इन चालीस-पचास वर्षों में विज्ञान की सहायता से दुनिया परस्पर बहुत निकट आ गई है। अनेकों संस्कृति सभ्यताओं का मिलन हुआ, जिसका प्रभाव हमारे सामाजिक ढाँचे पर भी काफी पड़ा है। नई शिक्षा, सभ्यता, सामाजिक व्यवस्था से प्रभावित वर्तमान पीढ़ी पिछली पीढ़ी के जमाने के स्वभाव, संस्कारों से सर्वथा भिन्न है। नई विचार धारा पुराने जमाने की विचार धारा से बहुत कुछ भिन्न है। इससे पुरानी और नई पीढ़ी में आज जमीन आसमान का अन्तर पड़ गया है। स्कूल, कालेजों से निकलने वाले शिक्षित युवक-युवतियाँ, नवीन सभ्यता से प्रभावित नयी पीढ़ी और पुरानी परम्परा, विचार धारा संस्कारों से ओत-प्रोत पुरानी पीढ़ी-दोनों में एक संघर्ष, खींचातानी-सी आज चल रही है और परस्पर एक दूसरे से असन्तुष्ट परेशान हैं।
नई सभ्यता में पले हुए युवक-युवतियों से वृद्ध-जन, पुरानी पीढ़ी के लोग अपनो ही जमाने की-सी परम्पराओं का अनुगमन चाहते हैं। ऐसा न करने पर वे उन्हें कोसते हैं, गाली देते हैं, उल्टा-सीधा कहते हैं। नये जमाने के स्वतन्त्र और आजाद तबियत के युवक-युवतियों को वृद्धजनों की यह रोकथाम बुरी लगती है, अतः वे अनुशासन-हीनता, लापरवाही, उपेक्षा, अनादर का रास्ता अपनाते हैं। पुरानी और नई पीढ़ी का यह संघर्ष एक आम चीज हैं। पुराने जमाने में पली हुई सास तो अपने समय की मर्यादा, मान्यता, परिस्थितियों में बहुओं को कसना चाहती है, दूसरी ओर आजकल के स्वतन्त्रता समानाधिकार के वातावरण से प्रभावित आधुनिक नारी अपने जीवन के कुछ और ही स्वप्न लेकर आती है। दोनों पक्षों में परस्पर प्रतिकूलता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और इसी से संघर्ष का सूत्रपात हो जाता है।
वस्तुतः पुरानी और नई पीढ़ी का संघर्ष नूतन और पुरातन का संघर्ष है, जो थोड़ी बहुत मात्रा में सदैव रहता है। किन्तु वर्तमान युग में अचानक भारी परिवर्तन हो जाने के कारण टकराव की परिस्थितियाँ अधिक स्पष्ट और प्रभावशाली बन गई हैं, जिससे संघर्ष को और भी अधिक बल मिला है। आज एक ही परिवार की माँ और बेटी में जमीन-आसमान का अन्तर हो गया है। जिस माँ ने घर की चहारदीवारी में, पर्दे की ओट में, दिन-रात गृहस्थी की चक्की चलाकर, अपने सुख सुविधाओं का ध्यान रखे बिना ही रूखा-सूखा खाकर फटा-टूटा पहनकर जीवन बिताया, उसकी ही बेटी शिक्षित होकर, आधुनिक रहन-सहन, व्यवहार, स्वतन्त्रता की अभ्यस्त बन गई है। वह सामूहिक कार्यक्रमों में भी भाग लेती है। माँ की अपेक्षा उसके जीवन की गति विभिन्न विस्तृत क्षेत्रों तक फैल गई है। इसी तरह पिता और पुत्र में भी यही असमानता पैदा हो गई है। जो पिता मेहनत, मजदूरी करके साधारण गरीबी का जीवन बिताता रहा, जिसके जीवन की सीमित आवश्यकता और सीमित दायरा रहा, उसी का पुत्र शिक्षित होकर उच्च पद पर नौकरी करता हैं अथवा बड़ा व्यापार करता है, राजनीति में भाग लेता है, सामूहिक कार्यक्रमों में हाथ बंटाता है। उसका रहन-सहन, मानसिक स्तर, बोलचाल, व्यवहार, जीवन स्तर के ढाँचे में भी बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ हैं। इस बहुत बड़े परिवर्तन से पुरानी और नई पीढ़ी के बीच बहुत बड़ा अन्तर हो गया है। इसके साथ ही पुरानी पीढ़ी की पुरातन के और नई पीढ़ी की नवीनता के प्रति अनन्य आस्था, अन्ध निष्ठा, आसक्ति का होना दोनों के संघर्ष को और भी तूल दे देते हैं।
इस संक्रमण काल में जब कि नई और पुरानी पीढ़ी एक साथ समानान्तर रूप से चल रही हैं दोनों में सामञ्जस्य, एकता, परस्पर सहयोग, स्नेह, सौहार्द का वातावरण बनाना आवश्यक है। इसी से मानव जाति के विकास का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। इसके लिए दोनों पक्षों को अपने-अपने दृष्टिकोण में थोड़ा बहुत परिवर्तन करना ही पड़ेगा। पुरानी पीढ़ी को समय के अनुसार अपने आपको ढालना होगा, और नई पीढ़ी को एक सीमा तक अपनी इच्छानुसार रहन-सहन अपनाने की छूट भी देनी होगी।
नई पीढ़ी के जीवन जीने के तौर-तरीकों में अनावश्यक हस्तक्षेप भी न किया जाय, खासकर व्यक्तिगत जीवन की बातों में तो जहाँ तक बने ध्यान ही नहीं देना चाहिए। जहाँ नई बहुओं के जीवन की छोटी-छोटी बातों पर टीका टिप्पणी की जाती है, आलोचनायें होती हैं, उनके जीवन की स्वाभाविक बातों, मानवीय अधिकारों पर चोट की जाती है, तो सहज ही संघर्ष और कलह एवं अशाँति की आग भड़क उठती है।
नई पीढ़ी के युवक-युवतियों को भी वृद्ध-जनों के प्रति अपने कर्त्तव्य, उत्तरदायित्व आदरभाव, अनुशासन के लिए सतर्क और सावधान रहना आवश्यक है। अपने थोड़े बहुत शाब्दिक ज्ञान, दिमागी विकास के बल पर झूठा गर्व करके वृद्ध-जनों के लम्बे अनुभवों, व्यावहारिक जीवन की ठोस शिक्षा के प्रति उपेक्षा नहीं बरतनी चाहिए। आदर और अनुशासन के द्वारा वे वृद्ध जनों के अनुभव, व्यवहारिक ज्ञान का प्रश्रय लेकर जीवन में अधिक उन्नत हो सकते हैं। आदर, सत्कार, अनुशासन और सहिष्णुता के द्वारा तो वृद्ध-जनों के हृदय को सहज ही जीता जा सकता है। नई सभ्यता, जो अभी मानव-जीवन के व्यवहारिक, क्रियात्मक पहलू पर ठीक-ठीक नहीं उत्तर पाई है उसके बाह्य ढांचे पर मोहित होकर पुरातन व्यवस्था नियम मर्यादाओं को उखाड़ फेंकना बड़ी भारी भूल होगी। यह अपने लिए उस रास्ते वा अवलम्बन लेना होगा जिसके भविष्य का ठीक-ठीक पता नहीं हैं। असुरक्षा और अनिश्चितता का रास्ता पकड़ना बुद्धिमानी नहीं कही जा सकती। पुरातन का सहयोग लेकर, उसके तथ्यों की कसौटी पर नवीन को कसकर, उसे उपयोगी बनाने का काम पूरा होने पर ही उसे छोड़ा जा सकता है। इसी काम की जिम्मेदारी नई पीढ़ी पर है, और वह है पुरातन और नवीन के संयोग से उपयुक्त पथ का निर्माण करना।
संघर्ष का सरल समाधान समन्वय है। ‘लें’ और ‘दें’ की समझौतावादी नीति से क्लेश कलहपूर्ण अनेकों गुत्थियाँ सुलझ जाती हैं। थोड़ा-थोड़ा दोनों झुकें, तो मिलन का एक केन्द्र सहज ही मिल जाता है। नई पीढ़ी को उग्र और उच्छृंखल नहीं होना चाहिए। उसे भारतीय परम्पराओं का मूल्य और महत्व समझना चाहिए, जिससे शिष्टता, सभ्यता और सामाजिक सुरक्षा की बहुमूल्य मर्यादाओं में रहते हुए उसे शान्ति व्यवस्था और प्रगति का समुचित अवसर प्राप्त होता रहे। इसके साथ-साथ पुरानी पीढ़ी को भी बच्चों के स्वभाव, चरित्र पर ही विशेष ध्यान देना चाहिये। पहनने-ओढ़ने या हँसने-खेलने में वे आधुनिक तरीके अपनाते हैं तो उन पर इतना नियन्त्रण भी नहीं करना चाहिए, जिससे वे विरोधी, विद्रोही, उपद्रवी या अवज्ञाकारी के रूप में सामने आवें। इस विषय में थोड़ा ढीला छोड़ना ही बुद्धिमानी है।
स्वभाव, विचार, परम्पराओं की आस्था, दृष्टिकोण के साथ-साथ पुरानी ओर नई पीढ़ी के संघर्ष का एक कारण मानव-जीवन में बढ़ती हुई संकुचितता, संकीर्णता भी मुख्य है। विज्ञान के साथ-साथ मनुष्य की गति दूर-दूर तक सम्भव हुई, किन्तु उसी अनुपात में उसका हृदय संकुचित और संकीर्ण बन गया। नई पीढ़ी की वृत्ति अपने आप तक सीमित होने लगी है, अपना सुख, अपना आराम, अपना लाभ। अपनेपन और अपने लाभ को प्रमुखता देने वालों के लिए असमर्थ, जराजीर्ण, अकर्मण्य, वृद्धजनों का पड़े-पड़े चारपाई तोड़ना अच्छा नहीं लगता। रोग-ग्रस्त, अन्धा, अपाहिज हो जाने पर तो वृद्ध-जनों का जीवन और भी कठिन हो जाता है। बेटे बहुओं द्वारा होने वाला तिरस्कार, निरादर कुछ कम कष्टकारक नहीं होता। उधर वृद्ध-जन भी मानसिक शिथिलतावश, चिड़चिड़ाहट युक्त आलोचना, यहाँ तक कि गाली-गालोच से पेश आते हैं। अधिकाँश घरों में यह संघर्ष चलता रहता है। वृद्ध-जन, पुरानी पीढ़ी के लोग नई पीढ़ी के लिए सर दर्द बने हुए हैं, तो पुरानी पीढ़ी को जीवन निर्वाह की चिंता युक्त शिकायत है।
इसके निवारण के लिए दोनों ही पक्षों को विवेकयुक्त कदम उठाने चाहिए। जिन्होंने अपना सर्वस्व लुटाकर प्यार दुलार के साथ नई पीढ़ी के निर्माण में योग दिया, उन वृद्ध-जनों को, चाहे वे जरावस्थावश किसी भी हालत में हों, देवताओं की तरह सेवा पूजा करके उन्हें सन्तुष्ट रखना नई पीढ़ी का आवश्यक कर्त्तव्य है, उनकी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखना उन्हें स्वयं कष्ट सहकर भी पूर्ण करने का प्रयत्न करना चाहिए। ऋषियों ने ‘मातृ देवो भव’ पितृ दवो भव ‘आचार्य देवो भव’ का सन्देश इसी अर्थ से दिया होगा। दूसरी ओर वृद्धजनों को भी जीवन में ऐसी तैयारी करनी चाहिए, जिससे वे नई पीढ़ी के लिए भार रूप तिरस्कार का कारण न बनें, वरन् अपने जीवन की ठोस अनुभवयुक्त शिक्षा, योग्यता से नई पीढ़ी को जीवन यात्रा का सही मार्ग दिखायें। वानप्रस्थ और संन्यास का विधान इसीलिए रखा गया था। इसमें पुरानी पीढ़ी नई को अपने ज्ञान अनुभवों से मानव मात्र को सही शिक्षा देकर, सद्ज्ञान की प्रेरणा देकर उन्नति एवं कल्याण की ओर अग्रसर करती रही है। घर में पड़े-पड़े चारपाई तोड़ना, बेटे-बहुओं के वाक्य दंशों से पीड़ित होना, उनके स्वतन्त्र जीवन में रोड़ा बनकर खटकते रहना, मोह से ग्रस्त होकर दिनों दिन बच्चों में लिपटना मानव जीवन की उत्कृष्ट स्थिति-वृद्धावस्था का अपमान करना है। इससे जीवन में दुःख, अशान्ति, क्लेश, पीड़ा का सामना करना स्वाभाविक ही है। पुरानी पीढ़ी के लिए यदि अपने सदुपयोग, सम्मान, उत्कृष्टता का कोई रास्ता है, तो वही है जो हमारे पूर्व मनीषियों ने बुझाया था। घर में बन्धन, स्वजनों में मोह आसक्ति, वस्तुओं के आकर्षण से मुक्त होकर वानप्रस्थ या संन्यास जीवन बिताना और अपने अनुभव, ज्ञान, योग्यता से जन समाज को सही सही रास्ता बताना, इसी में पुरानी पीढ़ी के जीवन का सदुपयोग है।