कमी किस बात की है।

May 1965

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यदि आपका दृष्टिकोण बदला हुआ हो तो यह सारी धरती आपकी ही है। आपके लिये यहाँ किसी वस्तु का अभाव क्यों होगा? जो कुछ न्यूनतायें हैं, वह सिर्फ आपकी संकीर्ण मनोवृत्ति के कारण हैं। अपने आप को सीमित बना लेने के कारण मनुष्य बिलकुल छोटा, अधिकारविहीन जान पड़ता है। सब कुछ अपने लिये हो, इस हीनता के भाव ने शेष दुनिया के साथ सम्बन्ध विच्छेद करा दिया है। एकाकीपन-सा है, सूनापन अनुभव कर रहे हैं, कोई प्रसन्नता देने वाला नहीं, कोई प्यार करने वाला नहीं है। आखिर ऐसा क्यों है? क्या विचार किया है अपने इस पर। जरूर कोई कमी होगी अन्यथा एक व्यक्ति के पीछे हजारों को चलते देखा है, एक व्यक्ति की पुकार पर लोगों ने अपना सर्वस्व निछावर कर दिया है। ऐसे व्यक्ति हुये हैं, जिन्हें सारे संसार का प्यार मिला है, जिनके इशारे मात्र से लोगों ने सब कुछ समर्पित कर दिया है।

संसार में कोई भी वस्तु ऐसी दुर्लभ नहीं है जिसे आप प्राप्त न कर सकते हों, पर इसके लिये आपका हृदय परमात्मा जितना विशाल होना चाहिये। आपको अपनी आत्म-स्थिति घुलाकर परमात्मा के साथ तादात्म्य की अवस्था बनाने में देर है। इतना उदार दृष्टिकोण आप का हुआ कि सारी धरती पर आपका अधिकार हुआ। सबको प्यार कीजिये, सब आपके हैं, जी चाहे जहाँ विचरण कीजिये, सारी धरती आपके पिता परमात्मा की है। सबको अपना समझने, सबको पवित्र दृष्टि से देखने, जीव मात्र के प्रति प्रेम और आत्मीयता का व्यवहार करने से आप यह उत्तराधिकार पा सकेंगे। आप जहाँ जायेंगे लोग आपके स्वागत के लिये खड़े होंगे, कमी केवल देवत्व के जागरण की है। उतना कर लें तो सारी धरती आपका घर है, सभी आपके आत्मीयजन हैं।

अपने आप को छोटा, दीन-हीन और तुच्छ समझना निपट नादानी की बात हैं। इससे लाभ तो कुछ मिलता नहीं, छोटा बन कर आत्म-विकास की संभावनाओं को भी चौपट कर डालते हैं। निराश होना अपनी लघुता का प्रतीक हैं। अपनी शक्तियों को छोटा मान निराशा के जंजाल से बचिये, अन्यथा आपका जीवन दुःखी, उदास और खिन्न बनता चला जायगा।

अपनी महान बनने की आकाँक्षा को जगाइये। अपनी विचार-शक्ति का सदुपयोग करना सीखिये और अपनी भावनाओं को इतना ऊँचा उठाने का प्रयत्न कीजिये कि यह सारा संसार आपको एक कुटुम्ब की भाँति दिखाई देने लगे। सभी अपने होंगे तो किसी के साथ अन्याय क्यों करेंगे? असम्मान क्यों प्रदर्शित करेंगे? क्यों आप किसी को पथ-भ्रष्ट करने का प्रयास करेंगे?

सद्गृहस्थ की इच्छा होती है कि परिवार के सभी सदस्य सभ्य, सुशिक्षित, शीलवान, सुसंस्कृत और सुखी हों। इस के लिये वह अपनी शक्तियों को उनके हित के कार्यों में लगाता है। अपनी योग्यताओं का लाभ उन्हें पहुँचाता है। इस उदारता के फलस्वरूप सभी उसका सम्मान करते हैं, उसकी आज्ञाओं का पालन करते हैं। हर सदस्य की इच्छा बनी रहती है कि इनकी कृतज्ञता और उपकारों का बदला किस तरह चुकायें। विश्व कुटुम्ब के परिजनों से भी आपको ऐसी ही सहानुभूति, प्रेम और आत्मीयता मिलती है, इसके लिये केवल अपने दृष्टि कोण को परिष्कृत करने की आवश्यकता है।

मनुष्य को इन भावनाओं का दमन करते देखते हैं तो बड़ा दुःख होता है। परमात्मा से प्राप्त शक्तियों पर लोग विश्वास न करें, तो यह अपराध ही माना जायगा। आप सबको अपना समझेंगे, सबके हित में अपना हित समझेंगे, तो आप लुट जायेंगे, आपकी सुख-सुविधायें छिन जायेंगी, यह सोचने की भूल न करें तो अच्छा हो। छोटे से घर में आत्मीयता के विस्तार से लोगों को इतना सुख मिलता है तो महत-विश्व के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ने से आपको कितना आनन्द मिल सकता है, इसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते। अब आप हीनता के आत्म घाती विचारों का परित्याग कर दीजिये और अपनी महानता की आकाँक्षाओं को मूर्त रूप देने का अभ्यास करिये सचमुच आपको असीम तृप्ति का अनुभव होगा।

परोपकार मनुष्य की सबसे बड़ी योग्यता हैं। श्रेष्ठ योग्यता के लिये बड़े अधिकार दिये जाना इस संसार का दैवीय विधान है। कलक्टर की अपेक्षा राज्यपाल के अधिकार अधिक हैं, क्योंकि उस पर कर्त्तव्य पालन की जिम्मेदारियाँ अधिक हैं। इस पर उसे सम्मान और पारिश्रमिक भी अधिक मिलता है। ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति के किये सत्कर्म करने वालों को परमात्मा भी अधिक अधिकार दे, तो इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है। हृदय की विशालता, दैवी प्रतिभा, बुद्धि की सूक्ष्मता और भावनाओं की उच्चतम स्थिति से प्राप्त आनन्द परोपकार के पारमार्थिक कर्त्तव्यों के पारिश्रमिक स्वरूप मिलता हैं। इस सुख का मूल्य किसी भी भौतिक सुख से बढ़कर है। आत्मा की इस कक्षा में प्रवेश पाने का अधिकार सभी को है।

कमजोरी और कायरता का कारण लोगों में सही दृष्टिकोण का अभाव है। मनुष्य शरीर के अभिमान में पड़कर आत्मा के वास्तविक स्वरूप को भूल जाने के कारण ही व्यवहार में इतना संकीर्ण हो रहा है। जाति-पाँति, भाषा-भाव के भेद के कारण हमने पारस्परिक विलगाव पैदा कर लिया है, इसी से हम छोटे हैं, हमारी शक्तियाँ अल्प हैं। किन्तु जब आत्म-ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं तो संसार का स्वरूप ही बदल जाता है। भेदभाव की नासमझी निजत्व के ज्ञान के प्रकाश में मिट जाती हैं। सब अपने ही समान, अपने ही भाई और एक ही परमात्मा के अंश होंगे तो फिर किसी के साथ धृष्टता करने का साहस किस तरह पैदा होगा। इस आत्म-तत्व का जागरण ही इसलिये हमारी मूल आवश्यकता है।

पूर्णता प्राप्त करना परमात्मा का आदेश है। लघुता में जीव को शान्ति नहीं मिलती। आत्म-तत्व पर अधिकार प्राप्त किये बिना संतोष नहीं मिलता। जब तक एक भी व्यक्ति दुःखी दिखाई देता है, तब तक सुख नहीं मिलता, किन्तु जिस क्षण सब के दुःखों में हाथ बँटाने लगते हैं, गर्व से छाती फुलाकर कहते हैं कि जन-जन पर हमारा अधिकार है, मैं सबकी सेवा करूंगा, तो एक अनिर्वचनीय आनन्द की अनुभूति होने लगती है। जीव की क्षुद्रता मिटने लगती है और वह पूर्णता की ओर तेजी से अग्रसर होने लगता है। यह अभ्यास हमारे जीवन का भी अंग होना चाहिए।

यह संकल्प जितना बलवान बनेगा आत्म- शक्तियाँ उतना ही बढ़ेंगी, निराशा, निरुत्साह और अनुदारता के क्षय-कारक विचार कम होंगे। एक ओर आत्म-तत्व की जागृति और दूसरी ओर अपवित्रताओं का विस्तार-इससे आपकी श्रेष्ठता बढ़ती चली जायेगी। आप हर दूसरे क्षण एक नई प्रेरणा, नई जागृति और नई शक्ति अनुभव करेंगे।

जो काम अपने हाथ में लो उसी में सब के हित का भाव ढूंढ़ते रहो। जहाँ भी दूसरे की भलाई की आवश्यकता समझ में आये, अपना कंधा लगाकर सहयोग और सहानुभूति प्रकट करो। संसार आपकी भलाई भूल नहीं सकेगा। सभी आपको आदर की, प्यार की दृष्टि से देखेंगे। आप अपने हृदय में विश्वात्मा को स्थापित करके तो देखिये।

बीज विकसित होता हैं तो वृक्ष के रूप में दिखाई देता है। वृक्ष की विशालता प्राप्त करने का श्रेय बीज को तब मिलता है जब वह अपनी क्षुद्रता ओर अहंता को मिटाकर फूल-पत्तियों में फूट पड़ता है। मनुष्य अपनी लघुता को विश्व हित में समर्पित करने का अभ्यास बना ले तो वृक्ष के समान ही पूर्णता प्राप्त करने का गौरव उसे मिलता है। वह स्थिति बड़ी ही सुखद होती है, जब इस विश्व के कण-कण में अपना अधिकार होता है किसी बात की कमी नहीं रह जाती, सब कुछ अपना हो जाता है। यह पूर्णता प्राप्त हो तो इस मनुष्य देह की सार्थकता है। सामान्य जीवन जीना भी कोई मुश्किल बात हैं! पूर्णता तो असाधारण बनने में है, इसी का अभ्यास करना मनुष्य मात्र का धर्म है।


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