छोटा किन्तु महान् शुभारंभ

March 1967

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

पाँच तत्वों से शरीर बनता है, इसलिए शरीर रचना में मिट्टी पानी, हवा, आग, आकाश का योगदान अनिवार्य है। यदि इन तत्वों का समन्वय न हो तो शरीर का निर्माण ही न हो सके। इसी प्रकार शरीर-रक्षा के लिए भोजन, वस्त्र, निद्रा, साँस, सफाई, की पाँचों क्रियायें आवश्यक हैं। इनकी व्यवस्था न हो तो पाँच तत्वों से बन जाने पर भी शरीर जीवित न रह सके। इन तथ्यों पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि जीवन का आरंभ पाँच तत्वों का एकीकरण होने पर और उस जीवन की रक्षा पाँच उपकरण होने पर ही संभव है। यह दोनों ही व्यवस्थायें जीवन धारण की दृष्टि से नितान्त आवश्यक हैं।

इतने पर भी यह नहीं कहा जा सकता है कि शरीर निर्माण एवं उसे जीवित रहने के साधन बन जाने पर जीवन का शरीर धारण का उद्देश्य पूरा हो गया। मानव शरीर किसी महान प्रयोजन के लिए मिला है, उस लक्ष्य पूर्ति में यदि जीवन गतिविधियाँ संलग्न हों तो ही यह माना जायेगा कि शरीर धारण की प्रक्रिया सार्थक हुई। भगवान का राजकुमार मानव प्राणी अपने पिता के इस परम सुरम्य संसार की अव्यवस्था दूर कर उसे सुन्दर, सुरम्य, सुविकसित बनाने आता है। पिता का राज्य कुत्सित एवं गर्हित परिस्थितियों से भरा न रहे यह देखना और व्यवस्थाओं का संचालन राजकुमार का काम है। उत्तराधिकार में जहाँ राजकुमार को अनन्त वैभव मिलता है वहाँ उसे जिम्मेदारियाँ भी उठानी पड़ती हैं। उन जिम्मेदारियों को ठीक तरह वहन करने के लिए एक सर्वांगीणपूर्ण साधन-यंत्र चाहिए, वही शरीर है। शरीर सबसे महत्वपूर्ण सबसे बड़ा सर्वांगपूर्ण साधन है, जिसके माध्यम से जीव के लिए अपना प्रयोजन पूरा कर सकना संभव होता है। शरीर न हो तो आकाश में घूमता हुआ बेचारा वायुभूत जीव इस सृष्टि की सुव्यवस्थिता में-अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने में-भला कैसे सफल हो सकेगा?

ठीक यही बात युग परिवर्तन के-भावनात्मक नव-निर्माण का प्रयोजन पूरा करने के-महान लक्ष्य के संबंध में लागू होती है। इस योजना के अंतर्गत विश्व का सर्वांग, सुन्दर नव निर्माण किया जाना है। इस प्रयोजन की सिद्धि के लिए आवश्यक आधार की, अभीष्ट पृष्ठभूमि की आवश्यकता होगी। वह न हो तो फिर योजना को मूर्त रूप कैसे मिलेगा? व्यक्ति और समाज की अभिनव रचना करने के लिए उत्कृष्टा स्तर के व्यक्तित्व चाहिएं। इट, चूना न हो तो इमारत कैसे बने? सूत, कपास न हो तो कपड़ा कहाँ से बने? अन्न, जल न हो तो भोजन किस प्रकार बने? बाँस और फूँस न हो तो छप्पर किस तरह छाया जाए? युग परिवर्तन के लिए भावनाशील और कर्मठ व्यक्ति चाहिए। यह दो गुण जिनमें होंगे वे ही युग-निर्माण की भूमिका सम्पादन कर सकेंगे, अन्यथा वाणी और लेखनी के द्वारा किये जाने वाले प्रयत्न एक विडम्बना बन कर रह जायेंगे।

युग-निर्माण की प्रथम पंचवर्षीय योजना के प्रथम वर्ष में कार्यान्वित करने के लिए जो पाँच कार्यक्रम प्रस्तुत किए गए हैं उन्हें भूमि निर्धारण कहना चाहिए। कोई सुन्दर उद्यान लगाना हो तो पहले जमीन को उसके उपयुक्त बनाना पड़ता है। झाड़-झकाँड काटना, समतल करना, मेंड़ बाँधना, खाद देना, जोतना इन पाँच संस्कारों के द्वारा जब भूमि का निर्धारण पूरा हो जाता है तब उसमें जिस प्रकार के पौधे उगाने हो उनका आरोपण किया जाता है। ऊसर भूमि में तो कोई भी पौधा लगाया जाए वह सूख ही जायेगा। आज जन-मानस की स्थिति ऊसर भूमि की तरह है। रोज-रोज भाषण, प्रवचन सुनने, लेख, ग्रंथ पढ़ने पर भी मन जहाँ का तहाँ रहता है। चिकने घड़े पर जैसे पानी नहीं ठहरता वैसे ही उत्कृष्टता के आदर्शों को लोग सुन समझ तो लेते हैं पर उन्हें ग्रहण रत्तीभर भी नहीं करते। इस कान से सुन उस कान से निकाल देने वाली उक्ति ही सर्वत्र चरितार्थ होती दीखती है। कठोर जमीन पर विपुल पानी की वर्षा भी बहुत काम नहीं करती। जिस जमीन में थोड़ा पोलापन होगा उसी में वर्षा का जल प्रवेश करेगा और उसी में पौधे अंकुरित होने की संभावना बनेगी। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए योजना के प्रथम वर्ष में केवल एक काम हाथ में लिया गया है- भूमि निर्धारण। इस अंक में प्रस्तुत पाँचों आयोजन केवल इस प्रारंभिक आवश्यकता को पूर्ण करेंगे।

इसका अर्थ यह नहीं है कि योजना इतनी-भर है जितनी कि प्रथम वर्ष में बनाई या बताई गई। यह तो किसी विशाल भवन की नींव खोदने और उसे मजबूत पत्थरों से भरने-भर की बात है। इस आधार पर आगे महल खड़ा होगा और उस महल में जो महान कार्य होते हैं उसकी व्यवस्था बनेगी। यह कार्य अगले दिनों के हैं। नींव के गड्ढे खुदने उसमें कंकड़ पत्थर भरे जाने का क्रिया-कलाप होते देख कर किसी को निराश नहीं होना चाहिए। कोई बड़ा कार्य इस स्थान पर होना चाहिए था, यहाँ तो कारखाने का उत्पादन दिखाई देना था, पर यहाँ तो गड्ढे खुद रहे हैं, कंकड़-पत्थर भरे जा रहे हैं, यह देख कर मोटी बुद्धि वाले को निराशा हो सकती है। वह सोच सकता है कि यहाँ बड़ी-बड़ी मशीनें चलनी थीं, यहाँ हर घंटे में हजारों गज कपड़ा बुना जाना था, पर वह तो कुछ दीखता नहीं गड्ढे खुदने और कंकड़-पत्थर भरने जैसी छोटी बात यहाँ हो रही है, भला इस प्रकार वस्त्र उत्पादन का लक्ष्य कैसे पूरा होगा? यह तो निराशा जैसी बात हुई।

किन्तु दूरदर्शी, विवेकशील दर्शक के लिए उसमें कोई परेशानी की बात नहीं। वह जानता है वस्त्र उत्पादन के लिए जो कारखाना चलेगा-उसके लिए इमारत तो चाहिए ही और इमारत बनानी है तो उसकी नींव भी खुदेगी और भरी भी जायेगी। काम यहीं से तो शुरू होगा। खुले आकाश के नीचे तो मशीनें खड़ा नहीं की जा सकती? इसके लिए छायादार स्थान की सबसे पहली आवश्यकता है। कारखाना चलने से पहले उसी का प्रबंध करना पड़ता है। इस प्रयोजन के लिए इमारत बनती देख कर कोई विवेकशील एवं दूरदर्शी दर्शक प्रसन्न ही होगा और विश्वास करेगा कि जब कारखाने की इमारत बननी शुरू हो गई तो अगले दिनों इसकी अन्य व्यवस्थाएं भी बनती चली जायेगी। नव-निर्माण जैसा महान प्रयोजन एक बड़ा कारखाना चल पड़ने और उसके वस्त्रों से शीत निवारण का प्रयोजन पूरा होने जैसी बात है, उसकी पूर्ति के लिए इमारत बनते देख कर कोई उतावला व्यक्ति ही नाक-भो सिकोड़ सकता है। जिसे यह ज्ञान है कि बड़े काम के लिए बड़े साधन चाहिए, वह एक क्रियाबद्ध व्यवस्था का आरंभ होते देख कर आशाजनक भविष्य की उज्ज्वल संभावना सहज ही सोच सकता है और उस प्रयास की सराहना कर सकता है। वह जानता है कि कहने-भर से, चाहने भर से हथेली पर सरसों नहीं जमती। बड़े प्रयोजन की पूर्ति के लिए आवश्यक एवं उपयुक्त साधन पहले जमा करने पड़ते हैं। योजना के प्रथम वर्ष में यही प्रयत्न किया गया है।

अगले दिनों हमें बड़े-बड़े काम करने है। युग परिवर्तन कार्य अपने देश और अपने समाज के नव-निर्माण से आरंभ करके उसे विश्वव्यापी बनाना है अपने सामने अनेक समस्याएं उलझी पड़ी हैं, अनेक आवश्यकताएं अपनी पूर्ति के लिए पुकार रही है, उनका समाधान उचित रीति से करने के लिए विशालकाय व्यवस्थाएं जुटाई जानी हैं। किन्तु यह सब कौन करे- किन साधनों से करे, यह प्रथम प्रश्न है। उत्कृष्ट व्यक्तित्व जो नव-निर्माण के महान प्रयोजन की पूर्ति के लिए अभीष्ट क्षमता से संभव हो, वे ही हमारी प्रथम आवश्यकताएं हैं। महल बनाने के लिए भूमि खोदने के लिए सबसे पहले फावड़ा चाहिए। फावड़ा न हो तो योजना का आरंभ कैसे हो? बातूनी, कायर, स्वार्थी, संकीर्ण और ओछे मनुष्यों से अपना समाज भरा पड़ा है। जिनकी भावनाएं उत्कृष्टता से भरी हुई हों और जिनकी गतिविधियाँ आदर्शवादिता के लिए तड़पे ऐसे व्यक्ति जब तक उभर कर ऊपर न आवें तब तक बिल्ली के गले में घण्टी बाँधने जैसे कठिनाई ही होगी। आरंभ इसी आवश्यकता की पूर्ति से किया जाना चाहिए-वही किया भी जा रहा है।

देश के सामने महंगाई, अन्न संकट की समस्या है। अपराध बढ़ रहे हैं और व्यक्ति अपने को असुरक्षित समझने लगा है। पारस्परिक व्यवहार इतने दूषित हो गए हैं कि किसी पर विश्वास करना कठिन हो रहा है पर बिना विश्वास किए काम नहीं चलता है। माँसाहार की दुष्प्रवृत्ति, गो तथा दूसरे उपयोगी प्राणियों को सफाचट करती जा रही है। नशेबाजी में विपुल धन खर्च होता है और बदले में अस्वस्थता पल्ले बंधती है। शिक्षा केवल 20 प्रतिशत तक पहुँच सकी, 80 प्रतिशत अब भी देश में अनपढ़ हैं। गरीबी के कारण जीवन-विकास के सभी द्वार बन्द हैं। विवाह-शादियों में होने वाला अपव्यय समाज की कमर तोड़कर रखे दे रहा है। देश का आधा अंग-स्त्री समाज पिंजड़ों में बंद पक्षियों की तरह बेबस, बेजबान और बेकार होकर जी मर रहा है। जाति-पाँति, ऊंच-नीच और भेदभाव ने समाज को हजारों टुकड़ों में बाँट कर विसंगठित कर दिया है। रूढ़िवादिता, ढोंग और अन्धविश्वास ने लोगों को बौद्धिक पराधीनता में जकड़ दिया है। सर्वसाधारण का स्वास्थ्य बुरी तरह गिरता जा रहा है। राजनेता जिस अदूरदर्शिता और घटिया चरित्र का परिचय दे रहे हैं, उससे उद्विग्नता और निराशा बढ़ रही है। पड़ौसी चीन-पाकिस्तान आक्रामक बने हुए हैं। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति और वैज्ञानिक प्रगति विश्व मानव के लिए सर्वनाश का कारण बनी हुई है। विलासिता की अभिवृद्धि से लोग कायर और कुचाली बनते चले जा रहे हैं। स्वार्थपरता और संकीर्णता ने प्रत्येक क्षेत्र को धूर्तता, दुष्टता और अनैतिकता को बाहुल्य से भर दिया है।

उपरोक्त प्रकार की अगणित समस्यायें हमारे सामने हैं। ये अपने हल माँगती है। यदि इन्हें ऐसे ही पड़ा रहने दिया गया तो अगले थोड़े ही दिनों में सर्वनाशी और सर्वग्राही संकट मानव-समाज के सामने उठ खड़ा होगा और लाखों-करोड़ों वर्ष की संग्रहीत सभ्यता सहित मानव समाज अपनी सामूहिक आत्म-हत्या करने के लिए विवश हो जायेगा। इस विभीषिका से बचने के लिए हमें प्रत्येक क्षेत्र, स्तर के रचनात्मक आयोजन कार्यान्वित करने होंगे। नरक को स्वर्ग में परिणत करने के लिए अगणित प्रकार के अगणित स्तरों के प्रमाणित कलेवरों के, अगणित रचनात्मक एवं संघर्षात्मक आयोजन प्रस्तुत करने पड़ेंगे। सर्वांगीण उत्कर्ष के लिए सर्वांगीण योजनाएं अनिवार्य रूप से आवश्यक होंगी। छोटे-मोटे बाँध बनाने के लिए कितने इंजीनियर, कितने ओवरशियर, कितने मजदूर, कितने यंत्र, कितने वाहन, कितने साधन और कितने धन की आवश्यकता पड़ती है-यह हम रोज ही देखते हैं। फिर युग-निर्माण जैसे महान निर्माण के लिए कितने व्यक्तियों और कितने साधनों की जरूरत पड़ेगी इसका अनुमान लगाना कुछ अधिक कठिन नहीं होना चाहिए। जादू की फूँक मार देने मात्र से इतने बड़े प्रयोजन पूर्ण नहीं होते। इसके लिए वैसी ही महान उपलब्धियाँ विनिर्मित करनी पड़ेंगी जैसा कि महान लक्ष्य एवं आयोजन है।

बात फिर घूम-घामकर वहीं आ जाती है। यह सब करेगा कौन? देश में न पैसे की कमी है, न योग्यता की, न साधनों की, न सुविधाओं की। कमी केवल एक ही बात की है-इंसान बहुत छोटे, ओछे और बौने हो गये हैं। उन्हें वासना और तृष्णा की कीचड़ अपने दलदल में बुरी तरह फंसाये हुए है। बेचारे नाली के कीड़ों की तरह बुज-बुजाती हुई जिन्दगी जीते हैं। आदर्शवादिता और उत्कृष्टता उनके लिये कहने या सुनने भर की ऐसी चीज है जिसे व्यवहार में लाने की कोई आवश्यकता नहीं। ऐसे लोग स्वयं ही धरती के भारभूत हैं। जिन्दा रहकर स्वयं ही परेशान नहीं होते, दूसरों को भी अपार कष्ट देते हैं। इन क्षुद्र प्राणियों को दयनीय ही कहा जा सकता है, भले ही वे मनुष्य का कलेवर धारण कर शौक-मौज की जिन्दगी जीते हों। इस स्तर के लोग, जो स्वयं एक समस्या बने रहते हैं, वे देश, धर्म, समाज, संस्कृति के पुनरुत्थान में-विश्व-भाग्य के नव-निर्माण में-भला क्या योग दे सकते हैं?

मर्मस्थल यही है। हमें यहीं चोट करनी होगी। परिवर्तन यही से आरंभ करना होगा। व्यक्ति को ओछा न रहने देकर ऊंचा बनाने का कार्य उसी स्तर से आरंभ करना होगा, जिस पर कि वह आज है। छोटे बच्चों को लकड़ी की तीन पहिए वाली गाड़ी दी जाती है ताकि वे उसे पकड़कर खड़े हो सकें और चलने का अभ्यास कर सकें। इसका अर्थ यह नहीं कि भविष्य में उसे मोटर चलाने ही नहीं दी जायेगी। जरूर वह बड़े-बड़े वाहन और यंत्र चलायेगा पर आज जबकि उसका शरीर नन्हा-सा है, उसी के उपयुक्त लकड़ी की तीन पहिए की गाड़ी देनी होगी। हमारी प्रथम पंचवर्षीय योजना का प्रथम वर्षीय कार्यक्रम मानवीय महानता की दृष्टि से अभी शिशु जीवन बिताने वाले जन-साधारण के लिए है। देखने में बात छोटी है- पर उसमें वे सभी महान संभावनाएं बीज रूप में विद्यमान हैं जो ठीक तरह विकसित की जा सकीं तो एक महान वट-वृक्ष के रूप में परिणत होंगी।

अगले कुछ ही दिनों में एक महानतम-सर्वांगीण, सार्वभौम, आन्दोलन एक प्रचण्ड दावानल की तरह प्रकट होने वाला है। उसके अनेक रूप और अनेक प्रकार होंगे, अनेक नामों से, अनेक संस्थाओं-संगठनों के द्वारा अनेक रूपों में अनेक व्यक्तियों द्वारा वह चलेगा। धर्म-क्षेत्र से लेकर अर्थ-क्षेत्र, समाज-क्षेत्र, राज्य-क्षेत्र तक में एक महानतम विचार-क्राँति उत्पन्न होगी। वह विचार परिवर्तन नये युग का सृजन करेगा। उस प्रयोजन की पूर्ति के लिए अनेक सृजनात्मक प्रवृत्तियाँ चलेंगी और अनेक धरती को लाल कर देने वाले संघर्ष होंगे। युग-परिवर्तन की बात आज हंसी दिल्लगी जैसी लगती है पर उसकी प्रचण्डता अगले दिनों हर आँखों वाला देख सकेगा। इस समुद्र मन्थन के बाद जो अमृत निकलेगा उसी को पीकर मानव जाति देवत्व, अमरत्व एवं धरती पर स्वर्ग अवतरित करने वाले सतयुग का आनन्द उपलब्ध करेगी।

अखण्ड-ज्योति परिवार द्वारा आरंभ की गई इस पुण्य प्रक्रिया का, युग-निर्माण योजना का यही प्रयोजन है। इसके लिए जन-मानस में उत्कृष्टता की विवेकशीलता की, लोक-मंगल के लिये मानवोचित कर्त्तव्य पालन करने की, ज्योति का जागरण किया जाना आज की सर्वप्रथम सर्वप्रधान आवश्यकता है। हमारा प्रथम चरण इसी के लिये है। 1. अन्तरात्मा में प्रेमतत्व का अमृत निर्झर स्रवित करने के लिए हमारी इस बसंत पंचमी से आरंभ हुई साधना अनुपम प्रतिफल उत्पन्न करेगी। प्रातः सायं आत्म-निरीक्षण और दिनचर्या के सुव्यवस्थित निर्धारण से व्यक्तित्वों में प्रखरता आयेगी। लोग प्रतिभाशाली, सुसंस्कृत, सहृदय एवं सुविकसित बनेंगे।

2. ज्ञान-यज्ञ से ब्रह्म विद्यालयों के प्रचलन से अंधेरी कोठरियों में विवेक के दीप जलने लगेंगे। जिसने कभी विवेकशील, विचारकता, तथ्य एवं सत्य की दृष्टि से सोचा तक नहीं, ढर्रे की रूढ़िवादिता में ही सोचते-विचारते रहें उन्हें हमारा ज्ञान-यज्ञ एक नई दिशा देगा।

3. शिक्षा-पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन करने की जिस प्रयोगात्मक प्रक्रिया का मथुरा में जून से शुभारंभ होने जा रहा है, उसके द्वारा हजारों ऐसे प्रबुद्ध व्यक्तियों कुछ ही दिनों में विनिर्मित होंगे जो अपनी निजी समस्याओं को ही नहीं सुलझाये वरन् देश और समाज की समस्याओं का हल करने वाले युग-निर्माताओं की कमी भी पूर्ण कर सकें।

4. जन्म-दिनों की प्रेरणा सज्जनों को संगठित करेगी और उन्हें जीवन के सर्वोत्तम सदुपयोग का व्यावहारिक मार्गदर्शन करेगी। जीवनों को वास्तविक जीवन बनाने में सहायक होगी।

5. विचार-क्राँति के लिए उपयुक्त भावनापूर्ण प्रेरक साहित्य जन-मानस की दिशा को उस ओर मरोड़कर रख देगा जिधर विश्व-कल्याण की वास्तविक संभावनाएं सन्निहित हैं।

प्रस्तुत पंचसूत्री योजना, मानव जाति के उज्ज्वल भविष्य का सर्वांगीणपूर्ण निर्माण कर सकने वाले साधन उत्पन्न करेगी। उच्चस्तरीय भावनायें जाग पड़ने से आज के निकम्मे प्रतीत होने वाले व्यक्ति ही कल नर-रत्नों और महापुरुषों में परिणत हो जायेंगे। आज जो स्वयं भार बने हुए हैं, कल दूसरों के भारी उत्तरदायित्व अपने कंधों पर वहन करेंगे। उनके प्रयत्नों से ऐसी सत्प्रवृत्तियाँ विनिर्मित, विकसित एवं सफल होंगी जो व्यक्ति और समाज को आज की विपन्न परिस्थितियों को आमूल-चूल परिवर्तन करके सतयुग का स्वर्गीय वातावरण सृजन करें।

नई पीढ़ी में संसार की महान आत्मायें अवतरित होने वाली हैं। वे आत्माएं ‘यदा-यदा हि धर्मस्य---’ वाली प्रतिज्ञा को पूर्ण करेंगी। उनका जन्म होगा ऐसे माता-पिता द्वारा जो स्वयं विचार-व्यवहार की उत्कृष्टता के कारण ऐसी आत्माओं को जन्म देने और पालने-पोसने के लिए उपयुक्त सिद्ध हो सकें। यह प्रयोजन वे ही दम्पत्ति एवं परिवार पूरा करेंगे जो उक्त पंचसूत्री कार्यक्रम अपनाकर पहुँच और आदर्शपूर्ण वातावरण उत्पन्न कर सकें।

भावनात्मक निर्माण की-युग-निर्माण की प्रथम पंचवर्षीय योजना का प्रथम वर्षीय कार्यक्रम सरल एवं छोटा होते हुए भी महान है। इसे सफल बनाने में योगदान देकर हमें अपना युग-धर्म पालन करना ही चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: