शिक्षा का उद्देश्य एवं प्रयोजन बदले

March 1967

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आज शिक्षा का उद्देश्य नौकरी बना हुआ है। स्कूल और कालेज में प्रवेश करते समय छात्रों के सामने एक ही उद्देश्य रहता है- नौकरी करना। अभिभावक भी उन्हें इसी आशा से पढ़ाते हैं कि हमारा बच्चा कोई नौकरी करेगा। शिक्षा क्षेत्र में फैला हुआ यह दृष्टिकोण न केवल अत्यन्त दोषपूर्ण ही है वरन् भगवती विद्या देवी का एक प्रत्यक्ष अपमान भी है।

जब अंग्रेजी राज्य था, सब काम अंग्रेजी में होता था, पढ़े-लिखे लोग हिन्दुस्तान में नहीं थे-अंग्रेजों को अपना काम चलाना था, पढ़े-लिखे लोगों का सहयोग आवश्यक था। इसलिए उन्होंने शिक्षा का प्रसार तो किया पर किया इस ढंग से कि उस पढ़ाई को पूरा करके युवक केवल नौकरी के ही काम के रह जायें। जो पढ़कर स्कूल-कालेजों से निकलता उसे नौकरी मिल जाती। उन दिनों सरकारी नौकरी होना बड़ी इज्जत की बात थी। लोग पटवारी, पतरोल, पोस्टमैन, पुलिस कांस्टेबल और चपरासी जैसे छोटे पदों पर काम करने वाले सरकारी कर्मचारियों से डरते थे, उनकी इज्जत करते थे और धौंस धपड़ में आकर भेंट पूजा भी करते थे, जिससे उन्हें वेतन के अतिरिक्त बाहरी आमदनी भी बहुत हो जाती थी। इस तरह रुतबा और दूसरे अति निर्धनों की तुलना में अच्छी आमदनी पाकर वे शिक्षित नौकर-पेशा लोग खुश भी रहते थे। उनके घर वाले भी शिक्षा के इस चमत्कार पर सन्तुष्ट रहते थे।

आज परिस्थितियाँ जमीन-आसमान जैसी बदल गयी। अब शिक्षा का प्रसार बहुत अधिक हो चुका। लड़कों ही नहीं लड़कियों की भी एक बड़ी फौज स्कूल-कालेजों से हर साल निकलती है। इन सबका लक्ष्य नौकरी होता है। सरकार में जितनी जगहें थीं वे लगभग घिर चुकीं, जो रिटायर होते या मरते हैं उन्हीं की जगहें खाली होती हैं। कोई एकाध नया विभाग खुलना हुआ तो उसमें थोड़ी-बहुत जगहें बढ़ जाती हैं। नौकरी चाहने वाले शिक्षितों की संख्या को देखते हुए यह जगहें ‘एक अनार सौ बीमार’ की कहावत चरितार्थ करती हैं। लाखों शिक्षित बेकार मारे-मारे घूमते हैं। एक दफ्तर से दूसरे से तीसरे में अर्जी लिये फिरते हैं। दस-बीस जगहों की आवश्यकता कभी अखबारों में छपती है तो उसके लिए हजारों गुनी अर्जियां पहुँच जाती हैं। सौ रुपये की जगह के लिए एम.ए. उत्तीर्ण बेकारों की लाइन लग जाती है।

हर साल नये लड़के स्कूल-कालेजों की पढ़ाई समाप्त करके लाखों की संख्या में निकलते हैं। वे पिछले साल के बेकारों की संख्या को और भी अधिक बढ़ाते चले जाते हैं। इस तरह ‘शिक्षितों की बेकारी’ देश की एक भयानक समस्या बनती चली जा रही है। यह बेकार लड़के निराश होकर अवाँछनीय कार्य करने पर उतारू होते हैं और कहना न होगा कि ‘शिक्षितों के पाप’ किसी भी समाज को सहज ही सर्वनाश के गर्त में गिरा सकने के लिए पर्याप्त होते हैं। अशिक्षित अपराधियों की दुष्टता एक सीमा तक ही दुष्परिणाम उत्पन्न करती है पर शिक्षितों की सूझ-बूझ तो ऐसे जाल बुनती है जिससे कानूनी पकड़ से बचते हुए अनेक लोग विघटनात्मक दुष्प्रवृत्तियों के शिकार बनते चले जाते हैं।

अभी शिक्षा का औसत 21-22 पहुँचा है। देश में अभी भी 80 प्रतिशत लोग अशिक्षित है। आगे शिक्षा का विकास होने वाला है। अन्य सभ्य देशों की तरह यहाँ भी दस-पाँच साल में 90 प्रतिशत लोग पढ़-लिख जायेंगे। तब भी यदि शिक्षा-क्षेत्र में फैला हुआ वर्तमान दृष्टिकोण बना रहा तो समस्या असाध्य हो जायेगी। 90 प्रतिशत शिक्षित लोग जब नौकरी चाहेंगे तो उन्हें बेचारे 10 प्रतिशत असमर्थ, अशिक्षित कैसे अपना नौकर रख सकेंगे?

संकट अभी भी चरम सीमा तक पहुँच गया है। तृतीय श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाले हाईस्कूल के छात्रों को कालेजों में दाखिला नहीं मिलता, हर कालेज प्रथम-द्वितीय श्रेणी के छात्रों को ही अपने यहाँ भर्ती करना चाहता है। तीसरी श्रेणी वालों को दुत्कार दिया जाता है। नौकरी में तो और भी अधिक मुसीबत है। तीसरी श्रेणी में उत्तीर्ण छात्र, जो लगभग 65 प्रतिशत होते हैं, इण्टरव्यू तक में नहीं बुलाये जाते। अब द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्णों की भी दुर्गति बढ़ती चली जा रही है। थोड़ी-बहुत पूछ है तो प्रथम श्रेणी वालों की, जो उत्तीर्ण छात्रों में से 10-15 प्रतिशत से अधिक नहीं होते। शेष को तो निराशा ही हाथ लगती है। कहीं उल्टी-सीधी सौ-डेढ़ सौ की नौकरी मिल गई तो उसी पर संतोष करके बेचारों को जिन्दगी का भार ढोना पड़ता है।

किसी जमाने में नौकरी शान-शौकत का कमाई खुशहाली का, रौब-दौब का, माध्यम रही होगी। आज तो वह 90 प्रतिशत नौकरों के लिये अपनी स्वाधीनता और तकदीर बेच देने जैसी मुसीबत है। 10-20 प्रतिशत ही ऊंची अच्छे वेतन की जगहें पाते हैं। कुछ कर्मचारियों को रिश्वत की आमदनी भी होती है, पर वह दिन दूर नहीं जब रिश्वतखोरी मिट जायेगी और हर कर्मचारी को अपने सूखे वेतन पर गुजारा करना पड़ेगा। बढ़ते हुए खर्च और आकाश चूमती हुई महंगाई को देखते हुए वर्तमान वेतनों की कमाई पर अपने बड़े परिवार का पालन-पोषण करना, बच्चों की शिक्षा-दीक्षा, दवा-दारु, ब्याह-शादी, मौत-मुसीबत का प्रबंध करना कितना कठिन है- इसे भुक्तभोगी ही जानते हैं।

अफसरों की बात-बात पर फटकार, हर समय डरे-डरे रहना, बदली हो जाने पर जगह-जगह के चूल्हे काले करते फिरना, बच्चों की पढ़ाई का सिलसिला बिगाड़ना, कहीं भी चिरस्थायी सच्चे हितैषी मित्र उत्पन्न न कर सकना कितनी कठिनाई भरी बातें हैं। खानाबदोशों की सी मारे-मारे फिरने वाली जिन्दगी भी भला कोई जिन्दगी है? नौकरी-पेशा करने वालों को क्या कभी कुटुम्ब परिवार के साथ रहने का आनन्द मिल सकता है? चार भाई, दो बहिन विवाह होते ही, नौकरी लगते ही तीतर-बितर हो गये। कोई पूरब गया, कोई पश्चिम। कभी विवाह-शादियों में इकट्ठे हो लिए तो गनीमत अन्यथा यदा-कदा चिट्ठी-पत्री से ही एक-दूसरे की कुशलक्षेम पूछ लेते हैं। माँ-बाप को बुढ़ापा काटने के लिए सोचना पड़ता है कि कहाँ रहें, कहाँ न रहें? इस स्थिति की तुलना उन लोगों से कीजिए जो कृषि-व्यवसाय आदि स्वतंत्र धंधा अपनाकर एक ही नगर में रहते हैं और सुख-दुःख में सारे कुटुम्ब परिवार का सहयोग पाकर मानसिक एवं सामाजिक दृष्टि से गर्व, साहस और सहयोग का बड़ा सुखद जीवन व्यतीत करते हैं।

शिक्षा नौकरी की दृष्टि से प्राप्त करना किसी जमाने में सुविधाजनक रहा होगा-तब के लिये वह बात ठीक थी, पर आज परिस्थितियाँ बिलकुल बदल गई हैं। ऐसी दशा में छात्रों को और अभिभावकों को भी परिस्थितियों के अनुरूप अपना विचार करने का ढर्रा बदलना चाहिए। पढ़ना और पढ़ाना तो हर किसी के लिए उचित है, पर उसमें मिला हुआ नौकरी वाला लक्ष्य सर्वथा हटा देना चाहिए। संसार भर में शिक्षा का प्रसार है। शिक्षित लोग अपने जीवन-यापन का स्वतंत्र क्षेत्र ढूँढ़ते हैं। नौकरी तो बहुत कम लोग पसन्द करते हैं। स्वतंत्र व्यवसाय में जीवन को स्वतंत्र रीति-नीति से बिताने का अवसर मिलता है। मर्जी के अनुसार काम करने, बदलने या बन्द की सुविधा रहती है। फिर भाग्य भी बिकता नहीं है। अपने पुरुषार्थ एवं प्रयत्न के अनुरूप अधिक उपार्जन करने और अधिक उन्नति करने की सुविधा रहती है। पराधीनता की तुलना में स्वाधीनता का जो आनन्द है थोड़े पैसों के अधिक लाभ के बदले उसे बेच नहीं दिया जाना चाहिए।

युग-परिवर्तन तथ्य के संदर्भ में शिक्षा-क्षेत्र में समाये हुए इस अनुपयुक्त दृष्टिकोण को हटाया जाना आवश्यक है। इसके स्थान पर यह मान्यता प्रतिष्ठापित की जानी चाहिए कि विद्या का उद्देश्य व्यक्तित्व की प्रखर एवं प्रसुप्त क्षमताओं को विकसित करना ही है। यह लाभ इतना बड़ा है जिसके ऊपर नौकरी लगने के तुच्छ प्रतिफल को निछावर करके फेंका जा सकता है।

हमें जानना चाहिए कि मनुष्य के अन्दर अगणित शक्तियाँ और संभावनायें छिपी पड़ी हैं। यदि उन्हें समुचित रीति से विकसित एवं परिपुष्ट करने का अवसर मिल जाये तो साधारण परिवार तथा परिस्थिति में पैदा हुआ व्यक्ति भी उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँच सकता है। अमेरिका के राष्ट्रपतियों में से आधे से अधिक ऐसी परिस्थितियों में जन्में थे, जिनमें यदि हमारे जैसा निराशा का वातावरण रहा होता तो वे बेचारे मेहनत-मजदूरी करके किसी प्रकार पेट पालने और जिन्दा रहने में ही समर्थ हो सके होते। पर उन्होंने अपनी प्रस्सुप्त शक्तियों को जगाया। गुण, कर्म, स्वभाव को उत्कृष्ट स्तर पर ढाला, अपनी भावनाओं, प्रवृत्तियों एवं आदतों को संभाला, गतिविधियों को नियंत्रित एवं व्यवस्थित किया और जीवन की दिशा निर्धारित करके उस पर साहस एवं संकल्प पूर्वक कदम बढ़ाया। यही रीति नीतियाँ थीं, जिसके आधार पर वे आगे बढ़ सके। यही रीति-नीति है जिसे अपनाकर संसार के हर महापुरुष ने हर सफल एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति ने गर्व, गौरव, प्रकाश और प्रेरणा भरी विभूतियों का वरण किया है। इस तथ्य को जितनी जल्दी समझ लिया जाये, उतनी ही जल्दी हम सर्वतोमुखी प्रगति की दिशा में अग्रसर होने का लाभ लेंगे।

शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य यही है। प्राचीन काल में हर शिक्षार्थी का पढ़ना-पढ़ाना इसी दृष्टि से होता था। अब समय आ गया है जबकि हमारी शिक्षा का उद्देश्य एवं स्वरूप इसी आधार पर विनिर्मित किया जाये। शिक्षा की सफलता इस बात में है कि शिक्षित व्यक्ति न केवल समुचित आजीविका ही उपार्जित करे, वरन् अपने पारिवारिक जीवन में स्वर्गीय वातावरण उत्पन्न करे। पत्नी के लिए देवता, बच्चों के लिए आचार्य, माता-पिता के लिए सन्तोष और भाई-बहिनों के लिए आधार अवलम्बन बन कर रहे। शरीर से स्वस्थ और मन से परिपुष्ट प्रमाणित हो। हर किसी का प्रियपात्र, विश्वासपात्र और श्रद्धापात्र बने। ऐसा प्रकाशवान जीवन जिये जिससे अनेकों प्रेरणा प्राप्त करें-शिक्षा का यही वास्तविक उद्देश्य हो सकता है। हमारी शिक्षा-व्यवस्था इसी स्तर की होनी चाहिए।

युग निर्माण योजना के अंतर्गत हम इसी स्तर की शिक्षा-प्रणाली का एक नमूना प्रस्तुत करने जा रहे हैं। जून से छात्रों के लिए दो प्रकार की शिक्षा व्यवस्था आरंभ की जा रही है-1. एक वर्षीय 2. चार वर्षीय। जो नवयुवक सरकारी स्तर की किसी पढ़ाई में लगे हुए हैं, या नौकरी की तलाश में लगे हुए हैं उन्हें बीच में एक वर्ष को बुलाया जा रहा है। पढ़ाई को बीच में रोककर भी एक वर्ष के लिए आया जा सकता है और मन में सोच लिया जा सकता है कि एक वर्ष फेल हो जाने से उसी कक्षा में रुके पड़े रहे। जिनके घरों में जिम्मेदारी उठाने वाले दूसरे लोग मौजूद हैं, जिन पर पारिवारिक भार पूरी तरह नहीं पड़ा है, वे भी एक वर्ष का समय निकाल सकते हैं। इस अवधि में क्या पढ़ाया जाएगा, उसकी चर्चा अगले लेख में है। संक्षेप में यही समझ लेना चाहिए कि वयस्क व्यक्तियों के लिए, प्रौढ़ों के लिए यहाँ जीवन-निर्माण का एक वर्षीय प्रशिक्षण है जिसे प्राप्त करने के बाद हर व्यक्तित्व को आशाजनक दिशा में परिवर्तित हुआ देखा जा सकता है।

चार वर्षीय पाठ्यक्रम के लिए न्यूनतम योग्यता जूनियर हाईस्कूल (आठवीं कक्षा) और आयु 15 वर्ष हो। इससे अधिक आयु और योग्यता वालों का अधिक स्वागत है। इस चार वर्ष की अवधि में जितना पढ़ाया जायेगा वह स्कूली दृष्टि से लगभग बी.ए. स्तर का तो होगा ही, इसके अतिरिक्त सामान्य ज्ञान उसका इतना अधिक बढ़ा-चढ़ा होगा कि वह जीवन की किसी भी दिशा में आशाजनक प्रगति कर सके। व्यक्तित्व के विकास की- गुण, कर्म, स्वभाव के परिष्कार की शिक्षा देना तो इस सारी योजना का उद्देश्य ही है। इसलिए उसकी प्रधानता तो रहेगी ही।

अखण्ड-ज्योति परिवार के किशोरों और वयस्क नव-युवकों को इस शिक्षा-व्यवस्था का लाभ लेना चाहिए। बेशक उन्हें इस पढ़ाई से सरकारी नौकरी में काम आने वाली डिग्री नहीं मिलेगी। परीक्षा और उपाधियाँ हमारी अपनी होंगी, पर इतना निश्चित है कि यह पढ़ाई शिक्षार्थी को इस योग्य बनाकर भेजेगी जिससे वह आजीविका के क्षेत्र में कभी असफल न रहे-दूसरों को अपने यहाँ नौकर रखने की ही बात सोचे। वस्थ मन और स्वभाव के निर्माण का लाभ तो इतना बड़ा है जिसके उपलब्ध होने पर पेट पालने जैसी छोटी बात तो अत्यधिक सरल हो जाती है। जिनके घर में कृषि व्यवसाय आदि की व्यवस्था चली आ रही है, या जो अपने बच्चों को नौकरी के अभिशाप मुक्त रख कर स्वावलम्बी जीवन जीने की बात सोच सकें, वे अपने बच्चों को इस पढ़ाई के लिए प्रसन्नतापूर्वक भेज सकते हैं।

युग परिवर्तन नव-निर्माण की इस पुण्य बेला में शिक्षा को पराधीनता पाश में बाँधने वाली न रहने देकर उसे बाह्य एवं आँतरिक जीवन में स्वाधीनता प्रदान कराने वाली बनाया जाना है। इसी प्रयोग का सूत्रपात करने के लिए हमारी यह प्रशिक्षण योजनायें आरंभ हो रही हैं। इन्हें सफल बनाना प्रत्येक प्रबुद्ध व्यक्ति का कर्त्तव्य है।


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