शुद्ध व्यवहार, पवित्र आचार

May 1965

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आप कितना ही पढ़े-लिखे क्यों न हों, कितना ही धन-सम्पन्न और पद में बड़े क्यों न हों, आपका हृदय उदार नहीं तो लोग आपको अन्तःकरण से प्यार न करेंगे। एक ओर मनुष्य का स्वार्थ है, तो दूसरी ओर उसका जिन-जिन से सम्बन्ध आता है, उनके प्रति कर्त्तव्य भी। अपनी स्थिति का ध्यान प्रायः सबको रहता है। सब यह चाहते हैं कि दूसरी उसके साथ सच्चाई से पेश आयें, छल-कपट न करें, गाली न दें, दुर्वचन न बोले, धोखा न दें, नम्र बोलें, मीठा बोलें। यह सब केवल दिखाने के लिये, बनावटी या प्रपंच मात्र न हो, वरन् उस व्यवहार में सत्यनिष्ठा होनी चाहिए। शुद्ध व्यवहार की जो अभिलाषा हम करते हैं, वही दूसरे भी। अतः हमें “दो और लो” वाली नीति का पालन करना चाहिए। अच्छा-बुरा जैसा भी व्यवहार दूसरों के साथ होगा, उसी का प्रतिफल हमें भी भोगना पड़ता है। इस बात को सदैव गाँठ बाँधकर रखना चाहिए।

सत्यनिष्ठा का अर्थ आमतौर से सच बोलना लगाया जाता है, पर सत्य शब्द बड़े विशाल अर्थ में प्रयुक्त होता है। विचार में, वाणी में, आचार में सत्य ही सत्य हो। इस सत्य को सम्पूर्णतया समझने वाले को दुनिया में दूसरा कुछ भी जानना नहीं रहता, क्योंकि सारा ज्ञान इसी में समाया हुआ है। यदि व्यवहार में हमें सच्चे आनन्द का अनुभव नहीं होता तो हमें समझना चाहिए कहीं भूल है। सत्य आचरण के बिना वह तुष्टि मिल भी कैसे सकती है। यदि हम इस कसौटी का प्रयोग करना सीख जायें तो तुरन्त ही हमें पता चलने लगे कि कौन-सी प्रवृत्ति, कौन-सा विचार और कौन-सा आचरण उचित है और कौन अनुचित। सुख की सात्विक उपलब्धि के लिए इतना जानना प्रत्येक का धर्म है।

दुनिया की वर्तमान स्थितियोँ के अध्ययन और विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकलता है कि कोरा भौतिक विकास कष्टकारक है, हानिप्रद है। विशुद्ध जीवन का आधार है, व्यवहारिक दृष्टिकोण। दृष्टि शुद्ध होती है तो ज्ञान शुद्ध होता है, चरित्र शुद्ध होता है। दृष्टि खराब होगी तो ज्ञान भी विकृत होगा और चरित्र भी। एक व्यक्ति दूसरे को घृणा की दृष्टि से देखे, क्या यह उचित है? अपने को उच्च मानने वाले दूसरों को नीच मानकर उनसे घृणा करते हैं, क्या इसे दृष्टि दोष न कहेंगे? इसके फलस्वरूप होने वाले समाज विघटन और पारस्परिक असहयोग से क्या कोई अपने आपको बचा सकता है? मनुष्य, मनुष्य के प्रति द्वेष रखें और दुष्टता का बर्ताव करे इससे बढ़कर पशुता और क्या हो सकती है? व्यवहारिक सच्चाई धार्मिक जीवन का प्रथम शिक्षण है। धर्माचरण का असर जितना व्यक्ति पर होता है, उतना ही समाज पर होता है। अशुद्ध व्यवहार त्यागने का असर जितना व्यक्ति पर होता है, उतना ही समाज पर भी होता है, इसलिए शुद्धता, सच्चाई धर्म भी है और व्यवहार भी।

मनुष्य की एक सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह हर गलती का दोष औरों में ढूँढ़ता है और स्वयं निर्दोष होने का कोई न कोई मार्ग तलाश लेता हैं। इस अपूर्णता के कारण कभी-कभी यह अनुमान करना कठिन हो जाता हैं कि कौन-सा व्यवहार ग्राह्य है और कौन-सा त्याज्य। जीवन में कई बार ऐसी उलझन भरी समस्यायें खड़ी हो जाती हैं, जब उचित व्यवहार का निर्णय कठिन हो जाता है। ऐसे समय हमें अपने आपको न्याय के कटघरे में बन्द करके सोचना चाहिए। निःस्वार्थभाव से यदि अपने दोषों को भी स्वीकार करने की भूल न करें, तो अनेक समस्याओं और कठिनाइयों का उचित समाधान निकल आ सकता है और हम अवश्यम्भावी परेशानियों से निकलकर बाहर आ सकते हैं।

जो मन साफ रखकर व्यवहार करते हैं, उनका व्यक्तित्व दिन-दिन निखरता चला आता है। जो स्वार्थ छोड़ने को तैयार ही नहीं और जिसे अपने दोष, गुण सरीखे दिखलाई देते हैं, उनसे सभ्य व्यवहार की आशा नहीं रखना चाहिए। ऐसे मनुष्य समाज के लिए अभिशाप ही सिद्ध होते हैं। स्वार्थ त्याग का अर्थ साँसारिक जीवन का परित्याग नहीं है, वरन् जीवन की प्रत्येक क्रिया में औरों के हित को भी ध्यान में रखना है। ऐसा व्यक्ति किसी के साथ धोखेबाजी न करेगा, किसी को नीचा दिखाने की बात न सोचेगा। सादगी से रहेगा और समभाव बरतेगा। इसमें उसकी हानि नहीं लाभ ही लाभ है।

मानवीय आचरण की शुद्धता और पवित्रता में समाज, राष्ट्र और देश के कायाकल्प करने की शक्ति विद्यमान है। यह कार्य व्यक्ति-स्तर से ही शुरू होना चाहिए। हमें पहले आत्म-निर्माण पर ध्यान देना चाहिए, समाज का विशुद्धि-करण उसी का परिवर्द्धित रूप है। कोई संस्था, समुदाय या योजना एक साथ सारे व्यक्तियों का उत्थान और चरित्र निर्माण नहीं कर सकती। होना यह चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी को पूरा करे। व्यक्तिगत आचरण को सुधारा जायेगा तो सामाजिक विषमतायें अपने आप दूर होंगी, इसलिए व्यक्ति सुधार और उसकी अन्तः-शुद्धि की योजना प्रमुख है। एक व्यक्ति सुधर जाय, तो उससे एक समाज के सुधरने की शक्ति आयेगी क्योंकि वह अपने व्यवहार द्वारा ही अनेक लोगों का नैतिक प्रशिक्षण करता रहेगा। यह पद्धति कहीं अधिक प्रभावशील है।

स्टेशन पर टिकट खरीदने के लिए लाइन लगती है, इसमें सबका भला है। सबकी एक राय है कि जो जिस क्रम से आता जाय, टिकट खरीदे और चलता जाय। एक महाशय ने अपना बक्स एक तरफ रखा और बीच में घुस पड़े कि जल्दी टिकट खरीदकर आगे निकल जायँ। इस पर दूसरे खड़े लोगों का क्षुब्ध होना स्वाभाविक है। कोई असहिष्णु होगा तो वह भी अपनी जगह छोड़कर आगे बढ़ने का प्रयत्न करेगा, इससे बड़ी गड़बड़ी उठ खड़ी होगी। व्यवस्था इस बात में थी कि सब व्यवहारिक सत्य को मानते और लाइन में खड़े रहते। उसमें स्टेशन बाबू को भी काम की सहूलियत रहती और सब लोग परेशानी, धक्का-मुक्की से बच जाते। थोड़े से लोगों की यह स्वार्थ परायणता परेशानी की चीज हैं। जो व्यक्ति समाज को व्यवस्था दे सकता है, अशुद्ध आचरण द्वारा वही उस व्यवस्था को भंग भी कर देता है जो अन्यायपूर्ण एवं अनुचित है।

धर्म जिस तरह अपने लिए है, वैसे ही समाज की धारणा के लिए भी है। अतः समाज के प्रति अपना कर्त्तव्य पालन करने के लिये उसे अपने अन्तःकरण की शुद्धि के साथ-साथ समाजोपयोगी सद्गुणों का विकास भी करना चाहिए। प्रेम, दया, सेवा, परोपकार आदि द्वारा अन्तःकरण को औरों पर भी आरोपित किया जाना चाहिए। अन्तःकरण की शुद्धि और उसका बाहरी व्यवहार, दोनों मिलकर सुखद वातावरण तैयार करते हैं। उसमें व्यक्ति का भी हित रहता है और सामाजिक जीवन में शान्ति और और सम्पन्नता दिखाई देती है। विशुद्ध धर्म का उद्देश्य भी यही हैं।

किन्तु जहाँ स्वार्थ सिद्धि का प्रसंग आता है, वहाँ मनुष्य एकदम व्यक्तिवादी रहता है। वह सोचता है-मैं सुखी बनूँ, मुझे धन और सुविधायें मिलें, मेरी प्रतिष्ठा हो। इस बीच परिवार के, पड़ोस के, समाज के तथा राष्ट्र के व्यक्तियों का चाहे कितना बड़ा अहित क्यों न हो। पर सोचने की बात है कि क्या आस-पास के वातावरण से प्रभावित हुए बिना हम रह जायेंगे? विद्रोह की आग में स्वार्थी लोगों का मान-मर्दन हो जायगा, तो उन्हें बड़ी पीड़ा होगी इसलिए पहले से ही यह प्रयत्न होना चाहिए कि जिस तरह हम सुखी रखें, उसी तरह दूसरे भी। धन का, साधनों का, ज्ञान का, पद और प्रतिष्ठा का एक निश्चित कम में मिल बाँटकर उपयोग होना चाहिए। यदि इस तरह समता, मैत्री और एकत्व की भावना बढ़ेगी, तो व्यक्ति समाज और राष्ट्र सभी सुधर जायेंगे। हमें इसी भावना को लेकर आगे बढ़ना चाहिए।

शुद्ध व्यवहार और सदाचार समाज की सुदृढ़ स्थिति के दो आधार स्तम्भ हैं। इन से व्यक्ति का भाग्य और समाज का भविष्य विकसित होता है। शिक्षा, धन एवं भौतिक समुन्नति का सुख भी इस बात पर ही निर्भर है कि लोग सद्गुणी और सदाचारी बनें। सामाजिक परिवर्तन का आधार व्यक्ति के अन्तःकरण की शुद्धि है। यही समाज में स्वच्छ आचरण और सुन्दर व्यवहार के रूप में प्रस्फुटित होकर सुख और जन-सन्तोष के परिणाम प्रस्तुत करती है। अतः जीवन विकास की भौतिक पृष्ठभूमि के साथ ही यह आध्यात्मिक कार्यक्रम भी चलना चाहिए। शुद्ध व्यवहार और आचार की पवित्रता से ही मानवीय व्यवस्था संभव है, इसे भुलाया नहीं जाना चाहिए।


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