आत्म-कल्याण की त्रिविध श्रेय-साधना

March 1967

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स्वार्थ और परमार्थ जिसमें दोनों साधन सधते हों- अपना तथा सबका कल्याण जिसमें सधता हो, वही सच्चा अध्यात्म है। भजन का अर्थ केवल जप या ध्यान ही नहीं, वरन् सेवा भी है। भजन शब्द संस्कृत की ‘भज्’ धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है सेवा। जिससे अपनी और दूसरों की सेवा बन पड़े, उसे सच्चा भजन कहना चाहिए। जिस भजन को सर्वांगपूर्ण कहा जा सकता है, जिससे वस्तुतः ईश्वर प्रसन्न हो सकता है, उसका स्वरूप सेवा से मिश्रित ही होना चाहिए।

गत अंक में गायत्री की उच्चस्तरीय साधना के अंतर्गत शुष्क मनःक्षेत्र को प्रेम-भावनाओं से ओत-प्रोत करने का साधन-विधान समझाया गया। यह बहुत ही महत्वपूर्ण एवं फलदायक है। अन्तःकरण में प्रेम तत्व का प्रादुर्भाव एवं विकास होना सच्ची आत्मिक प्रगति का चिन्ह है। प्रेम जिसके अन्तःकरण में पैदा हो, समझना चाहिए कि वहाँ परमेश्वर उत्पन्न हो गया। वह दिव्य प्रेम, उपकार, सेवा, सहायता, करुणा, दया आदि सत्प्रवृत्तियों के रूप में ही प्रकट होता है।

नामोच्चार और इष्टदेव का ध्यान उपासना-क्षेत्र की वे आरंभिक प्रक्रियायें हैं जिनसे मन की एकाग्रता में सहायता मिलती है। इस एकाग्रता का उपयोग संकीर्ण स्वार्थपरता से-तृष्णा एवं वासना से चित्त को विरत कर परमार्थ प्रयोजनों में संलग्न करने के निमित्त होना चाहिए। अन्तःकरण में सत्प्रवृत्तियों को जमाने, उगाने और बढ़ाने के लिए सेवा-साधना का अभ्यास करना पड़ता है। प्राचीन काल में प्रत्येक ब्रह्म-परायण व्यक्ति के जीवन में सेवा-धर्म के लिए प्रमुख स्थान रहता था। कोई ब्राह्मण, कोई साधु, कोई भक्त ऐसा न था जो ईश्वर की प्रतिकृति इस विश्व वसुधा को सुखी-समुन्नत बनाने के लिए आवश्यक योगदान न करता रहा हो। आज वही राजमार्ग हमारे लिये भी है। जीवन लक्ष्य की पूर्ति के लिए हमें सेवा-धर्म को अपनी भावना तथा प्रक्रिया में प्रमुख स्थान देना ही होगा अन्यथा न तो हम आत्मा को प्राप्त कर सकेंगे और न परमात्मा को।

नव-निर्माण के लिए जन-मानस के परिष्कार का जो पुण्य-परमार्थ अपनाने के लिए अखण्ड-ज्योति परिजनों को प्रेरणा दी गई है, उसे सामाजिक कार्यमात्र नहीं मान लेना चाहिए। वस्तुतः वह आत्मिक प्रगति की ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग की संगम साधना है। सद्विचारों का निरन्तर चिन्तन करना-सत्प्रवृत्तियों में भावना-स्तर को निमग्न करना वस्तुतः अन्तःकरण में परमेश्वर की प्रतिष्ठापना करने का ही एक महत्त्वपूर्ण प्रयोग है।

जिस प्रकार जिह्वा पर भगवान का नाम और मस्तिष्क में भगवान का रूप प्रतिष्ठापित करके जप और ध्यान की प्रक्रिया चलाई जाती है, उसी प्रकार अन्तःकरण में सद्भावों, सद्गुणों, सत्कर्मों, सत् स्वभावों की स्थापना करना भी उपासना ही है। भगवान नाम और रूप तक ही सीमित नहीं है। यह दो प्रक्रियायें तो आरंभिक हैं- भगवान का वास्तविक स्वरूप तो भावमय है। जितनी देर अन्तरात्मा में भावनायें विचरण करती रहें, समझना चाहिए उतनी देर, परमेश्वर ही विराजमान रहे। लोकमानस में सत्प्रवृत्तियों की पूर्ति होती है। जितनी देर इन क्रियाकलापों में संलग्न रहा जायेगा, उतनी देर अपने अन्तःकरण चतुष्टय में-मन-बुद्धि-चित्त व अहंकार में उच्च आदर्शों का रूप धारण कर परमेश्वर ही प्रतिष्ठापित रहेगा। युग-परिवर्तन के लिए आरंभ किये गये ज्ञान-यज्ञ में जन जागरण में जितनी देर हम लगे रहते हैं, वस्तुतः उतने समय भगवान के समीप रहने का उपासना का ही लाभ लेते हैं। यह आध्यात्मिक प्रयोग अपना भी कल्याण करता है और दूसरों का भी, इसलिए उसे सच्चा अध्यात्म, सच्चा भजन कहा जा सकता है। इस साधना के समय के अनुरूप श्रेष्ठतम स्तर की साधना को तपश्चर्या कहा जाये तो इसमें कुछ भी अत्युक्ति न होगी। प्रिय परिजनों को इस साधना में आध्यात्मिक प्रयोजन पूर्ण करने और जीवन लक्ष्य प्राप्त करने के उद्देश्य से संलग्न होना चाहिए। साधना सरल अवश्य है पर उसका प्रतिफल किसी भी कठोर तपश्चर्या से कम नहीं है।

नव-निर्माण योजना में जहाँ अपने समीपवर्ती लोगों को उत्कृष्टता की आदर्शवादिता की दिशा में अग्रसर होने की प्रेरणा देने के लिए कहा गया है, वहाँ यह भी बताया गया है कि आत्म-निर्माण के लिए उतनी ही तत्परता के साथ प्रयत्न किया जाये। अपना स्तर ऊंचा उठाने के लिए भी पूरा-पूरा प्रयत्न करना चाहिए। नव-निर्माण की साधना में यह भी एक महत्त्वपूर्ण अंग है।

प्रातःकाल नींद खुलते ही, अपने साथ वार्तालाप शुरू कर देना चाहिए। बिस्तर छोड़ने से पूर्व अपने आप के संबंध में कुछ आवश्यक आत्म-चिंतन, लकीर पीटने के रूप में नहीं वरन् निर्माणात्मक उद्देश्य की पूर्ति के लिए करना चाहिए।

हर एक दिन को एक नया जीवन और हर रात को एक पटाक्षेप-मृत्यु मानकर ऐसी योजना प्रातःकाल ही बना लेनी चाहिए कि हमारा आज का दिन हर दृष्टि से आदर्श स्तर का बीते।

पिछले दिनों किन दोष-दुर्गुणों का बाहुल्य अपने में रहा है और किन सत्प्रवृत्तियों की न्यूनता रही है? इसे बारीकी से आत्म-निरीक्षण करते हुए ढूंढ़ना चाहिए और योजना यह बनानी चाहिए कि आज के दिन उन दोषों को मिटाया या घटाया जाये। इसी प्रकार जो सद्गुण न्यून मात्रा में थे, उन्हें आज अधिक मात्रा में बढ़ाया, कार्यान्वित किया जाये।

आज के दिन की उठने से लेकर सोने तक की ऐसी दिनचर्या बना लेनी चाहिए जिससे समय के तनिक भी अपव्यय की गुंजाइश न रहे। हर क्षण सार्थक, श्रेष्ठ एवं उपयोगी कार्यों में लगे। इस दिनचर्या को दिन भर कड़ाई के साथ पालन करने का संकल्प करना चाहिए। कोई अनिवार्य व्यवधान आ जाये तो बात दूसरी है अन्यथा आलस्य, ढील-पोल एवं लापरवाही के कारण उस दिनचर्या में कोई व्यक्ति क्रम नहीं होना चाहिए।

समय के सदुपयोग की तरह धन के सदुपयोग की योजना प्रातःकाल बना लेनी चाहिए। अपना एक भी पैसा हानिकर एवं अनावश्यक कार्यों में खर्च न हो, जो व्यय किया जाये योजनाबद्ध बजट के अनुरूप हो। एक-एक पैसा केवल उन कार्यों में खर्च होना चाहिए, जो उपयुक्त आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक हो। धन उस मार्ग में कमाया जाना चाहिए जिसमें अनीति जुड़ी हुई न हो। अवाँछनीय कमाई से बनाई हुई खुशहाली की अपेक्षा ईमानदारी के आधार पर गरीबों जैसा जीवन बनाये रहना कहीं अच्छा है। यह नीति अपने रोम-रोम में बसी हुई रहनी चाहिए।

समय का सदुपयोग और धन का उपयोग, यह दो नियंत्रण जिसने कर लिए, समझना चाहिए कि उसने आत्मत-कल्याण की आधी मंजिल पार कर ली। 1. परिश्रमशीलता, मधुर एवं संयत भाषण, सादगी, स्वच्छता, उदारता, सज्जनता जैसे गुण यद्यपि कम महत्व के दिखाई पड़ते हैं पर वस्तुतः उनका बहुत बड़ा मूल्य है। भौतिक सफलता एवं आत्मिक प्रगति इन्हीं सद्गुणों के ऊपर अवलम्बित रहा करती है।

विचारों को विचारों से काटने की कला जिसने सीख ली, समझना चाहिये कि मानसिक अस्वस्थता पर उसने विजय प्राप्त कर ली। ईर्ष्या, द्वेष, शंका, सन्देह, भय, आवेश, क्रोध, कामुकता, लालच आदि दुष्प्रवृत्तियाँ समय-समय पर विभिन्न परिस्थितियों की घटनाओं के माध्यम से मन में उठती रहती हैं। इनके विरोध में उस विचारधारा को मन में संजोये रहना चाहिए, जो इन कुविचारों की काट कर सके। विचारों से विचार काटने की कला जिसने सीखली, समझना चाहिए कि उसने मानसिक उलझनों को सुलझाने का रहस्य सीख लिया। हर रोज प्रातःकाल आत्म-चिन्तन के समय यह देखना चाहिए कि अपने मनःक्षेत्र में आजकल किन अनुपयुक्त विचारों का घेरा है। उन विचारों को काटने के लिए विवेकशीलता एवं दूरदर्शिता के आधार पर ऐसा प्रतिरोधी विचार-प्रवाह विनिर्मित करना चाहिए जो उन कुविचारों को काटकर निरस्त कर सके।

हर रात को सोते समय फिर प्रातःकाल की तरह आत्म-चिन्तन करना चाहिए। देखना चाहिए कि सबेरे जो योजना बनाई गई थी वह कार्यान्वित हुई या नहीं? त्रुटि हुई तो कितनी और क्यों? उसमें अपना कितना हाथ रहा और परिस्थितियों का कितना? जो कुछ अनुचित बन पड़ा हो, उसके लिए सताये हुए व्यक्ति की तरह आत्मा से तथा परमात्मा से हार्दिक क्षमा याचना करनी चाहिए और अगले दिन अधिक सतर्कतापूर्वक उस तरह के दोषों को न होने देने का संकल्प दुहराना चाहिए। तदुपरान्त, भगवान का स्मरण करते हुए शान्तिपूर्वक निद्रा देवी की गोद में चले जाना चाहिए।

इस प्रकार आत्म-निरीक्षण, आत्म-शोधन, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण एवं आत्म-विकास का आयोजन उपरोक्त प्रातः सायं की आत्म-चिन्तन साधना के आधार पर करते रहना चाहिए। शरीर के लिये कितनी शक्ति खर्च की? और आत्मा के लिये कितना प्रयत्न किया? यह प्रश्न बार-बार अपने से पूछना चाहिये और ऐसी गति-विधि निर्धारित करनी चाहिए जिससे अन्तरात्मा को सन्तोषजनक उत्तर एवं आधार मिल सके।

अखण्ड-ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्य को अपनी उपासना के साथ इस आत्म-निरीक्षण की साधना को भी जोड़ लेना चाहिये। इस आधार पर जीवन को उत्कृष्ट बनाने के लिये आँतरिक प्रकाश एवं मार्ग-दर्शन मिलता रह सकता है।

उपासना, आत्म-निर्माण एवं परमार्थ के लिये ज्ञान-यज्ञ-यह तीन पुण्य प्रक्रियायें यदि हमारे दैनिक जीवन में समुचित रूप से प्रतिष्ठापित हो जायें तो सामान्य घर-गृहस्थ की जिन्दगी जीते हुए भी हम कर्मयोगी एवं सच्चे आध्यात्मवादी की परम शाँतिपूर्ण स्वर्गीय मनःस्थिति उपलब्ध कर सकते हैं। मानव-जीवन को सार्थक एवं धन्य बनाने के लिये इसे त्रिविधि जीवन साधना की त्रिवेणी में हमें स्नान करते रहना चाहिए।


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