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May 1965

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चिन्तनेनैधते चिन्ता त्विन्धनेनेव पावकः।

नश्यत्यचिन्तनेनैव विनेन्धनमिवानलः॥

ईंधन से जैसे अग्नि बढ़ती है, ऐसे ही सोचने से चिन्ता बढ़ती है। न सोचने से चिन्ता वैसे ही नष्ट हो जाती है, जैसे ईंधन के बिना अग्नि नष्ट हो जाती है।

राष्ट्र विकास की इस चर्चा में आर्थिक समुन्नति का ध्यान रहे यह ठीक है। हमें गरीबी को मिटाना ही चाहिए, पर यह नहीं भूलना चाहिए कि चारित्र्यक विकास के बिना कोई भी भौतिक सफलता स्थिर नहीं रह सकती हैं। बढ़ी हुई शक्ति का सन्तुलन, उदार हृदय, चौड़े मस्तिष्क और आत्म-निष्ठा के साथ हो तो ही उनका लाभ प्राप्त किया जा सकता है अन्यथा भौतिक उन्नति का कुछ लाभ न निकलेगा। उससे हमारी परेशानियाँ ही बढ़ेंगी। राष्ट्र का गौरव बढ़ाने के लिए अन्य साधनों के साथ चरित्र बल बढ़ाना आवश्यक अंग बन गया है। चरित्र सम्पूर्ण विकास की जड़ है, उसका अभिसिंचन होना ही चाहिए।


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