नये क्षितिज पर पुनः उदित हो (Kavita)

May 1965

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जीवन के इस विषम-क्षेत्र को, सम कर-चरण धरो!

प्रेम-शान्ति समता के जलधर-बन, संचरण करो!!

युग का पथ कंटकाकीर्ण अति, तम छाया भारी।

पथ प्रशस्त करना ही होगा, सुन्दर-सुखकारी॥

तुम हो कवि, युग के निर्माता! सृष्टा, सत्य-पुजारी।

करो प्रज्वलित चेतनता की, नव-मशाल शुभ प्यारी॥

नई क्रान्ति के लिए आज -फिर, नव-उपकरण धरो।

गत से ले विश्वास, अनागत का अनुकरण करो॥

कथनी तज, करना कुछ होगा-नया समाज बनाने।

बढ़ना होगा भेद-भाव तज, मानवता अपनाने॥

प्रान्त-देश की सीमाओं में, बँधे अगर अनजाने

तो उद्धार असंभव, देखो सुमन लगे मुरझाने॥

आज एकता सोमनस्य का, मत अपहरण करो!

कटुताओं का विष विश्व-सम पी, जग संभरण करो!!

नये क्षितिज पर पुनः उदित हो, नूतन-सा दिनमान।

श्रम की भागीरथी प्रवाहित हो, कर कल-कल गान॥

‘अब आराम हराम’ न कर लें-जब तक नव-निर्माण।

गूँज उठे घर-घर यह नारा, हो नभ का अवसान॥

मृत्युञ्जय तुम, आज मृत्यु का हँस-हँस वरण करो।

बलिवेदो को सिर-सुमनों से भर, निज चरण धरो॥

-रामस्वरूप खरे

*समाप्त*


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