गुणेषु क्रियताँ यत्न

May 1965

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

यह सृष्टि गुण-अवगुण-दोनों के समन्वय से बनी है। यहाँ अच्छाई भी है, बुराई भी। अच्छाइयों की महत्ता प्रतिपादित करने के लिए ही संभवतः बुराइयों का जन्म हुआ होगा, पर एक बात निश्चित है कि अवगुणों का परिणाम दुःख है और गुण-विकास से सुख-सुविधायें बढ़ती हैं। इसलिए चतुर जन सदैव गुणों को ही देखते हैं, गुण ही ग्रहण करते हैं।

प्रत्येक मनुष्य के अन्दर महान् मानसिक शक्तियाँ छिपी हैं। इन शक्तियों का सदुपयोग नहीं होता, इसी से मनुष्य दीन और दुःखी रहता है। दुर्विचार के कारण इन शक्तियों का ह्रास होता है। सदुपयोग करने पर जो शक्ति हमारा तथा दूसरों का भारी काम कर सकती है, वह गुण-ग्राहकता से उद्दीप्त होती है। अनिष्टकारक विचारों तथा दूसरों के दोष ढूँढ़ते रहने से उसी शक्ति का दुरुपयोग होता है और अनेकों कष्ट बढ़ जाते हैं। स्वस्थ-चित्त हो कर विचार किया जाय तो ‘पर दोष दर्शन’ से अपने को कुछ भी लाभ नहीं होता, पर गुण-ग्रहण से लाभ ही लाभ है। फिर जिस वस्तु से अपना लाभ न हो, मानसिक शक्तियाँ नष्ट होती हों, उसे क्यों अपनाया जाय?

अपने शास्त्र भी यही निर्देश देते हैं-

गुणेषु क्रियताँ यत्नः किमाटोपैः प्रयोजनम्।

विक्रायन्ते न घण्टा भिर्गावः क्षीर विवर्जिताः॥

अर्थात्-आप तो गुण-ग्रहण में ही यत्न करिये। बाह्याडम्बर में क्या रखा है। बिना दूध की गाय को सुन्दर घण्टा बाँध देने पर भी उसको कोई नहीं खरीदता, क्योंकि उसका मूल्य तो दूध पर निर्भर है।

इसी तरह प्रत्येक मनुष्य से हमें वही गुण ही खरीदने चाहिए। बाहरी टीपटाप दिखावट और वाचालता से क्या लाभ? इनसे कोई सम्मान तो मिलता नहीं। सम्मान तो गुणों का ही किया जाता है, अतः गुण ढूंढ़ें और गुणों को ही अपने जीवन में धारण करने का यत्न करें।

कौरवों तथा पाण्डवों में युधिष्ठिर को सर्वाधिक सम्मान मिला है। वे सभी के विश्वास-पात्र थे। इसका कारण उनका निजी जीवन में गुण-विकास ही था। महा भारत में उन्होंने स्वयं कहा है-

सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मों भ्राता दया सखा।

शान्तिः पत्नी क्षमा पुत्रः पड़ेते मम बन्धिया॥

अर्थात्-मेरी दृष्टि में मेरे सगे-सम्बन्धों ये छः हैं- सत्य मेरी माता है, ज्ञान मेरा पिता है, धर्म मेरा भाई, दया मित्र और शान्ति मेरी पत्नी हैं, क्षमा मेरा पुत्र है। इन शब्दों में राजन ने यह स्वीकार किया है कि गुण ही मनुष्य के सच्चे हितैषी हैं। समय पर गुण ही काम आते हैं। गुणों का महत्व परिवार से भी अधिक हैं। सद्गुण जिसकी सम्पत्ति है, वह कहीं भी, किसी भी स्थान में बाधित नहीं हो सकता। गुण ही उसकी सेवा के लिए सदैव तैयार रहेंगे।

शास्त्र का निर्णित सत्य है तथा संतत उपदेश हैं- “महानिति भावयन् महान् भवति” जो मनुष्य महान होने की भावना किया करता है वह एक दिन अवश्यमेव महान् बन जाता है। गुण-ग्राहकता के उन्नत विचार उसे प्रत्येक क्षण ऊपर उठने की प्रेरणा देते रहते हैं, जिससे वे अपनो कार्य के साधन में दुगुने जोश से लगे रहते हैं। शुभ विचारों को टटोल-टटोल कर ढूँढ़ने और उन्हें जीवन में जमा करने की जरूरत है।

गुण-ग्राहकता एक विशेष भावना है। यदि सभी विचारों को अलग करके मनुष्य इसी में ध्यानपूर्वक अपनी मनः शक्ति को केन्द्रित कर दे और प्रतिदिन अपनी भावना को दृढ़ करता रहे, तो वह सद्गुणों का दृश्यमान पुतला बन जाता है। उसकी मानसिक शक्तियाँ बढ़ जाती हैं, बैर घट जाता है, पराये अपने हो जाते हैं, दुख मिटते और सुख बढ़ने लगते हैं।

महात्माओं के ध्यान का लाभ यथार्थ में उनके गुणों के मनन, चिन्तन तथा जीवन में धारण करने से मिलता है। ‘हनुमान-चालीसा’ पढ़ने से शायद उतना लाभ नहीं मिले, किन्तु जो बजरंगी की तरह संयमित जीवन, कठोर परिश्रम, मोटा-झोटा खाना, उसी में मस्त रहना सीख जाता है, वह हनुमान स्तोत्र का पाठ न करे, तो भी स्वस्थ, बलिष्ठ हो जाता है।

ध्यान के लाभ में जो शर्त लगी है, वह है गुण-विकास। परमात्मा की उपासना न करे और प्राणियों को दुःख दे, स्वार्थपरता का बर्ताव करे, छल कपट रखे, विषयों में भटकता रहे तो कितना ही “षोडश अक्षर मन्त्र” का जप क्यों न किया जाय, परमात्मा का प्रकाश मिलना कठिन है। उपासना का मूल हैं-गुण-विकास। ऐच्छिक-लाभ प्राप्त करने का मूल हैं-गुण-विकास। गुण-विकास ही सम्पूर्ण सुखों का जनक है।

चार्ल्स श्वेव का कथन है “मनुष्य के भीतर जो कुछ सर्वोत्तम है, उसका विकास, गुण-ग्राहकता एवं प्रोत्साहन द्वारा ही किया जा सकता है।” डेलकारनेगी ने वहीं परिभाषा भी कर दी है। उन्होंने लिखा है “गुण-ग्राहकता और चापलूसी में अन्तर हैं। गुण-ग्रहण जीवन का सच्चा ध्येय है, चापलूसी झूठा। गुण-ग्राहकता हृदय से निकलती है, चापलूसी दाँतों से। प्रथम निस्वार्थ एवं आत्म-कल्याण के लिए है, दूसरी स्वार्थ, छल और कपट के लिए। एक प्रशंसनीय है, दूसरी निन्दनीय।”

विशेषताओं तथा श्रेष्ठता कुछ न कुछ हर व्यक्ति में होती है। हमें चाहिए कि किसी से मिलते समय अपनी नजर उसकी भलाइयों में ही दौड़ायें और जो कुछ अच्छाई दिखाई दे, शिक्षा मिले उसे चुपचाप ग्रहण कर लें।

मनुष्य कितना ही तप करे, सत्संग करे, शास्त्रों का स्वाध्याय करे, विविध कष्ट सहे, किन्तु यदि वह गुणानुरागी नहीं बनता, तो उसकी सारी तपश्चर्या व्यर्थ है। दूसरों के सद्गुण देख कर प्रसन्न होना, आत्म-कल्याण की दृष्टि से ऐसा ही है जैसा कोई पनघट से भी प्यासा लौट जाय। मनुष्य के सारे मोक्ष प्राप्ति के साधन बेकार ही सिद्ध होंगे यदि उसने सद्गुणों का अपने जीवन में विकास नहीं किया। जैन धर्म की प्रसिद्ध पुस्तक “गुणानुराग कुलक” में लिखा है-’जिस पुरुष के हृदय में उत्तम गुणों से प्रेम रहता है, उसे परमात्मा की प्राप्ति दुर्लभ नहीं है, अपितु सुलभ है। गुणानुरागी पुरुष धन्य हैं, उसे कृतपुण्य समझना चाहिए।” गुण-निष्ठा की चरम कसौटी को ही एक प्रकार से सिद्धि समझनी चाहिए फिर उसका विषय चाहे जो कुछ हो।

मनुष्य का अधिकाँश जीवन किसी न किसी से अनुकरण किया हुआ ही होता है। जिन व्यक्तियों के समीप रहना होता है, उन्हीं के गुण-दोष ग्रहण करते रहते हैं। मौलिक प्रतिभायें मनुष्य में बहुत कम होती हैं। गुण-दोष में जिसका अभ्यास मनुष्य करता है, वही परिपक्व हो कर मनुष्य का स्वभाव बन जाता है। दुष्ट आशय से ग्रहण किए हुए पराए दोष-आत्मा को निरर्थक पाप-बन्धनों में बाँधते हैं और सम्पूर्ण मनुष्य-जीवन के सुख छीन कर उसे अनेक यातनाओं में ढकेल देते हैं।

अतः भूल कर भी कभी किसी से ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए। उसके जो दोष हैं आप चाहें तो उनका सुधार करने का प्रयत्न भले ही करे, किन्तु ऐसा न करें कि स्वयं भी उन दुष्कर्मों में लिप्त होकर अपना जीवन बर्बाद कर डालें। द्वेष पूर्ण जीवन कई गुणों के होने पर भी व्यर्थ है, अशोभनीय है।

आत्म-कल्याण के लिए अग्रसर होने वाले साधकों के लिए गुणानुराग ही गौरव का मार्ग है। निन्दा का त्याग, सज्जनों की प्रशंसा, नम्रता, विनयशीलता, मैत्री, करुणा जैसे दिव्य भाव जिसके हृदय में होंगे, उसे सम्मान की भरमना करने से क्या प्रयोजन? शास्त्रकार का कथन है-

गुणैरुत्तुँगताँ याति नोच्चैरासन संस्थितः।

प्रासाद शिखरस्थोऽपि काकः किं गरुडायते॥

अर्थात्- उच्चासन पर बैठने से ही कोई गौरव का अधिकारी नहीं बन जाता। गौरव तो गुण से मिलता है। कौवा यदि महल के शिखर पर बैठ जाय तो भी वह गरुड़ के सम्मान को नहीं प्राप्त कर सकता।

हम जबकि श्रेय मार्ग पर चले हैं तो हमारे लिए यही उचित है कि कभी किसी पर द्वेष भाव न लायें, दुष्टता से उदासीन एवं उपेक्षा भाव ही रखें। हम गुणानुरागी बन कर सन्मार्ग-गामी हों ताकि मनुष्य जीवन का सच्चा सदुपयोग करते हुए परमात्मा के घर जाने का सौभाग्य प्राप्त कर सकें।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118