युग-निर्माण आन्दोलन की प्रगति

May 1965

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जना करती हैं जिस दिन के लिए सन्तान सिंहनियाँ-

मेरे शेरों से कह देना कि-”वह दिन आ गया, बेटा।”

राष्ट्र आज जिन परिस्थितियों में जकड़ा हुआ है, उससे छुटकारा पाने के लिए उसकी अन्तरात्मा तड़प रही है। हम जिन शारीरिक, मानसिक, आर्थिक सामाजिक, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय विपन्नताओं में फँसे हुए हैं, उनसे मुक्ति पाने की तड़पन तेजी से बढ़ती चली जा रही है।

हमारी दुर्दशा और दुर्गति-

अस्वस्थता और दुर्बलता जन-जन के शरीरों में घुसी हुई उन्हें खोखला बनाती चल रही है। अस्पतालों, औषधियों और चिकित्सकों की तूफानी बाढ़ के बावजूद रोग बढ़ ही रहे हैं, घटे नहीं। कठोर श्रम करने पर भी, नीति-अनीति की उपेक्षा करके भी हम अर्थ चिन्ता से छुटकारा पा नहीं रहे हैं। आमदनी की न्यूनता और खर्चों की बढ़ोतरी के बीच तालमेल बिठाना दिन-दिन कठिन होता चला जा रहा है। उत्पादन के विविध प्रयत्नों पर भरसक ध्यान देते हुए भी गरीबी में कमी नहीं आ रही है। बेकारी और बुभुक्षा का मुँह सुरसा के मुँह की तरह अधिक ही फटता चलता है।

लम्बी अवधि बीत जाने पर भी शिक्षा प्रसार की सफलता बीस प्रतिशत के लगभग पहुँच पाई है। सौ में से 80 व्यक्ति निरक्षर हैं। मानसिक विकास की दृष्टि से प्रबुद्ध लोगों की गणना-एक प्रतिशत भी न होगी, फिर जिनने अपना व्यक्तित्व विकसित करने में सफलता पाई हो गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से अपने को परिष्कृत किया हो, ऐसे नर रत्नों को तो मशाल लेकर ही खोजना पड़ेगा। वस्तुतः स्थिति यह है कि व्यसनी, दुर्गुणी, आलसी, अहंकारी, अर्ध विक्षिप्त, भीरु, संकीर्ण एवं मनोविकार पीड़ित लोगों से ही सारा समाज भरा पड़ा है। क्या पढ़े, क्या बिना पढ़े इस दृष्टि से दोनों को ही एक तराजू में तो जा सकता है। सुसंस्कृत व्यक्तित्वों से विहीन राष्ट्र वस्तुतः गया गुजरा ही माना जाता है।

सामाजिक दृष्टि से हमारी स्थिति समस्त विश्व में उपहासास्पद हैं। प्राचीनकाल में हम कितने ही महान क्यों न रहे हों, आज तो चिन्ताजनक स्थिति में जा पहुँचे हैं। कुरीतियों और अन्धविश्वासों ने संसार के पिछड़े लोगों की पंक्ति में लेजाकर बिठा दिया है। एक ही देश, भाषा समाज एवं धर्म के लोग आपस में छूने तक के लिए तैयार न हों, इस घृणा का उदाहरण सारी पृथ्वी पर कहाँ मिलेगा। विवाह-शादियों के नाम पर अपनी आमदनी का एक तिहाई भाग उन्मादियों की तरह होली फूँक कर त्याग कर दें, ऐसे पागल आदमी हिन्दुस्तान के अतिरिक्त और कहीं न मिलेंगे। घर के लोगों के मर जाने पर है हजारों आदमियों की दावतों का सरंजाम करने वाले लोग या तो जीवनमुक्त, परमहंस, ब्रह्मज्ञानी कहलाने के अधिकारी हैं या फिर भावना रहित जड़ पाषाण। आत्मा को शान्ति एवं ज्योति प्रदान करने के उद्देश्य से विद्यमान देवता की पूजा जो लोग, निरीह पशु-पक्षियों की बलि देकर करने लगे उनकी पूजा को वीभत्स और पूज्य को नृशंस यही कोई बताने लगे तो उसे किस मुँह से रोका जा सकता हैं। अन्धविश्वासों के आधार पर जहाँ लाखों-करोड़ों लोग भ्रान्त की तरह अपनी आर्थिक, मानसिक, चारित्र्यक, नैतिक बर्बादी करते हों, उन्हें कौन सम्मान की दृष्टि से देखेगा?

किसी समय समस्त विश्व में अपनी विशेषता एवं महानता की विजय पताका लहराने वाली संस्कृति आज धर्मध्वजी रंगे सियारों की लूट-खसोट का आधार मात्र बन कर रह गई है। विविध विधि आडम्बरों द्वारा भोले लोगों को बहकाकर उनका समय और धन बर्बाद करना, यही आज के हमारे धर्म का स्वरूप हैं। संस्कृति के नाम पर चौका-चूल्हा, तिलक-छाप और ऐसे ही कुछ अन्य प्रतीक हाथ में रह गये हैं। परस्पर विलगाव, संकीर्णता और फूट ने जाति पाँति के नाम पर एक जाति को हजारों जातियों में बाँट दिया। अपने धर्म एवं दर्शन के नीचे समस्त विश्व को दीक्षित करने के प्रयत्न में लाखों वर्षों से संलग्न जीवित जाति ने जब यह नीति अपनाली कि जिस पर विधर्मी की छाया पड़ जाय उसे बहिष्कृत कर दिया जाय, तो संग्रहणी के रोगी की तरह उसे दिन-दिन क्षीण होना ही ठहरा। एक हजार वर्ष पूर्व केवल पन्द्रह सौ मुसलमान भारत में आये थे, उनकी छाया पड़ने से बहिष्कृत नर-नारियों को हमने धकेल-धकेलकर विधर्मी बनाया। आज भारत और पाकिस्तान में उनकी संख्या 20 करोड़ से ऊपर है।

दुर्भाग्य ने हमें कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया-

जहाँ संसार में अन्य धर्मों ने पिछले एक-दो हजार वर्षों में आशातीत आश्चर्यजनक प्रगति की है, वहाँ हिन्दू धर्म बेतरह क्षीण हुआ है। आज से 1900 वर्ष पूर्व जन्में ईसाई धर्मानुयायियों की संख्या 3 अरब की आबादी वाली इस पृथ्वी पर लगभग एक अरब के करीब जा पहुँची। तेरह सौ वर्ष पूर्व जन्मा इस्लाम आज संसार में 50 करोड़ लोगों का धर्म है। दो हजार वर्ष पूर्व बने बौद्ध धर्मानुयायी भी 40 करोड़ हैं और हिन्दू धर्म जो किसी समय समस्त विश्व का धर्म था, अब सबसे पिछड़ा, केवल मात्र 34 करोड़ लोगों का धर्म रह गया है। जो बचा है, उसे ईसाई तेजी से हड़पे जा रहे हैं। पिछड़ी हुई जातियाँ जिस तेजी से ईसाई बन रही हैं, उसे देखते हुए लगता है कि नागालैण्ड जैसे ‘ईसाई-स्थान’ भी जगह-जगह बनाने पड़ेंगे और हिन्दू जाति दस-बीस करोड़ की एक छोटी-सी मृत प्रायः जाति रह जायगी।

राजनैतिक दृष्टि में भी हमारी स्थिति कुछ अच्छी नहीं। चीन और पाकिस्तान के खूँखार दाँत दिन-दिन अधिक बाहर निकलते चले आ रहे हैं। योजनाओं के नाम पर लिया हुआ कर्ज एक प्रकार से भारत को गिरवी रखने जैसा चिन्ता का विषय बनता जा रहा है। पंचमार्गी, देशद्रोही भीतर ही भीतर गर्भस्थ बिच्छुओं द्वारा अपनी माँ का पेट खाकर बाहर निकलने की नीति अपना रहे हैं। वे शत्रुओं के इशारे पर अपने राष्ट्र का कोई भी अहित करने में चूकने वाले नहीं है। भाषाओं के नाम पर, जातियों के नाम पर, प्रान्तवाद के नाम पर विगठनवादी शक्तियाँ राष्ट्रीय एकता में पलीता लगाने के लिए जुटी हुई हैं। भ्रष्टाचार किस सीमा तक जा पहुँचा है, इसके बारे में कुछ न कहना ही उत्तम है। शासक दल की आन्तरिक फूट उसे दिन-दिन लुञ्ज-पुञ्ज बनाती जा रही है और दुर्भाग्य यह है कि उसे सचेत रखने या सुधारने में समर्थ अन्य कोई मजबूत विरोधी दल भी बन नहीं पा रहा है। इस प्रकार की अनेकों राष्ट्रीय दुर्बलताएँ मौजूद हैं, जिनने हमारे भविष्य की उज्ज्वल आशा को ग्रहण की तरह ग्रस्त कर रखा है। अन्तर्राष्ट्रीय जगत में हम अपनी साख तेजी से खोते चले जा रहे हैं।

यों स्वतन्त्रता मिलने के बाद पिछले 17 वर्षों में प्रगति के नाम पर बहुत कुछ किया गया है। उसका कुछ न कुछ सत्परिणाम भी हुआ है। जहाँ-तहाँ कृषि, उद्योग, सिंचाई, बिजली, सड़क, अस्पताल, स्कूल जैसी प्रवृत्तियाँ बनी और बढ़ी भी हैं, पर उनके द्वारा राष्ट्र की समग्र चेतना, सशक्तता, समृद्धि, एकता एवं उत्कृष्टता की अभिवृद्धि में कितना योग दान मिला है, इस प्रश्न पर जब विचार करते हैं तो प्रस्तुत प्रयत्नों का परिणाम नगण्य आँका जाने लायक ही प्रतीत होता है।

उत्कृष्ट व्यक्तियों से राष्ट्र को सशक्तता-

किसी राष्ट्र की सशक्तता उसके अर्थ साधनों एवं टीम-टिमाकों से नहीं, वरन् उसके मनोबल, चरित्र, देशभक्ति, दूरदर्शिता, एकता, स्वाभिमान जैसे सद्गुणों के आधार पर नापी जा सकती है। जहाँ इन तत्वों का अभाव हो, वहाँ ऊपरी समृद्धि कितनी ही बढ़ी-चढ़ी हो, उसकी तुलना बालू की भीत से ही की जायगी जो जरा-सा आघात लगने पर तहस-नहस हो सकती है। संसार का इतिहास साक्षी है कि प्रबल व्यक्तियों ने स्वल्प-साधनों से आशातीत प्रगति कर दिखाई है और जहाँ ओछे एवं हीन स्तर के लोगों का बाहुल्य रहा है, वहाँ बढ़ी हुई समृद्धि भी टिक नहीं सकी है। इसलिए सुविकसित राष्ट्र का निर्माण करने के लिए इस अनिवार्य तथ्य को ध्यान में रखना पड़ता है कि उसके नागरिक भावनात्मक दृष्टि से सशक्त एवं उत्कृष्ट बनें। इस दिशा में प्रगति हुए बिना और किसी प्रकार सच्ची एवं स्थायी सशक्तता की आशा नहीं जा सकती।

प्रस्तुत अगणित उलझनों का एक मात्र कारण राष्ट्रीय चरित्र का स्तर गिरा हुआ होना है। पेट में कब्ज रहने पर शरीर के अन्य सब अवयव दुर्बल एवं रुग्ण बन जाते हैं, इसी प्रकार आन्तरिक स्तर की निकृष्टता व्यक्ति एवं समाज के सामने अगणित समस्याओं, कठिनाइयों एवं आपत्तियों के रूप में प्रस्तुत होती हैं। पन्द्रह सौ विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा भारत जैसे महाद्वीप पर आठ सौ वर्ष तक नृशंस शासन कर सकना वैसे एक असंभव बात प्रतीत होती है, पर स्तर की दुर्बलता ने उसे भी संभव करके दिखा दिया। यदि हमारा समाज पिछले दिनों भावना, दूरदर्शिता एवं चरित्र की दृष्टि से समर्थ रहा होता, तो आज उसकी स्थिति दूसरी ही होती। एक सौ वर्षों के भीतर अमेरिका कहाँ से कहाँ जा पहुँचा, रूस को पचास वर्ष भी नहीं हुए, चीन पच्चीस वर्षों के प्रयत्न में हुँकार रहा है। भारत यदि आन्तरिक दुर्बलता से ग्रस्त न रहा होता, तो लाखों वर्षों से संचित अपनी श्रेष्ठता के कारण उसका स्थान विश्व में सर्वोपरि रहा होता। यहाँ और किसी बात की कुछ भी कभी नहीं है। हर वस्तु, हर सुविधा यहाँ प्रचुर मात्रा में मौजूद है। यदि किसी बात की कमी है तो वह केवल एक ही है-भावना, विवेक एवं व्यक्तित्व का अभाव। इसकी पूर्ति जब तक न होगी, तब तक हम उत्थान की दिशा में एक कदम भी न बढ़ सकेंगे। समृद्धि उत्पादनों के प्रयासों को हमारे घटिया व्यक्तित्व भीतर ही भीतर खोखला करते रहेंगे। यदि वे कुछ सफल भी हुए तो दुर्गुणी व्यक्तियों के हाथ में पहुँची हुई समृद्धि जो अनर्थ करती है वही सब कुछ हमें भी भुगतना पड़ेगा।

बीमारियाँ असंयम से पैदा होती हैं। जब तक लोग असंयमी और अस्त-व्यस्त, विलासी बने रहेंगे, तब तक हर व्यक्ति के पीछे एक डॉक्टर नियुक्त कर देने पर भी उसका निरोग रह सकना संभव नहीं। अपव्ययी, आलसी और अव्यवस्थित व्यक्ति बड़ी आमदनी होने पर भी गरीब एवं अभावग्रस्त ही रहेंगे, जब कि व्यवस्थापूर्वक चलने वाले कम आमदनी में भी आनन्द का जीवन व्यतीत करते हैं। भीरु, कायर और अधीर व्यक्ति राई रत्ती जैसी कठिनाई से ही कातर, चिन्ता निमग्न एवं निराश हो बैठते हैं, जब कि साहसी और पुरुषार्थी वैसी छोटी बातों को नगण्य मान कर उसकी परवाह न करते हुए हँसते-खेलते अपने मार्ग पर बढ़ते चले जाते हैं। जिनमें आदर्शवाद के प्रति, ईश्वर एवं धर्म के प्रति निष्ठा हो, उनमें देश भक्ति, लोक सेवा, कर्त्तव्य परायणता, ईमानदारी जैसे गुणों की कमी क्यों रहेगी? वे किसी भी भय या प्रलोभन के सामने अपनी श्रेष्ठता एवं मानवता पर आँच क्यों आने देंगे? जहाँ विवेक एवं औचित्य का आदर होगा, वहाँ न कोई सामाजिक कुरीति ठहर सकेगी और न अन्धविश्वास का पता चलेगा।

अनेक कठिनाइयों का एक मात्र कारण-

भावनात्मक दृष्टि से सशक्त, संगठित एवं राष्ट्रीय सम्मान की रक्षा के लिए मर-मिटने की उमंगों से भरपूर नागरिक जहाँ होते हैं, उस राष्ट्र की ओर किसी बाहरी शत्रु के आक्रमण का साहस नहीं होता, यदि होता है तो उसके दाँत तोड़ दिये जाते हैं। इंग्लैंड जैसे छोटे देश जर्मनी का प्रचंड प्रहार सहना पड़ा, जापान के दुर्भाग्य वश उस पर अमेरिका का आक्रमण थोपा। फिर भी वे परास्त न हुये। चोटें खाकर भी वे फिर तुर्त फुर्त उठ खड़े हुए और अपने अस्तित्व एवं गौरव को यथावत बनाये हुये हैं। यह उनके राष्ट्रीय चरित्र की विशेषता है। यदि वहाँ औद्दे और कमीने लोगों का बाहुल्य रहा होता, तो निश्चय ही उनकी बुरी से बुरी दुर्गति हुई होती। हमारे सामने बाहरी और भीतरी शत्रुओं का संकट उपस्थित है सीमा पर आक्रमण और भीतर ही भीतर गृह युद्ध जैसी अन्तःकलह हमें चिन्तित बनाये हुए है, इसका हल हमारी ज्वलन्त देश भक्ति की भावनाएँ प्रबल हुये बिना और किसी तरह संभव नहीं हो सकता। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में राष्ट्र की प्रतिष्ठा और किसी कारण नहीं केवल भीतरी दुर्बलताओं के कारण गिरी हैं। यदि हम अमरीकी, रूसी, जर्मनी, जापानी, अंग्रेज नागरिकों की तरह देशभक्त और संगठित रहे होते तो अन्य समस्त कमियों के होते, हुये भी विश्व में हमारा भारी सम्मान रहा होता।

खाद्य समस्या, भ्रष्टाचार, महंगाई जैसी समस्याओं का वास्तविक कारण बहुत स्वल्प हैं। हमारे नैतिक स्तर की न्यूनता ने ही इन्हें इतना विकराल बना रखा है। विवाह शादियों के नाम पर होने वाले अपव्यय जैसी कुरीतियों ने आर्थिक दृष्टि से राष्ट्र की कमर तोड़कर रख दी है। यदि लोगों में थोड़ा भी विवेक और थोड़ा भी साहस रहा होता, तो इस पागलपन से वर्षों पहले छुटकारा पा लिया गया होता। 56 लाख पेशेवर धर्मजीवी यदि 30 प्रौढ़ लोगों को एक वर्ष में साक्षर बनाने का व्रत लेकर उठ खड़े होते तो एक वर्ष के अन्दर निरक्षरता की समस्या हल हो गई होती।

अपराधों की संख्या दिन-दिन बढ़ती चला जा रही है। नशेबाजी के आँकड़े देखने से प्रतीत होता है कि शारीरिक, मानसिक और आर्थिक बर्बादी के मार्ग पर हम कितनी तेजी से घुड़दौड़ लगाये हुये हैं। विलासिता, फैशन परस्ती, कामचोरी, हरामखोरी जैसी बुराइयाँ तेजी से बढ़ रही हैं। ईमानदारी और वफादारी की भावनाएँ गिर जाने से एक व्यक्ति दूसरे की दृष्टि में अविश्वस्त बना हुआ है और इसी कारण कोई संगठित साझेदारी के प्रयत्न सफल नहीं हो पा रहें हैं। स्वार्थी, संकीर्ण और ओछे लोगों के सामने जो-जो अड़चने आनी चाहिए, वे सभी आज हमारे सामने उपस्थित हो रही हैं भले ही हम उन्हें शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक राष्ट्रीय कठिनाइयाँ कहें, पर थोड़ा विचार करने पर स्पष्ट हो जाता है कि वस्तुतः यह हमारी भावनात्मक एवं चारित्र्यक दुर्बलताएं ही हैं, जो अनेक नाम रूप धारण कर विविध विभीषिकाओं के रूप में हमें पग-पग पर संत्रस्त करती रहती हैं।

विकास तो हुआ, पर अधूरा-

पिछले दिनों राष्ट्रीय विकास की दृष्टि से सरकारी गैरसरकारी क्षेत्रों में बहुत काम हुआ है। हमें उसका मूल्य कम नहीं आँकना चाहिये। हमारे नेताओं, शासकों ने अपनी बुद्धि के अनुसार कृषि, उद्योग, परिवहन, विद्युत, शिक्षा, चिकित्सा, उत्पादन, न्याय-व्यवस्था आदि की दृष्टि से बहुत कुछ किया है। उनके प्रयत्नों की प्रशंसा की जानी चाहिए। हम उनका मूल्य घटा नहीं रहे, वरन् कह यह रहे हैं कि-भावनात्मक उत्कर्ष की आवश्यकता जब तक पूर्ण न की जायगी, तब तक इस भौतिक प्रगति का कोई वास्तविक लाभ न मिल सकेगा। मनुष्य वस्तुतः आत्मा है। उसकी शक्ति का स्रोत बाहर नहीं भीतर है। भीतरी दृष्टि से निष्प्राण व्यक्ति बाहरी दृष्टि में कितना ही सुसज्जित क्यों न हो, उसकी सुन्दरता एवं उपयोगिता नगण्य ही रहेगी, इसके विपरीत भीतर से सशक्त कोई प्राणवान्, स्वस्थ एवं चैतन्य व्यक्ति बाहर से फटे-टूटे परिधान धारण करने पर भी अपनी महत्ता अक्षुण्य बनाये रहेगा।

आत्मा की तुलना में शरीर का मूल्य स्वल्प है। उसी प्रकार भावनात्मक सशक्तता की तुलना में भौतिक समृद्धि का प्रतिफल तुच्छ है। भौतिक उन्नति के बड़े से बड़े प्रयत्न तब तक नगण्य ही माने जाते रहेंगे, जब तक उनकी अपेक्षा अनेक गुना प्रयास आन्तरिक विकास के लिए न किया जाय। आज हमारी यही सबसे बड़ी भूल है। इसी आवश्यकता का महत्व कम आँक कर हमने कोल्हू के बैल की तरह बहुत श्रम करने के उपरान्त भी कोई बड़ी मंजिल तय करने में सफलता नहीं पाई है। अब समय आ पहुँचा जब कि यह भूल सुधारने के लिये हमें अविलम्ब कटिबद्ध हो जाना चाहिए।

यह एक स्पष्ट तथ्य है कि भावनात्मक परिवर्तन धर्म तन्त्र के माध्यम से ही होना संभव है। भय और आतंक के बल पर अधिनायकवाद द्वारा लोगों को किसी मार्ग पर चलने के लिये विवश किया जा सकता है, पर इस प्रकार भी भावना बदलना संभव नहीं। उत्पीड़न के भय से लोगों के शरीर ही काम करने लगते हैं, मन नहीं बदलता। भीतर छिपा हुआ चोर अवसर पाते ही उभर आता है और दाव लगने पर अधिक जहरीला डंक मारता है। अच्छा तरीका यही है कि आदर्शवाद की उत्कृष्टता से श्रद्धा-धर्म और ईश्वर में सच्ची आस्था उत्पन्न कर जन-साधारण को कर्त्तव्यनिष्ठ, धर्मनिष्ठ, समाजनिष्ठ बनाया जाय। यह कार्य राजनैतिक लोगों का नहीं। उन्हें पग-पग पर कूटनीति अपनानी पड़ती है, फलस्वरूप लोग उन्हें प्रतिभावान तो मानते हैं पर आदर्शवान् नहीं। राजनीति में गान्धी जैसे संत कोई विरले ही होते हैं, शेष तो दिन-रात हेर-फेर चलाने वाले होते हैं, इसलिये वे लोगों में उत्साह तो उत्पन्न कर सकते हैं, पर आस्थाएं विनिर्मित करने में सफल नहीं हो सकते। यह कार्य धर्म तन्त्र का है। धर्म क्षेत्र में कार्य करने वाले, उत्कृष्ट चरित्र एवं आस्थावान व्यक्ति ही अपने चरित्र एवं उदाहरण से जन-साधारण को भावनात्मक प्रगति के लिये प्रेरणा दे सकते हैं। उन्हीं के उपदेशों का कुछ ठोस प्रभाव भी पड़ सकता है।

सामान्य मनुष्यों के कथन की अपेक्षा भगवान या शास्त्रों के द्वारा कहे हुये निर्देश लोगों को अधिक प्रभावित करते हैं, इसलिये सामान्य प्रवचनों की अपेक्षा शास्त्र कथा-यदि ढंग से कही जा सके तो उसका अधिक प्रभाव पड़ता है। प्राचीनकाल में महान तत्ववेत्ता ऋषियों ने मानव अन्तःकरण को उत्कृष्ट बनाने की आवश्यकता का अनुभव किया था और उसके लिये जो सांगोपांग विधि व्यवस्था मानव तत्वों की गहन शोधों के आधार पर बनाई, उसे ही धर्म तन्त्र घोषित किया गया। इसे आज की आडम्बरपूर्ण स्थिति में उपहासास्पद भले ही माना जाता हो, पर वस्तुतः उसका मूल स्वरूप समग्र वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर विनिर्मित है। इसका अवलम्बन लेकर मनुष्य भीतरी दृष्टि से इतना समर्थ एवं सुविकसित हो सकता है कि बाह्य समृद्धि उसके पीछे-पीछे भागी फिरे।

धर्म-तन्त्र और उसकी सामर्थ्य-

आज की राष्ट्रीय विपन्न परिस्थितियों में हमें यही करना होगा। भावनात्मक उत्कृष्टता की अभिवृद्धि के लिये धर्म तन्त्र का सहारा लेना होगा ताकि जन-मानस के गहन अन्तराल का कोमल स्पर्श करके उसके प्रसुप्त देवत्व को जागृत किया जा सके। इसी प्रकाश से हमारी अगणित कठिनाइयों की अँधियारी दूर हो सकेगी। मनुष्य भीतर से महान बनेगा तो बाहर से भी उसकी समृद्धि एवं शक्ति असीम होकर रहेगी।

हम राजनीति की चकाचौंध को देखते हैं और उसी के आधार पर समस्याओं को हल करने बात सोचते हैं। धर्म-तन्त्र की शक्ति और संभावना से हम एक प्रकार से अपरिचित जैसे हो चले हैं। बेशक राजनीति की तरह धर्मनीति में भी भारी विकृतियाँ और भ्रष्टताएँ घुस पढ़ी हैं, उन्हें सुधारना और बदलना पड़ेगा। शुद्ध स्वरूप में धर्म इतना सामर्थ्यवान है कि राजनीति की सामर्थ्य उसकी तुलना में नगण्य ही ठहरती है। शासन संचालन में लगभग 27 लाख कर्मचारी संलग्न हैं, जब कि धर्म को आजीविका बनाकर गुजारा करने वालों की संख्या विगत जनगणना के अनुसार 56 लाख है। जितना टैक्स सरकार वसूल करती है, उससे लगभग दूना धन धर्म कार्यों में खर्च होता है। तीर्थयात्रा, पर्वस्नान, कुँभ जैसे धार्मिक मेले, यज्ञ, सम्मेलन, कथा-वार्ता, मन्दिर, मठ, साधुओं की जमातें, धर्मानुष्ठानों के अवसरों पर किये जाने वाले दान, पूजा, उपकरण, धर्म ग्रन्थ, प्रतिमाएँ आदि सब मिलाकर धर्म के नाम पर जनता प्रचुर मात्रा में खुशी-खुशी धन खर्च करती है। जप, तप, आह्वान, संयम, नियम आदि के लिये लोग कष्ट भी सहते हैं। धर्म प्रयोजनों के लिये मंदिर आदि की इतनी अधिक इमारतें बनी हुई हैं जो सरकारी इमारतों से किसी प्रकार कम नहीं। धर्म प्रयोजनों में जनता की श्रद्धा भी कम नहीं। समय आने पर वह उसके लिए बहुत कुछ त्याग करने को भी तैयार हो जाती है।

सच तो यह है कि हमने स्वाधीनता संग्राम भी धर्म के नाम पर लड़ा है। महात्मा’ गान्धी के नाम के साथ ‘महात्मा’ शब्द न होता तो संभवतः उन्हें इतना जन-सहयोग न मिल सका होता। रामराज्य की स्थापना की उनकी घोषणा के आधार पर भारत की जनता मर-मिटने को तैयार हुई थी। सन् 57 का स्वतन्त्रता-संग्राम चमड़े के कारतूस मुँह में लगाने में धर्म भ्रष्टता अनुभव करने वाले सैनिकों द्वारा ही भड़का था। क्रान्तिकारियों ने गीता की पुस्तकें छाती से बाँधकर फाँसी के तख्ते पर चढ़ते हुये जनता की श्रद्धा अर्जित की थी।

इसी शस्त्र का उपयोग किया जाय-

बेशक, आज धर्म तन्त्र बुरी दशा में विकृत बना लुँज-पुँज पड़ा है और अपनी उपयोगिता खो बैठा है। फिर भी यह संभावना पूरी तरह विद्यमान है कि यदि उसे सुव्यवस्थित बनाया जा सके और प्रबुद्ध व्यक्तियों द्वारा नव निर्माण के प्रयोजन में प्रयुक्त किया जा सके, तो इसका परिणाम आशाजनक सफलता ही होगा। इतिहास बताता है कि धर्म तन्त्र सृष्टि के आदि से अब तक कितना शक्तिशाली रहा है। उसने सदा से राज तन्त्र पर नियन्त्रण करने की अपनी वरिष्ठता को कायम रखा है। समय बतावेगा कि उसी के द्वारा मानव-जाति की आत्यंतिक समस्याओं का समाधान होगा। आज राजनीति को कितनी ही प्रमुखता क्यों न मिली हो, कल धर्म को उसकी महत्ता के अनुरूप-प्रतिष्ठा मिलने ही वाली है। कारण स्पष्ट है, मानव-जाति की भौतिक आवश्यकताएँ और समस्याएं स्वल्प हैं। उन्हें बुद्धिमान मानव प्राणी आसानी से हल कर सकता है। जिस विभीषिका ने अगणित गुत्थियाँ उलझा रखी हैं, वह भावनात्मक विकृति ही है। मनुष्य का आन्तरिक स्तर गिर जाने से उसने पशु एवं पिशाच वृत्ति अपना रखी हैं। इसी से पग-पग पर कलह और क्लेश के आडम्बर खड़े दिखाई पड़ते हैं। यदि भावनात्मक उत्कृष्टता संसार में बढ़ जाय, तो आज हर मनुष्य देवताओं जैसा महान दिखाई दे और सर्वत्र स्वर्गीय सुख शान्ति का वातावरण दृष्टिगोचर होने लगे। समस्त रोगों का निदान यह एक ही है, समस्त समस्याओं का हल यह एक ही है।

हमें जड़ का पहुँचना होगा और उसी को सींचना होगा। रोग के अनुरूप चिकित्सा ढूँढ़नी होगी। जहाँ छेद हैं, वहाँ बन्द करना होगा, अन्यथा सुख शान्ति के व प्रगति एवं समृद्धि के स्वप्न कभी भी साकार न हो सकेंगे। बालू के महल रोज बनते बिगड़ते रहेंगे, पर उनसे प्रयोजन कुछ भी सिद्ध न होगा। भारत के पुनरुत्थान में निश्चित रूप से धर्म को ही महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करनी पड़ेगी, क्योंकि जन-साधारण की प्रसुप्त आन्तरिक सत्प्रवृत्तियों को इसी आधार पर जगाया जा सकना संभव होगा। जितनी जल्दी इस तथ्य को हम हृदयंगम कर लें, उतना ही उत्तम है।

चुनौती स्वीकार करें-

राष्ट्र के अतीत गौरव के अनुरूप हमें पुनः अपने उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करना ही होगा। प्रबुद्ध आत्माओं के सामने यह चुनौती प्रस्तुत हुई है कि वे अपनी तुच्छ तृष्णाओं तक सीमाबद्ध संकीर्ण जीवन बिता देने की अपेक्षा किसी तरह संतोष से गुजारा चलाते हुये अपनी बढ़ती शक्तियों का उपयोग, अपने युग की विषम समस्याओं को सुलझाने के लिये करने को तत्पर हों। चारों और आग लगी हो और उसे बुझाने की अपेक्षा अपनी चैन की बंशी बजाने में जो संलग्न हों, उस प्रतिभावान की, सामर्थ्यवान की विकृत गतिविधियों पर विश्व मानव की घृणा ही बरसेगी। भावी पीढ़ियाँ उसे फटकारेंगी। कर्त्तव्य से विमुख रहने के कारण अन्तरात्मा उसे कोसती ही रहेगी।

हम सौभाग्य या दुर्भाग्य से अग्नि परीक्षा के युग में पैदा हुये हैं। इसलिये सामान्य काल की अपेक्षा हमारे सामने उत्तरदायित्व भी अत्यधिक हैं, अतएव उपेक्षा करने का दण्ड भी अधिक है। संकटकाल के कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व, प्रतिबंध एवं दण्ड विधान भी विशेष होते हैं। आज वैसी ही स्थिति है। मानव जाति अपनी दुर्बुद्धि से ऐसे दल-दल में फँस गई है, जिसमें से बाहर निकलना उसके लिये कठिन हो रहा है। मर्मान्तक पीड़ा से उसे करुण क्रन्दन करना पड़ रहा है। परिस्थितियाँ उन सभी समर्थ व्यक्तियों को पुकारती हैं कि इस विश्व संकट की घड़ी में उसे कुछ साहस और त्याग का परिचय देना ही चाहिये, पतन को उत्थान में बदलने के लिये उसे कुछ करना ही चाहिये। हम चाहें तो थोड़ा-थोड़ा सहयोग देकर देश, धर्म, समाज एवं संस्कृति के पुनरुत्थान के लिये बहुत कुछ कर सकते हैं और नया संसार, सुन्दर संसार, उत्कृष्ट संसार बनाने के लिये एक चतुर शिल्पी की तरह अपनी सहृदय कलाकारिता का परिचय दे सकते है। पेट भरने के लिये पशु की तरह जीवित रहना, आज की परिस्थितियों में किसी निष्ठुर पाषाण के लिये ही संभव हो सकता हैं। अखण्ड-ज्योति के पाठकों में से शायद ही कोई इस तरह अभिशाप जैसा जीना पसन्द करे।

ऐतिहासिक भूमिका सम्पादन करें-

धर्म का स्वरूप आज पूजा, पाठ, तिलक, छाप, जटा, कमंडल, स्नान, मन्दिर दर्शन या थोड़ा-सा दान-पुण्य कर देना मात्र मान लिया गया है। इतना कुछ कर लेने वाले अपने को धर्मात्मा समझने लगते हैं। हमें समझना और समझाना होगा कि यह धर्म का एक नगण्य अंश हैं। समग्र धर्म की धारणा, आत्म-संयम, उज्ज्वल चरित्र, उदारता, ज्वलन्त देशभक्ति एवं लोक सेवा की तत्परता में ही संभव है। धर्मात्मा के लिये दयालु क्षमाशील बनना ही पर्याप्त नहीं, वरन् उसके लिए सद्गुणी, शिष्ट, ईमानदार, कर्त्तव्य परायण, साहसी, विवेकशील, अनीति के विरुद्ध लोहा लेने का शौर्य एवं कठोर श्रम करने का उत्साह भी अनिवार्य अंग है। जब तक इन गुणों का विकास न हो, तब तक कोई व्यक्ति सच्चे अर्थों में कदापि धर्मात्मा कहलाने का अधिकारी नहीं बन सकता।

हमें जन-साधारण को धर्म का वास्तविक स्वरूप समझाना पड़ेगा और बताना पड़ेगा कि सुख शान्ति का एक मात्र अवलम्बन धर्म ही है। जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी रक्षा होती है और जो धर्म को मारता है-धर्म उसे भी मार ही डालता है। अधर्म के मार्ग पर न कोई अब तक फला-फूला है और न सुख शान्ति से रहा हैं। आगे भी यही क्रम अनन्तकाल तक चलता रहने वाला है। यह आस्था जब तक जन-मानस में गहराई तक प्रवेश न करेगी, तब तक मानव जाति की समस्याओं एवं कठिनाइयों का हल न हो सकेगा। हमें अच्छा मनुष्य बनना चाहिये। नेक मनुष्य बनना चाहियें और सशक्त मनुष्य बनना चाहिये। शक्ति, नेकी और व्यवस्था यह तीनों ही धर्म के गुण हैं। व्यक्तित्व का समग्र विकास ही धर्म का उद्देश्य है।

धर्म तन्त्र को सशक्त बनाना संसार की सबसे बड़ी सेवा है, ईश्वर की सबसे बड़ी पूजा है। हमें इसी के लिये कटिबद्ध होना चाहिये। अपने समय और धन का एक अंश नियमित रूप से इस कार्य के लिये लगाना चाहिये। रोटी कमाने और बच्चे पैदा करने तक ही जो जीवन सीमित रह गये, उन्होंने नर तन पाने का महत्व नहीं समझा यही कहना पड़ेगा। ऐसे अभागे लोग अपनी दुर्बुद्धि पर हाथ मल-मल कर पश्चाताप करते हुये ही विदा होंगे। अच्छा हो हम समय रहते चेतें। अपने को धर्म परायण बनाने और जन-मानस में धर्म धारणा उत्पन्न करने के लिये ऐसा प्रयास करें, जिससे अपना आत्मा संतुष्ट हो और दूसरे लोग प्रकाश एवं प्रेरणा प्राप्त करके, कल्याण मार्ग पर अग्रसर हो सकें। ऐसी ही गतिविधि अपनाना हमारे लिए उचित है।

वह जो आपको ही करना है-

हम संगठित रूप से दुस्साहसपूर्ण कदम उठाने चलें हैं। इसके लिये आवश्यक शौर्य एवं साहस हमें एकत्रित करना ही होगा। कितनी ही व्यस्तता एवं कठिनाई क्यों न हो हमें यह व्रत ले ही लेना चाहिये कि धर्म कि अभिवृद्धि करना भी हमारे जीवन का एक आवश्यक, अनिवार्य एवं अविभाज्य अंग है। अतीव उपयोगी एवं लाभदायी कार्यों में ही एक कार्य धर्म सेवा को भी समझेंगे और उसके लिए किसी भी कठिनाई का सामना करते हुए कुछ समय नियमित रूप से लगाते रहेंगे। जीवन यज्ञ की सफलता समय दान की आहुतियों पर निर्भर है। हमें इस पवित्र कर्त्तव्य से विमुख नहीं ही होना चाहिये।

अप्रैल की अखण्ड-ज्योति में पृष्ठ 45 से 52 तक 10 आवश्यक कार्यों की पूर्ति के लिए परिजनों का आह्वान किया गया है। उनकी ओर हम में से प्रत्येक को पूरा-पूरा ध्यान देना चाहिए और प्रस्तुत कार्यक्रमों में से जो कुछ बन पड़े उसके लिए अधिकारिक उत्साह प्रदर्शित करना चाहिए।

ता0 15 मई से 30 मई तक होने वाला धर्म प्रचारक शिविर, 31 मई से 14 जून तक होने वाला लेखन शिक्षण शिविर तथा 17, 18, 19 जून का सामाजिक क्रान्ति सम्मेलन अपने ढंग के अनोखे हैं। इनमें सम्मिलित होने के लिये प्रबुद्ध परिजनों को-विशेषतया प्रतिनिधि उत्तराधिकारियों को अभी से तैयारी करनी चाहिए। विवाहोन्माद के उन्मूलक तथा आदर्श विवाहों के प्रचलन का जो धर्मयुद्ध आरम्भ किया जा रहा है, वह यद्यपि गान्धी जी के नमक सत्याग्रह की तरह एकाँगी है पर धीरे धीरे सामाजिक एवं बौद्धिक क्रान्ति प्रचण्ड दावानल के रूप परिणत होगी और तब तक जलती रहेगी, जब तक कि वर्तमान की समस्त दुष्प्रवृत्तियाँ जल-बल कर उसमें भस्म न हो जायँ। इस युग के इस महान् धर्म युद्ध का- महाभारत का नेतृत्व करने के लिए मनस्वी धर्म सैनिकों की आज अत्यधिक आवश्यकता अनुभव की जा रही है। इसकी पूर्ति के लिये परिवार के कर्मठ व्यक्तियों को साहसपूर्वक आगे बढ़कर आना चाहिये।

युग नेतृत्व का आह्वान-

समय आ पहुँचा, जब जन नेतृत्व का भार धर्म तन्त्र के कंधों पर लादा जायगा। धर्म क्षेत्र में काम करने वाले व्यक्ति नव-निर्माण की वास्तविक भूमिका का सम्पादन करेंगे। मानव जाति को असीम पीड़ाओं से उन्मुक्त करने का श्रेय इसी मोर्चे पर लड़ने वालों को मिलेगा। इसलिए युग पुकारता है कि प्रत्येक प्रबुद्ध आत्मा आगे बढ़े, धर्म के वर्तमान स्वरूप को परिष्कृत करे, उस पर लदी हुई अनुपयोगिता की मलीनता को हटाकर स्वच्छता का वातावरण उत्पन्न करें। इसी शस्त्र से प्रस्तुत विभीषिकाओं का अन्त किया जाना संभव है, इसीलिये उसे चमकती धार वाला तीक्ष्ण भी रखना ही पड़ेगा। जंग लगे व भोंथरे हथियार अपना वास्तविक प्रयोजन हल कहाँ कर पाते हैं। धर्म तन्त्र का आज जो स्वरूप है, उससे किसी को कोई आशा नहीं हो सकती हैं। इसे तो बदलना-पलटना एवं सुधारना अनिवार्य ही होगा।

सुधरे हुये धर्म तन्त्र का उपयोग, सुधरे हुये अन्तःकरण वाले प्रबुद्ध व्यक्ति, सुधरे हुये ढंग से करें तो उससे विश्व संकट के हल करने और धरती पर स्वर्ग-नर से नारायण अवतरण करने का अभीष्ट उद्देश्य पूरा होकर ही रहेगा। सुधरी हुई परिस्थितियों की गंगा का अवतरण करने के लिये आज भागीरथों की अनेकों आवश्यकता हैं। यह आवश्यकता कौन पूरी करें? माता भारती हमारी ओर आशा भरी आँखों से देखती है। अन्तरिक्ष में उसकी अभिलाषा इन शब्दों में गूँजती है-

जना करती हैं, जिस दिन के लिए सन्तान सिंहनियां

मेरे शेरों से कह देना कि वह दिन आ गया, बेटा॥

युग पुकार के अनुरूप क्या प्रत्युत्तर दिया जाय, यह हमें निर्णय करना ही होगा और उस निर्णय का आज ही उपयुक्त अवसर हैं।


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