ईश्वर और उसकी अनुभूति

May 1965

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

इस संसार में रहते हुये मनुष्य सफलताओं के लिये नाना प्रयत्न करता है किन्तु उसकी निजी इच्छायें प्रायः परिस्थितियों की परतंत्रता के कारण पूर्ण नहीं होतीं। उद्योग करने से भी अभीष्ट लाभ नहीं होता तो भाग्य के अस्तित्व को स्वीकार करना पड़ता है, जिससे मनुष्य जीवन की अवधि अपरिचित सी दिखाई देने लगती है। जीव की अमरता और उसकी परतंत्रता- इन दो वस्तुओं पर विचार करने के उपरान्त हम इस तथ्य पर पहुँचते हैं कि एक शक्ति ऐसी भी है जो इस सृष्टि का नियमन करती है। बालक का जन्म होता है तो सामान्य मनुष्य उसे एक सामान्य संयोग मानकर साँसारिक प्रपंचों में लग जाते हैं को किन्तु विचारवान् व्यक्ति के लिये यही सबसे महत्वपूर्ण घटना भी हो सकती है। हाड़-माँस के इस छोटे से पिंड का गर्भ स्थान जैसी अपर्याप्त जगह में किस तरह पालन-पोषण होता है? किस तरह वह साँस ग्रहण करता होगा? कहाँ से प्रकाश मिलता होगा? रस, रक्त आदि का संचालन किस तरह होता होगा? माँस के कटघरे में आबद्ध जीव के लिये इतनी कठिन व्यवस्थाओं पर विचार करने से हैरत में रह जाना पड़ता है। लगता है कोई अदृश्य शक्ति ही इस संसार के भाग्य और परिस्थितियों का निर्माण करती रहती है।

सब कुछ चमत्कार-सा लगता है, पर है सत्य। अपने अन्दर की खोज करते हैं तो केवल हाड़-माँस, रक्त, मल-मज्जा को ही सार-भूत नहीं पाते। इससे भी उच्चतर किसी चेतन तत्व का आभास होता है। यह अन्तर्बोध कहाँ से आया? यह प्रश्न बार-बार उठता है, ईश्वर की धारणा को अस्तित्व में मान लेने से ही संतोष नहीं होता। उसकी खोज भी करनी पड़ती है। इसके लिये ध्यान निजत्व पर टिकता है। अपने आपको जानने से संभवतः ईश्वर विषयक ठोस निष्कर्ष निकले, यह समझ कर सारा ध्यान अन्तर्चेतना पर जमा देते हैं, तो उसकी स्थिति के साथ-साथ किसी प्रेरक सत्ता का ज्ञान होता है। ईश्वर का अस्तित्व स्पष्ट नजर आने लगता है। उसकी सत्ता का अनुभव जिधर दृष्टि जाती है उधर ही होने लगता है। ध्यानपूर्वक देखने से प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक प्राणी में ईश्वरता और उसकी समर्थता प्रकट होती है।

सूर्य, चन्द्रमा, आकाश, पहाड़, नदियाँ, पशु- पक्षी और इनसे सम्बन्धित अनेक क्रियायें-भरण-पोषण उत्पादन संरक्षण आदि में उस सर्वव्यापक सत्ता का ही हस्तक्षेप कार्य कर रहा दिखाई देता है। इसे प्रकृति या निसर्ग कह कर टाला नहीं जा सकता, क्योंकि प्रकृति अपने आप में अपूर्ण है। वह स्वतः गतिशील नहीं है। जहाँ भी क्रियाशीलता दिखाई देती है वहीं प्रकृति के साथ-साथ विश्व-चेतना का भी प्रादुर्भाव दिखाई देने लगता है।

महात्मा टॉलस्टाय ने लिखा है “मैंने पहले अनेक तर्कों के द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करना चाहा किन्तु उनसे बोध न हुआ, पर इससे एक बात मेरी समझ में आई कि संसार का कारण देश या काल की भाँति कोई वस्तु नहीं है। यदि “मैं” हूँ तो इसका कारण भी कुछ जरूर होगा। यह कारण भी किसी आदि कारण पर आधारित होंगे। सम्पूर्ण सृष्टि का जो मूल कारण होगा उसे ही लोगों ने ईश्वर कहा है। यह विचार मुझे पसंद आ गया और इसे ही समझने में अपनी सारी चेष्टा लगा दी। इन प्रश्नों के सुलझाने में मैं जितना ही उलझता गया उतना ही एक बात मेरी बुद्धि में स्थिर होती गई कि ईश्वर स्रष्टा हैं, वही संसार का पालन करता है। इस विश्वास ने मेरी क्षुद्रता प्रकट कर दी तबसे मैं निरन्तर परमेश्वर से ही प्रार्थना किया करता हूँ “प्रभो! मुझे शक्ति दो, ज्ञान दो ताकि मेरे जीवन की गति रुकने न पाये।”

नास्तिकता और अज्ञेयवाद के झूठे वितण्डावादों की अपेक्षा घटनाओं की विद्यमानता अधिक बलवत्तर है। हमारी अन्तर्चेतना यह सिद्ध करती है कि कोई समष्टि मन इस विश्व में अवश्य विद्यमान है, जो सारे संसार को एक क्रम व्यवस्था से चलाता रहता है। यह प्रकृति की तरह जड़ नहीं है। स्वार्थी या कठोर भी नहीं है प्रत्युत अनन्त शक्तिशाली, सर्व ज्ञानी तथा प्रेम स्वरूप है। यह सत्ता न होती तो मनुष्यों के हृदय में प्रेम की अजस्र सत्ता कहाँ से आती। सौंदर्य की आध्यात्मिक आकाँक्षा का उदय उस परम सुन्दर की अनुभूति का अंश ही तो है। इन सिद्धान्तों का खण्डन किसी भी तरह नहीं किया जा सकता। चेतना का नियमन करने वाली कोई कारण-सत्ता है जरूर।

प्रेम और सौंदर्य की तरह प्रत्येक व्यक्ति में ज्ञान की जो स्फूर्ति हुआ करती है वह भी तो परमात्मा के प्रकाश की ही स्थिति है। जागृत अवस्था में प्रत्येक वस्तु जिस तरह व्यवहृत होती है उसका ठीक वैसा ही आकार-प्रकार, डोल-ढाँचा मस्तिष्क में बनता बिगड़ता रहता है। सुप्त- अवस्था में भी एक अहं-भावना कार्य किया करती है जिसकी प्रत्येक गतिविधि का आभास निद्रा टूट जाने के बाद भी होता रहता है, इससे क्या ज्ञान की अविरलता का बोध नहीं होता। यह ज्ञान आखिर कहीं से प्रभासित ही हुआ होगा? उसका भी कुछ न कुछ अस्तित्व होगा? यह विचार यदि अविचल भाव से चलते रहें तो भी अन्त में हम ईश्वरीय-अस्तित्व की परिधि में ही पहुँचेंगे। वही सर्वत्र अपनी चेतना का प्रकाश फैला रहा है, इस विश्वास के साथ ही अपना ज्ञान परिपूर्ण बनता है।

हर तरफ से टकराकर मनुष्य बार-बार इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि बिना किसी कारण के इस संसार का निर्माण हो नहीं सकता। बिना किसी हेतु के मनुष्य का यहाँ आगमन सम्भव नहीं है। इस बात को कहाँ तक टाला जा सकता है, किसी ने हमें जन्म दिया है, हमारा लालन-पालन किया है, हमें प्रेम किया है। मनुष्य की निजी इच्छायें परवश हैं। वह प्रत्येक कार्य कर गुजरने के लिये पूर्ण क्षमतावान् नहीं है। फिर उसके पास मानवीय संदेहों, शंकाओं की समाधान शक्ति भी तो नहीं है। ऐसी अवस्था में इसे कोई कैसे मानेगा कि मनुष्य का जन्म प्रकृति का कार्य है। प्रत्येक कार्य ठीक विधि-व्यवस्था पर चल रहा है अतः उसका संचालन कर्त्ता भी निःसंदेह हमारे मन की तरह ही विचारपूर्ण होना चाहिये।

ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास कर लेने से सदैव उसकी पुष्टि ही हुई है। भारतीय तत्व-वेत्ताओं ने गहन अनुसंधान के बाद सबसे पहला आदेश यही दिया है। “ईश्वर पर विश्वास करो।” और इस संसार को ही उसके होने का प्रमाण समझो। विश्वास बना लेने के बाद मनुष्य की चेतना अन्तर्मुखी हो जाती है, फलस्वरूप तर्क और अविश्वास की छाया आपने आप हटने लगती है और मनुष्य पूर्ण-प्रकाश की ओर शनैः शनैः बढ़ने लगता हैं। सिद्धि प्राप्ति के तुरन्त बाद ही “ईश्वर पर विश्वास करो” का सर्व-निश्चयात्मक आदेश प्रामाणिक कहा जा सकता है। क्योंकि उन महापुरुषों के जीवन से हमें दिव्यता, असीमता और पूर्णता का आभास मिलता है। सभी कालों और देशों के मनुष्यों ने परमात्म-सत्ता को माना है। ऊपर,नीचे, भीतर-बाहर, अन्तरिक्ष, आकाश, सूर्य-चन्द्रमा में सर्वत्र उसी के प्रकाश का बखान किया है। जिन वेदान्तियों तार्किक तथा दार्शनिकों ने मानव बुद्धि का यथा साध्य प्रयोग किया है उन्होंने उसके अस्तित्व को प्रमाणित किया है। योगियों ने उसी अंतर्ज्योति को अनुभव किया है।

कितने ही विरोध उत्पन्न किये जायें किन्तु जीवन की चेतनशीलता के आगे आकर सारे अज्ञेय-विचार समाप्त होने को मजबूर हो जाते हैं। जहाँ मनुष्य की विवशता है, वहीं ईश्वर की स्थिति है। जहाँ मनुष्य की बुद्धि तथा शक्तियाँ कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं कर पातीं किन्तु गतिविधियाँ बराबर चलती रहती हैं, वहीं परमात्मा विराजमान है यह तथ्य भुलाया या ठुकराया नहीं जा सकता।

अनेक उपलब्धियों, अन्वेषणों तथा गहन जीवन- दर्शन के परिणामस्वरूप उस परमात्मा को बुद्धि संगत और निश्चित ठहरा कर ही महापुरुषों ने उसे जानने की शिक्षा दी है। शास्त्रकार का कथन है-

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति,

न चेदीहावेदीन्महती विनष्टिः।

भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः,

प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति॥

“अर्थात्-यदि इस जीवन में परमात्मा को जान लिया तो यह जन्म सार्थक हुआ। और यदि उसे न जान पाये तो यह निश्चय ही बहुत बड़ी हानि है। बुद्धिमान व्यक्ति प्रत्येक प्राणी में उसी का दर्शन करते हुये अजर अमर हो जाते हैं।”


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles