प्रेम और सेवा ही तो धर्म है।

May 1965

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शरीर और प्राण मिलकर जिस तरह पूर्ण पुरुष बनता है, धर्म भी उसी तरह बाह्य और आन्तरिक दो स्वरूपों में विभक्त है। बाह्य रूप है पूजा-अर्चा, दीप-आरती आदि कर्मकाण्ड, किन्तु उसका आन्तरिक स्वरूप भावनात्मक है, जिसका निर्माण प्रेम और सेवा से होता है। कर्मकाण्ड के बाह्य साधन निर्जीव-अल्पकालीन और स्थूल होते हैं। शरीर कालान्तर में नष्ट हो जाता है और मनुष्य ‘प्राण’ में परिवर्तित हो जाता है। कर्मकाण्ड भी उसी तरह कुछ दिन ही चलता है, आगे तो इससे ऊँची भावनात्मक कक्षा में प्रवेश लेना होता है, जहाँ मनुष्य को प्रेम और सेवा का पाठ पढ़ाया जाता है। धर्म-प्रशिक्षण की परिपूर्णता जीवन को प्रेममय तथा सेवामय बनाने से ही आती है इनके बिना धर्म मृत है, निर्जीव है। धर्म का प्राण है सेवा और प्रेम। इन्हीं से वह अपने सही स्वरूप में स्थिर हो पाता है।

महात्मा गाँधी का कथन हैं-”धर्म का मतलब, सत्य अर्थात् ईश्वर की प्राप्ति है। धर्म प्रेम का पन्थ है, फिर घृणा कैसी, द्वेष कैसा, मिथ्याभिमान कैसा? मनुष्य एक ओर तो ईश्वर की पूजा करे, दूसरी ओर मनुष्य का तिरस्कार करे, यह बात बनने लायक नहीं।”

मनुष्य दूसरों को नैतिक उपदेश ही देता रहे, तो उससे किसी का काम नहीं बनता। समय पर सहायता मिलना, मुश्किलें और कठिनाइयाँ दूर करना, उपदेश देने की अपेक्षा अधिक उपयोगी हैं। इसी से किसी को कुछ ठोस लाभ प्राप्त हो सकता है। यही ईश्वर की सच्ची पूजा है।

किसी तालाब में एक बालक डूब रहा था। दैवयोग से उसके अध्यापक उधर से गुजरे। बालक को डूबता हुआ देखकर सीढ़ियों पर खड़े होकर डांटने लगे-”क्यों रे! मैंने तो मना किया था गहरे पानी में नहीं उतरना चाहिये, फिर तू क्यों पानी में कूदा। भले आदमी पहले तैरना सीख लेता तब गहरे पानी में जाता।” अध्यापक जी न जाने कब तक उपदेश जारी रखते, तभी एक किसान पानी में कूदा और बालक को बाहर निकाल लाया। किसान बोला-”पंडित जी उपदेश स्कूल में दिये जाते हैं, यहाँ तो बच्चे को डूबने से बचाने की आवश्यकता थी।”

बेचारे अध्यापक की तरह उपदेशदाताओं की आज भी कमी नहीं है। ऐसे धर्म भी बहुत हैं, जिनमें उपदेश और शिक्षाओं से किताबों की किताबें भरी पड़ी हैं। जगह-जगह धार्मिक सभायें भी खूब होती रहती हैं। नाटक, रामलीला आदि के द्वारा भी तरह-तरह की शिक्षायें दी जाती रहती हैं, पर सामान्य जनों के लिये उपदेशों का कोई प्रभाव नहीं होता। और तो और पोथी धारी पंडित भी व्यवहारिक तथ्यों का अनुशीलन नहीं कर पाते। इस दृष्टि से तो कबीर दासजी की ही वाणी सत्य और बुद्धि संगत प्रतीत होती है। उन्होंने लिखा हैं-

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित हुआ न कोय।

ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होय।

पुस्तकें पढ़ लेने से ही कोई धर्म-निष्ठ नहीं बन जाता है। सच्चा धर्म तो प्रेम है, जिससे मानव मात्र के दुखों की अनुभूति होती है। किसी के दुःख में दुःखी न हुआ, वह भी कोई इन्सान हैं? उसे तो पाषाण-हृदय ही कहना अधिक उपयुक्त होगा, फिर उसने चाहे जितने ग्रन्थों का अवलोकन क्यों न किया हो।

हमारी आँखों के आगे से प्रतिदिन अनेकों प्राणी ऐसे गुजरते रहते हैं, जिन्हें हमारी सहानुभूति की अपेक्षा होती है। भूखे, प्यासे, वस्त्र विहीन, अशिक्षित, साधन विहीन हमसे सहयोग की आशा रखते हैं, किन्तु कितना कठोर होगा वह मनुष्य जो इन्हें तनिक भी सेवा नहीं दे सकता। जो ‘सेवा’ धर्म का सार है, उसे ही लोग छोटेपन का चिन्ह समझते है। परोपकार से बढ़कर दूसरा धर्म नहीं, दूसरों की सेवा से बढ़कर परमात्मा की सच्ची पूजा और कुछ हो नहीं सकती।

परमात्मा सम्पूर्ण विश्व में निवास करता है, उसके लिये एक मंदिर बनवा दिया तो कौन सा भारी काम कर दिया? जो असंख्यों जीवधारियों को भोजन देता रहता है, उसके लिये भोग की थोड़ी-सी मिठाई न भी मिले तो भी कुछ हर्ज नहीं। परमात्मा सबको जीवन-दान देता है, उसे क्या भेंट-पूजा चढ़ाकर भी कोई प्रसन्न कर सकता है? उसकी सच्ची पूजा तो सद्व्यवहार है। दीन-दुखियों के रूप में वह अपने भक्तों की सेवा पाने के लिए दर-दर भटकता रहता है। उसे दरिद्र नारायण के रूप में देख सकें, तो सर्वत्र ही आपकी पूजा पाने को वह प्रतीक्षा करता हुआ मिलेगा। पीड़ित और पिछड़े हुए मनुष्य के लिए प्रेम और सद्भावनापूर्वक कुछ सहयोग दे दिया जाय, तो उससे अपने को जो आन्तरिक आह्लाद मिलता है, वह परमात्मा का बधाई-संदेश नहीं तो और क्या है? दुःखी मनुष्य का आन्तरिक आशीर्वाद पाने से जो हृदय में विशालता व प्रसन्नता आती है, वही तो परमात्मा की सच्ची अनुभूमि होती है। भूल में हैं वे लोग जो परमात्मा की इस सच्ची उपासना से वंचित रहकर केवल कर्मकाण्ड के पीछे पड़े हुए अपने बड़प्पन की डींग हाँकते रहते हैं। सचमुच, जो असहायों के हृदय स्पर्श न कर सका, संसार को सद्व्यवहार न दे सका, उसकी उपासना अधूरी है। उसे कभी भगवान मिलेंगे यह सोचना भी गलत है।

परमात्मा से सच्चे हृदय से जो प्रीति रखते हैं उन्हें सृष्टि के प्रत्येक प्राणी में उन्हीं की छाया दिखाई देती है। क्या ऊँचा क्या नीचा! सारा संसार उन्हीं से तो ओत-प्रोत हो रहा है। छोटे-बड़े, ऊँचे-नीचे का भेदभाव परमात्मा के प्रति अन्याय है। सर्वत्र व्यापी प्रभु को समदर्शी पुरुष ही जान पाते हैं। जो प्राणि मात्र को प्रेम की दृष्टि से देखता है, वही ईश्वर का प्यारा हैं। अपने पत्नी-बच्चों, रिश्तेदारों तक ही प्रेम को प्रतिबन्धित रखना स्वार्थ हैं। प्रेम का क्षेत्र असीम है, अनन्त है। उसे प्राणी मात्र के हृदय में देखना ही ईश्वर निष्ठा का सबूत है। वह कभी किसी को अप्रिय नहीं कह सकता, किसी को दुःखी देखकर उसका कलेजा आँखों में उतर आता है। उसने तो सबमें ही अपने राम को रमा हुआ देख लिया है।

सेवा और भक्ति वस्तुतः दो वस्तुयें नहीं है, वे एक दूसरे के पूरक हैं, एक दूसरे पर आश्रित हैं। प्रेम जब मन और वाणी से उतर कर आता है, तो उसे सेवा रूप में देखा जाता है। सच्चा प्रेम वह है, जो केवल शब्दों से ही मधुरता न टपकाता रहे, वरन् अपने प्रेमी के दुःख-दर्द में कुछ हाथ भी बटाये। कर्त्तव्य पालन में कष्ट स्वाभाविक हैं। कष्ट को अपेक्षित करके भी जो कर्त्तव्य पालन कर सकता हो, सच्ची सेवा का पुण्य फल उसे ही प्राप्त होता है। माता अपने बेटे के लिए कितना कष्ट सहती हैं, पर बदले में कभी कुछ चाहती नहीं। यही सेवा का सच्चा स्वरूप है। इसमें देना ही देना है, पाना कुछ नहीं है। जो अपना सब कुछ न्यौछावर कर सकते हों, उन्हीं को तो परमात्मा का सान्निध्य सुख प्राप्त करने का सौभाग्य मिलता है।

परिवार की देख-रेख, स्वजनों के पालन-पोषण की व्यवस्था, बालकों को शिक्षित विकसित बनाना यह सब सेवा कार्य ही हैं। किन्तु यह कार्य करते हुए अहं-भावना न आनी चाहिए। निष्काम कर्म को ही सेवा कहेंगे। जिससे अपना स्वार्थ सधता हो, वह कभी सेवा नहीं हो सकती।

व्यक्तिगत और पारिवारिक क्षेत्र से ही मनुष्य आगे की उत्कृष्ट सेवा का आधार बनाता है। यह क्षेत्र आगे बढ़कर प्राणि मात्र के हित और त्याग भावना के रूप में फैल जाता है। प्रारम्भ काल में जो अहंकार शेष रह गया था, विश्व-सेवा भावना से वह सभी धुल जाता है और मनुष्य प्रेम की पूर्णता का रसास्वादन करने लगता है।

पारमार्थिक सेवा का स्वरूप काम-भाव तथा अहंकार के विग्रह से मुक्त होना है। वहाँ केवल अपनी योग्यता का लाभ दूसरों को देना रह जाता है। मैं कुछ नहीं हूँ, जो कुछ है वह है। मैं कुछ नहीं करता, यह सब परमात्मा ही करता है। “मैं” तो एक यंत्र मात्र हूँ, जो उसके इशारे मात्र से काम करता रहता हूँ। मैं व्यक्ति या समाज पर कोई एहसान नहीं करता हूँ, इससे मुझे आन्तरिक आनन्द प्राप्त होता हैं। यही मेरी सेवा का मूल्य है, जो परमात्मा मुझे निरन्तर देता रहता है।

धर्म का यही रूप सही है। इस पूर्णता को प्राप्त करने के लिए शेष कर्मकाण्ड अभ्यास मात्र हैं। हमें धर्म को कर्मकाण्डों तक ही बाँधकर नहीं रखना चाहिए। हमारे हृदय में प्रेम और सेवा-भावना का उदय हो तो समझना चाहिए कि धर्म के प्राण को भी समझ लिया है। तभी सच्चे अर्थों में धर्म-निष्ठ कहलाने का सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं।


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