संकल्प की महान शक्ति

May 1965

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जीवन-निर्माण के प्रत्येक क्षेत्र में संकल्प शक्ति को विशिष्ट स्थान मिला है। यों प्रत्येक इच्छा एक तरह की संकल्प ही होती है, किन्तु तो भी इच्छायें संकल्प की सीमा का स्पर्श नहीं कर पातीं। उनमें पूर्ति का बल नहीं होता, अतः वे निर्जीव मानी जाती हैं। वहीं इच्छायें जब बुद्धि, विचार और दृढ़ भावना द्वारा परिष्कृत हो जाती हैं तो संकल्प बन जाती हैं। ध्येय सिद्धि के लिये इच्छा की अपेक्षा संकल्प में अधिक शक्ति होती है। संकल्प उस दुर्ग के समान है जो भयंकर प्रलोभन, दुर्बल एवं डाँवाडोल परिस्थितियों से भी रक्षा करता हैं और सफलता के द्वार तक पहुँचाने में मदद करता है। शास्त्रकार ने “सकल्प मूलः कामौं” अर्थात् कामना पूर्ति का मूल-संकल्प बताया है। इसमें संदेह नहीं है, प्रतिज्ञा, नियमाचरण तथा धार्मिक अनुष्ठानों से भी वृहत्तर शक्ति संकल्प में होती है।

महान विचारक एमर्सन ने लिखा है, “इतिहास इस बात का साक्षी है कि मनुष्य की संकल्प शक्ति के सम्मुख देव, दनुज सभी पराजित होते रहे हैं।”

उत्कृष्ट या निकृष्ट जीवन यथार्थतः मनुष्य के विचारों पर निर्भर है। कर्म हमारे विचारों के रूप हैं। जिस बात की मन में प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है, वह अपनी पसन्द या दृढ़ इच्छा के कारण गहरी नींव पकड़ लेती है, उसी के अनुसार बाह्य जीवन का निर्माण होने लगता है।

विचार यों अव्यक्त मन से भी प्रस्फुटित होते हैं, किन्तु वे प्रभावशाली नहीं होते। संकल्प भी एक तरह की विचार उत्पादक शक्ति है। इस तरह के विचार क्रमिक एवं योजना-बद्ध होते हैं। अव्यक्त विचारों की अपेक्षा उनकी शक्ति भी अधिक प्रखर होती है। इसलिये जो काम विशेष संकल्प के साथ किये जाते है, वे प्रायः असफल नहीं होते।

यहाँ संकल्प-शक्ति के स्वरूप को समझने की आवश्यकता है। हवा के आघात से जिस प्रकार जल में तरंगें उठा करती हैं और एक कौने से दूसरे कौने तक दौड़ा करती हैं, जो लहरें अधिक शक्तिशाली होती हैं वे अधिक वेग और कम्पन के साथ किनारों से थपेड़े भारती हैं, उसी तरह मन में भी शुभ-अशुभ विचारों के कम्पन या तरंग उठा करती हैं जो सूक्ष्म आकाश में सुदूर तक प्रसारित होती रहती हैं। प्रत्येक विचार का एक निश्चित स्वरूप होता है, जो दूसरे सजातीय प्रवाहों के साथ मिलकर और भी शक्तिशाली बनता रहता है। इस तरह के अनेक संकल्प-विकल्प इस सूक्ष्म जगत में विद्यमान हैं, पर उनका लाभ मनुष्य को तब मिल पाता हैं, जब वह विशेष मनोयोगपूर्वक किसी एक इच्छा की पूर्ति की ओर प्रवृत्त होता है। इस तरह का मस्तिष्क उन सजातीय विचार-तरंगों को सूक्ष्म-आकाश से उसी तरह खींचता है, जैसे भूखा अजगर साँस की तेजी के साथ छोटे-छोटे अनेक जीव-जन्तु, कीट-पतंगों को खींच लेता हैं। सजातीय तत्वों की एक अदृश्य शक्ति काम करने लगती है और सफलता के अनेक मार्ग अपने आप सूझने लगते हैं। ऐसा लगता हैं कोई दैवी-शक्ति आपका साथ दे रही है किन्तु वह शक्ति संकल्प की ही होती है जो मस्तिष्क में अनेक पुरुषों की वैसी ही कल्पनायें तथा सूझ-बूझ ढूंढ़-ढूंढ़कर लाती रहती है और विचारवान व्यक्ति उनमें से अपनी परिस्थितियों के अनुरूप साधनों को ग्रहण करता हुआ चला जाता हैं। इससे सफलता प्राप्त करने में कुछ अधिक देर नहीं लगती।

इस संसार में भलाई अधिक है। अतः भले विचारों के सूक्ष्म-प्रवाह भी सूक्ष्म-आकाश में अधिक विद्यमान है, अतः अच्छे काम को करने में धन की आवश्यकता उतनी नहीं, जितने शुद्ध हृदय और सात्विक संकल्प की आवश्यकता होती है। जब संकल्प दृढ़ हो जाता है और अध्यवसाय में भी कुछ शिथिलता नहीं रहती तो उद्देश्य की सफलता भी निश्चित हो जाती है। निश्चयात्मक विचारों का कार्यसिद्धि में बड़ा महत्व है।

एकबार खूब अच्छी तरह से विचार करने के बाद कोई संकल्प कर लें और फिर उसे छोड़ें नहीं तो कैसा ही कठिन कार्य हो उसमें भी सफलता की बहुत कुछ संभावनायें बढ़ जाती हैं।

पर इसके लिये उचित उद्योग तथा साध्य की तत्परता होना भी आवश्यक है। इसके बिना संकल्प में वह सामर्थ्य नहीं आ पाती जो सफलता के लिये अभीष्ट होती है। जिस बात का संकल्प लिया जाय, उस पर उसी क्षण से अमल भी होना चाहिये। विचार और क्रिया, दोनों के सम्मिश्रण से ही सफलता मिलती है।

मान लीजिये आपने संकल्प लिया है कि इस वर्ष अच्छे नंबरों से परीक्षा पास करेंगे तो इसके लिये आपको प्रातःकाल उठना भी पड़ेगा, पढ़ाई भी करनी पड़ेगी। इसमें ढील देने से आपकी कामना अधूरी ही रहेगी। दृढ़ संकल्प में मनुष्य की मति स्थिर और शरीर क्रियाशील बना रहना चाहिये। यदि हमारा मन बलवान है और कार्य करने की लगन है। तो कोई अशुभ या अवरोधक विचार सफलता के रास्ते में अपना प्रभाव नहीं डाल सकता। अपने मन को तूफानी आघातों से, भीषण गर्मी बरसात ओलों के बीच अडिग, अटूट रहने वाली चट्टान की तरह बनालें, तो परिस्थितियाँ और साँसारिक अड़चनें आपका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकेगी।

इंग्लैंड के प्रधान मंत्री सर विंस्टन चर्चिल ने अपनी डायरी में लिखा है “मेरे पुनः स्वस्थ हो जाने का कारण कोई नई दवा नहीं थी, दवा का काम तो मेरी दृढ़-संकल्प शक्ति ने किया। मुझे दृढ़ विश्वास था कि परमात्मा ने अभी भी मेरे लिये कुछ काम शेष रखा है और उसे मुझे पूरा करना ही है।” कहते हैं यह बात उन्होंने अपनी पक्षाघात की बीमारी के समय सन् 1655 में लिखी थी, जब उनके प्रायः सभी मित्रों ने यह विश्वास कर लिया था कि उनके दाहिने हाथ का पक्षाघात ठीक नहीं होगा। किन्तु चर्चिल की संकल्प-शक्ति के आगे पक्षाघात को झुकना ही पड़ा।

साहस और निश्चयात्मक विश्वास संकल्प के दो पहलू हैं, इन्हीं से मनुष्य की जीत होती है। साहस निरन्तर आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा देता है। इससे कर्म में गति बनी रहती है। निश्चयात्मक विचार डाँवाडोल परिस्थितियों में भी सन्तुलन बनाये रहते हैं, इस तरह से मनुष्य अविचल भाव से अपने इच्छित कर्म पर लगा रहता है।

स्वास्थ्य की तरह शिक्षा, उद्योग, साधना आदि अनेकों क्षेत्रों में संकल्प शक्ति से द्रुतगामी सफलता अर्जित की जा सकती है।

किन्तु यह न भूलना चाहिये कि कभी-कभी परिस्थितियों की गम्भीरता का संकल्प के साथ संघर्ष हो जाता है। अपने साधनों को दृष्टि में रखकर भी जो संकल्प लिये जाते हैं, उनमें भी आकस्मिक रुकावटें आ सकती हैं। ऐसी अवस्था में मनुष्य की सारी विचार-शक्ति लड़खड़ा जाने का खतरा रहता हैं। ऐसे अवसर जब भी कभी आयें, उस समय दैवी-संकल्प को महत्तर समझकर धैर्य करना ही लाभदायक होता है। घबराहट की कोई बात क्यों हो? आगे के लिये फिर कोई नया मार्ग तलाश कर लेना चाहिये। विवशता या विभ्रम से बचने के लिये यह पहले अनुमान कर लेना ही ठीक है कि आप जो कार्य करने जा रहे हैं या जिस बात का आप बीड़ा उठा रहे हैं, उसके पूरा करने में कितनी शक्ति आप में है। यदि संकल्प करते रहें किन्तु तदनुसार कार्य न हो तो आत्म शक्ति का ह्रास हो जाता है। जब कोई संकल्प लिया जाय, तो जहाँ तक बन पड़े उसे पूरा ही करके छोड़ना चाहिये।

संकल्प की शक्ति निःसंदेह बहुत अधिक है, किन्तु यह बात न भूलें कि अशुभ संकल्पों की प्रतिक्रिया व्यक्ति और समाज दोनों के लिये ही अहितकर होती है। चोरी, डकैती व्यभिचार, छल, कपट के प्रेरक अशुभ संकल्प ही होते हैं, इनसे मनुष्य का जीवन दूषित और दुःखमय बनता है। समीपवर्ती व्यक्ति भी दुःख पाते हैं। अशुभ-विचारों की अशुभ प्रतिक्रिया को ही ध्यान में रखते हुये शास्त्रकार ने लिखा है :-

यत् प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च,

यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।

यस्मान्नऋते किंचन कर्म क्रियते,

तन्मेमनः शिव संकल्पमस्तु॥

“अर्थात् जिस मन से अनुभव, चिन्तन तथा धैर्य धारण किया जाता है, जो इन्द्रियों में एक तरह की ज्योति है, वह मेरा मन शुभ संकल्प वाला हो।”


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