्य उतना बड़ा पुण्य सिद्ध हो सकता है जिसकी तुलना में अन्य सब पुण्य तुच्छ रह जायेंगे। किसी को अन्न, वस्त्र, धन, दवा आदि की सहायता करके इतना लाभ नहीं पहुँचाया जा सकता जितना उसके विचार-स्तर को बदल कर संभव है। इसीलिए ज्ञान-दान को संसार का सबसे बड़ा दान कहा है। प्राचीन काल के साधु-ब्राह्मण इस ज्ञान-दान में निरत रहने के कारण ही भूसुर धरती के देवता कहलाते थे, और जन-साधारण के श्रद्धा-विश्वास का सम्मान प्राप्त करते थे। धर्म प्रचारक से आत्मा में प्रकाश उत्पन्न करने वाले से बढ़ कर इस धरती पर और कोई पुण्यात्मा हो भी नहीं सकता।

युग-निर्माण योजना के शत-सूत्री कार्यक्रम हैं। अनेक व्यक्तियों को अपनी-अपनी स्थिति के अनुरूप विश्व का नव-निर्माण करने के लिये अनेक प्रकार के रचनात्मक कार्यक्रम अपनाने हैं। पर ‘ज्ञान-यज्ञ’ सबका मूल है। इसके बिना क्षेत्र ही तैयार न होगा, साथी एवं सहानुभूति रखने वाले ही न मिलेंगे। इसलिये किसी को कहीं नव-निर्माण के लिए कुछ करना है तो पहल यहीं से करनी चाहिये कि इस विचारधारा से प्रभावित-सहमत-लोगों की संख्या बढ़ाई जाए। उन्हीं को साथ लेकर भविष्य में कोई रचनात्मक पद्धति आरंभ की जा सकती है।

ज्ञान-यज्ञ की साधन-सामग्री-पत्रिकायें तथा ट्रैक्ट माला खरीदने के लिए दस नये पैसे प्रति दिन निकालते रहने वाली बात निर्धन से निर्धन व्यक्ति के लिए कुछ कठिन नहीं। बशर्ते कि उसमें थोड़ी श्रद्धा विद्यमान हो। दस पैसे का अर्थ है-लगभग डेढ़ छटाँक अन्न अर्थात् एक रोटी का आटा। देश, धर्म, समाज और संस्कृति की एक महती आवश्यकता को पूरा करने के लिए एक रोटी का पेट खाली रख कर भी काम चलाया जा सकता है। निर्धन से निर्धन व्यक्ति इतना कर सकता है। उनकी बात अलग है जो अध्यात्मवाद को बातों के बताशे के रूप में ही देखते हैं और उसके लिए परमार्थ जैसा साहस आवश्यक नहीं समझते। उनके लिए इतना-सा त्याग भी बहुत भारी है, और सम्भवतः उतना भारी है जिसके लिए वे बेचारे बहाने बना कर अपनी असमर्थता सिद्ध करते रहेंगे।

अखण्ड-ज्योति के भावनाशील प्रत्येक परिजन को विचार क्राँति की मानव के भावनात्मक नव-निर्माण की महती आवश्यकता की गरिमा समझनी ही होगी और यह निश्चय करना ही होगा कि जो कर्त्तव्य उसके सामने हैं उसे बिना हिला-हुज्जत के पूरा करता रहे।


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