शक्ति के स्रोत-आत्मा को मानिए

May 1965

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हमारे पुरखे ज्ञान-विज्ञान में आज के वैज्ञानिकों की अपेक्षा कहीं अधिक प्रवीण थे, किन्तु वे समझते थे विज्ञान अन्ततोगत्वा मनुष्य की वृत्तियों को पाशविक, भोगवादी ही बनाता है, अतः उन्होंने धर्म और अध्यात्म पर आधारित जीवन की रचना की थी। इस जीवन में प्राण था, शक्ति थी, समुन्नति थी और वह सब कुछ था जिससे मनुष्य का जीवन पूर्ण सुखी, स्वस्थ और सन्तुष्ट कहा जा सकता है।

आत्मा को ही सब कुछ मानकर अनित्य शरीर के प्रति वैराग्यमूलक मनोवृत्ति धारण कर लेने की शिक्षा देना हमारा उद्देश्य भले ही न हो, किन्तु भौतिक सुख और इन्द्रियों की पराधीनता भी मनुष्य जीवन के लिए नितान्त उपयोगी नहीं कहे जा सकते। आत्म-ज्ञान की आवश्यकता इसलिए है कि उससे साँसारिक विषयों में स्वामित्व और नियंत्रण की शक्ति आती है। भौतिक सुखों की रथ के उन घोड़ों से तुलना की जा सकती है, जिनमें यदि आत्म-ज्ञान की लगाम न लगी हो तो वे सवार समेत रथ को किसी विनाश के गड्ढे में ही ले जा पटकेंगे। जगत की सत्ता से विच्छिन्न मनुष्य की सत्ता व्यक्ति-परिच्छिन्न मात्र नहीं है, वह केवल व्यष्टि ही नहीं, वरन् समष्टि भी है, उसमें अनन्त, सत्य शिव और सौंदर्य समाहित है, उसे जाने बिना मनुष्य के बाह्यान्तरिक कोई भी प्रयोजन पूरे नहीं होते। आत्म-ज्ञान इसलिए मनुष्य जीवन का प्रमुख लक्ष्य है।

शरीर के सम्पूर्ण अंग-प्रत्यंगों की स्थूल जानकारी, पदार्थ और उसके गुण-भेद की जानकारी ग्रह-नक्षत्रों से सम्बन्धित गणित और उनके वैज्ञानिक तथ्य जानने से मनुष्य की सुविधायें भले ही बढ़ गई हों, पर उसने अपने आप का ज्ञान प्राप्त नहीं किया यही दुःख का प्रधान कारण है। मनुष्य शरीर ही नहीं, वरन् परिस्थितियाँ बताती हैं कि वह कुछ अन्य वस्तु भी है, आत्मा है। इस आत्मा या “अहंभाव” का ज्ञान प्राप्त किये बिना दुनिया का सारा ज्ञान-विज्ञान अधूरा है। बिना इंजन लगी हुई मोटर की तरह वह ज्ञान किसी तरह का लाभ नहीं दे सकता है।

आत्मा शक्ति का अनादि स्रोत हैं। शौर्य, प्रेम और पौरुष की अनन्त शक्ति उसमें भरी हुई है, अतः आत्म-ज्ञान में लगाये हुए समय, श्रम और साधनों को निरर्थक नहीं बताया जा सकता। आत्म-शक्ति को पाकर मनुष्य के सारे अभाव, दुःख-दारिद्रय, साँसारिक आधि-व्याधियाँ, समाप्त हो जाती हैं। भगवान कृष्ण ने आत्म-ज्ञानी पुरुष को ही सच्चा बताते हुये कहा है-

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्।

विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञान चक्षुषः॥

(गीता 15। 10)

अर्थात्-हे अर्जुन! उस आत्मा को शरीर छोड़कर जाते हुए, शरीर में स्थित हुए, विषयों को भोगते हुए अथवा तीनों गुणों से युक्त हुये भी अज्ञानी लोग नहीं जानते। उस तत्व रूप आत्मा को केवल ज्ञानी ही जानते हैं।

मनुष्य शरीर नहीं वरन् वह शरीर का संचालक है। वह मन भी नहीं क्योंकि मन को प्रेरणा देकर, आदेश, देकर किसी भी अच्छे बुरे कर्म में लगाया जाता है। सत्-असत् का ज्ञान देने वाली बुद्धि को भी आत्मा कैसे मानें? विश्लेषण करने पर पता चलता है यह शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि पंचभूतों के सत-रज-तम अंश को लेकर बने हैं। पंच-भूत जड़ पदार्थ हैं, अतः आत्मा इनमें भी विलक्षण और शक्तिवान है। वह संचालक है, सूक्ष्मतम है और शक्ति का उत्पादक है, अजर-अमर सर्वव्यापी तत्व है। जो इस तत्व को जानता है उसके सारे दुःख मिट जाते हैं।

मानव-जगत का अधिकाँश भाग इस कारण अधोगति को प्राप्त हो रहा है कि उसे जो कार्य सम्पादन करना चाहिए, वह नहीं करता। सबसे बड़े दुःख की बात तो यही है कि पूर्ण परिपक्व और बुद्धिमान होकर भी उस मार्ग का अनुसरण नहीं करते, जो कल्याणकारी है और जो जीवन में सुख की वृद्धि कर सकता है। थोड़े से मोह के चक्र में फँसकर नासमझ लोग अयोग्य कार्यों की ओर प्रेरित होते हैं और उन्हें ही सुख का मूल समझकर अपने भीतर सिमटी, दुबकी हुई जो आत्मा बैठी है उसे भूल जाते हैं। इसी ऐश्वर्य और भोग में जीवन की इतिश्री कर देते हैं। कभी गहराई में उतरकर आत्म-तत्व पर विचार नहीं करते। मनुष्य की इस विडम्बना को, इस मूढ़ता को क्या कहें जो बड़ा ज्ञानी होने का दावा करता है पर जानता खुद को भी नहीं है।

साराँश यह है कि जड़ पदार्थों के सम्बन्ध में आज लोगों ने खूब उन्नति की है, वहाँ चेतन पदार्थों के सम्बन्ध में वह अभी प्रारम्भिक अवस्था में ही है। विज्ञान ने भौतिक एवं मानसिक जगत को रूपांतरित कर दिया है, इसका प्रभाव मनुष्य पर गम्भीर रूप से पड़ा है, क्योंकि आज जो भी कार्यक्रम बनाये जा रहे हैं, उनमें मनुष्य की मूल प्रकृति पर विचार नहीं किया जाता। यही कारण है कि भौतिक विज्ञान तथा रसायन शास्त्र ने परम्परागत जीवन प्रणाली में विक्षिप्त रूप से परिवर्तन ला दिया है। मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति की कसौटी पर ही विषयों का चयन किया जाता तो अधिक बुद्धिमत्ता रहती। आत्मज्ञान ही वह प्रक्रिया है जिससे इस समस्या का हल निकाला जा सकता है।

बाहर की वस्तुओं का ही अवलोकन न कीजिए, यह भी सोचिए कि शरीर के भीतर कैसी विचित्र हलचल चल रही है। आहार पेट में जाता है, फिर न जाने कैसे वह रस, रक्त, माँस, अस्थि आदि सप्त धातुओं में परिणत हो जाता है। कितनी हानिकारक वस्तुओं का भक्षण करते हुये मनुष्य जीवित रहता है। वह कौन-सा विलक्षण अमृततत्त्व है जो शरीर जैसी महत्वपूर्ण मशीनरी को चला रहा है। आप इसे जान जायेंगे तो सारे संसार को जान जायेंगे। उस आत्मा में ही यह सम्पूर्ण विश्व व्यवस्थित हैं। ब्रह्मोपनिषद् के छठवें अध्याय में शास्त्रकार ने बताया हैं-

आत्मनोऽन्या गतिर्नास्ति सर्वमात्ममयं जगत्। आत्मनोऽन्यन्नहि क्वापि आत्मनोऽन्यतृणं न हि॥

अर्थात्-”आत्मा से भिन्न गति नहीं है, सब जगत् आत्मामय है, आत्मा से विलग कुछ भी नहीं है, आत्मा से भिन्न एक तिनका भी नहीं है।”

विश्व-व्यापी चैतन्य अनादि तत्व आत्मा को जाने बिना मनुष्य को शान्ति और स्थिरता की उपलब्धि नहीं हो सकती। सफल जीवन जीने के अभिलाषी को इस पर बार-बार विचार करना चाहिए। प्राचीन धर्म ग्रन्थ, सृष्टि और अध्यात्म की खोज करनी चाहिए। अपने आपको पहचानने के लिए अपनी आत्मा, मनोवृत्तियाँ, स्वभाव तथा विचारों का निरीक्षण करना चाहिए। आत्म-भाव जागृत करने के लिए सुन्दर पुस्तकों का स्वाध्याय करना चाहिए।

आत्मा के साथ जन्म-मरण, सुख-दुःख, भोग-रोग आदि की जो अनेक विलक्षणतायें विद्यमान हैं, वह मनुष्य को यह सोचने के लिए विवश करती हैं कि खा-पीकर, इन्द्रियों के भोग भोगकर दिन पूरे कर लेना मात्र जिन्दगी का उद्देश्य नहीं है। रूप और शारीरिक सौंदर्य की झिलमिली में शरीर और प्राण के अनुपम संयोग की स्थिति को दूषित किया जाना किसी भी तरह भला नहीं है। यह अमूल्य मानव जीवन पाकर भी यदि आत्म-कल्याण न किया जा सकता तो न जाने कितने वर्षों तक फिर अनेकों कष्ट-साध्य योनियों में भटकना पड़ेगा। जिसे ऐसी बुद्धि मिल जाय, उसे अपने आपको परमात्मा का कृपा-पात्र ही समझना चाहिए। आत्म-ज्ञान प्राप्त करने से मनुष्य जीवन धन्य हो जाता है।

मनुष्य दैवी अंश युक्त है। सत्-चित्त आनन्द स्वरूप है। निष्फलता, दुःख, रोग-शोक तो निम्न विचारों, दूषित कल्पनाओं तथा भोगवादी दृष्टिकोण के फलस्वरूप पैदा होते हैं, अन्यथा इन अभावों का इस जीवन से क्या प्रयोजन? अपने अमृतत्व की खोज करने के लिए काम, क्रोध, भय, लोभ, तिरस्कार, शंका तथा द्विविधाओं की कीचड़ से निकलकर हमें सत्य, प्रेम, निश्छलता और पवित्रता का आदर्श अपनाना पड़ेगा। उत्कृष्ट स्वस्थ तथा दिव्य विचारों का वरण करना होगा। आत्मा अत्यन्त विशाल और शक्तिशाली है। उसे प्राप्त करने के लिये, उसमें विलय होने के लिए हमें भी उतना ही निर्मल, हितकारक तथा विस्तृत बनना होगा। जिस दिन ऐसी स्थिति बना लेंगे, उस दिन किसी तरह की कमी महसूस नहीं होगी। सारा जीवन शक्ति और सौंदर्य से भर जायगा। उसे प्राप्त करने पर ही हमारा जीवन सफल होता है। हम अपने भीतर छिपी हुई आत्मा को ढूँढ़ने का प्रयास करें, तो वह सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं, जिसकी तलाश में हमें निरन्तर भटकना और जिसके अभाव में सदा दुःखी रहना पड़ता है।


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