पक्षी जब किसी हिंसक जन्तु को अपनी ओर आता हुआ देखते हैं तो एक विशेष प्रकार से शोरगुल मचाते हैं। इससे दूसरे पक्षी या रास्तागीर सावधान हो जाते है। वे समझ लेते हैं कि इस स्थान पर सर्प, नेवला या कोई ऊदबिलाव आदि है, इससे वे आकस्मिक हमले से बचाव कर लेते हैं। पक्षियों के शोरगुल की तरह ही रोग मनुष्य शरीर की आवश्यकता है। रोग किसी वस्तु का नाम नहीं है। यह एक प्रकार की स्थिति का नाम है जो किसी शारीरिक विकृति रुकावट या हलचल को प्रकट करती है। इससे लोग सावधान हो जाते हैं और अपना इलाज प्रारम्भ कर उस खराबी को दूर कर देते हैं।
इससे यह प्रकट है कि रोग मनुष्य का अभिशाप नहीं वरदान है। प्रकृति ने शरीर में जो सन्तुलन पैदा किया है, उसमें गड़बड़ी होने से ही मृत्यु होती है। रोग इस गड़बड़ी का पूर्वाभास है। यह न हो तो मनुष्य को पता भी न चले और अल्पायु में ही उसकी मृत्यु हो जाय। क्योंकि आन्तरिक अंगों की सम्यक् सफाई और देख-रेख कर सकना मनुष्य के वश की बात नहीं है। वह अपने भीतरी अवयवों को देख तक नहीं सकता। इस अवस्था में यदि रोग उत्पन्न न हो तो मनुष्य शारीरिक असन्तुलन को समझ नहीं सकता और अपना स्वास्थ्य कायम नहीं रख सकता ।
मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि जो लोग अपने प्रियजनों की मृत्यु या विछोह अथवा अन्य दुःखद स्थिति में रोते नहीं, उनके मानसिक विकारों का धुआँ आँखों में छा जाता है और उन्हें कमजोर बना देता है। कठोर हृदय के व्यक्तियों की आंखें अधिक खराब होने के पीछे यही मनोवैज्ञानिक तथ्य कार्य किया करता है।
यह स्थिति शरीर के प्रत्येक भाग में होती है। दाँतों में मैल जमने लगेगा तो पायरिया होगा। पेट में मल बढ़ेगा तो अजीर्ण अपच और कोष्ठबद्धता के दुष्परिणाम दिखाई देंगे। रक्त में उत्पन्न विकार ही दाद, खाज और एक्जिमा का कारण होता है। रोग कोई भी हो, वह अंग-विशेष में उत्पन्न विकार को प्रकट करता है। इस दृष्टि से रोग को अपना सहायक, सचेतक ही मानना चाहिए।
प्रोफेसर एडमण्ड जैकली ने अपनी पुस्तक में वाशिंगटन की डी. सी. बोर्ड आफ एजुकेशन के स्कूलों के बालक-बालिकाओं की रिपोर्ट से विभिन्न आँकड़े प्रस्तुत करते हुए स्पष्ट किया है कि रोग मनुष्य शरीर की प्राकृतिक आवश्यकता है। जो आँकड़े दिखाए हैं, इस प्रकार हैं :-
दांतों की खराबी से- 100 लाख पीड़ित
टाँसिल, एडिनाड व
अन्य ग्लैंड रोग 30 लाख “
साधारण रोगों से 50 लाख “
आहार की अनियमितता 40 लाख “
रीढ़ के रोग 10 लाख “
क्षय रोग 10 लाख “
विविध स्थायी रोग 4 लाख “
इन आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि अधिकाँश लोगों को कोई न कोई रोग अवश्य होता है। रोग शरीर का एक प्रकार का धर्म है जो उत्पन्न विकारों के अधर्म से शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा करता है। रोग स्वास्थ्य और जीवन-शक्ति का रक्षक है। इसलिए इससे कभी दुःखी, चिन्तित तथा निराश नहीं होना चाहिए। देखना यह चाहिए कि रोग का उद्देश्य क्या है। अर्थात् यह रोग किस प्रकार के मल विकार या शारीरिक गड़बड़ी को प्रकट करता है। उस विकार को दूर करना और आगे के लिए उस स्थान पर मजबूत मोर्चेबन्दी करना, यही रोग का उद्देश्य है।
अमेरिका के प्रसिद्ध डॉ0 बनेडिल लस्ट का कथन है कि “स्वास्थ्य एक प्रकार का बहुमूल्य खजाना है, किन्तु उसकी जाँच तभी होती है, जब वह खोता है, अर्थात् रोग पैदा होता है।” स्वास्थ्य वस्तुतः अच्छे रहन-सहन पर निर्भर है पर यदि रोग उत्पन्न होता है, तो यह समझना चाहिए कि हमारे खान-पान, आहार-विहार, व्यायाम, निद्रा आदि में कहीं कोई गड़बड़ी है।
रोग किसी आकस्मिक घटना से उत्पन्न नहीं होता। यह शरीर के विकारों के रूप में धीरे-धीरे जमा होता है। जब इन विकारों का परिपाक हो जाता है या जब शरीर के लिए असह्य हो उठता है तो कहने लगते हैं अमुक रोग हो गया है। प्राकृतिक चिकित्सक रोग का कारण केवल पेट को ही मानते हैं। उनके सिद्धान्त के अनुसार अनुचित मिर्च-मसाले और अप्राकृतिक भोजन के कारण पेट के पाचक अम्ल विकृत हो जाते हैं और पाचन-क्रिया पर उनका दूषित असर पड़ता है। इससे पेट में मल बढ़ना शुरू हो जाता है। इस मल में से एक प्रकार का विषैला पदार्थ निकल-निकलकर रुधिर के साथ मिल जाता है। इस विजातीय पदार्थ के कोषाणु भारी होते हैं जो किसी कोमल स्थान पर पहुँचते ही आगे बढ़ने से इनकार कर देते हैं, जिससे रक्त संचालन के मार्ग में रुकावट पैदा होती है। विजातीय द्रव्य आ-आकर इस रुकावट में फँसता जाता है। इस प्रकार जब एक स्थान पर यह दूषित पदार्थ अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाता है तो वह गड़बड़ी पैदा करने लगता है। चकत्ते पड़ जाना, खुजली, मवाद, एक्जिमा, गठिया, आदि इस मल के अधिक मात्रा में जमा हो जाने के कारण ही हो जाते है।
जब तक पेट में मल का सड़ना भयंकर रूप से शुरू नहीं हो जाता, तब तक रोग की स्थिति सामान्य रहती है, किन्तु आंतों और मल के बीच की दीवार में जब संपर्क स्थापित हो जाता है तो इस मल के छोटे-छोटे कीटाणु रक्त और माँस में प्रवेश पा जाते हैं। यहाँ उनके अंडे, बच्चे बनने लगते हैं और नियमित रूप से रोग के कीटाणुओं का परिवार बढ़ने लगता है। जब इनकी सेना बढ़ जाती है तो ये सारे शरीर में फैलना शुरू हो जाते हैं। परिणामस्वरूप शरीर में घातक हलचल होने लगती है। ज्वर आने लगता है। वात, पित्त और कफ के अनुपात से कोई विशेष रोग बन कर तैयार हो जाता हैं। जब तक रक्त के शुद्ध जीवनदायी जीवाणु सशक्त रहते हैं, वे इन कीटाणुओं से लड़ते हैं, किन्तु यदि शारीरिक शक्ति निर्बल पड़ गई तो वह शुद्ध जीवाणु भी कीटाणुओं का कार्य करने लगते हैं और शरीर का रोग गम्भीर रूप में परिलक्षित होने लगता है।
इसलिये रोग हमें प्रकृति के नियमों को पालन करने में एक प्रकार का निरीक्षक का कार्य करता है। जो मनुष्य इन नियमों का सही-सही पालन करता है वह सदैव स्वस्थ रहता है, जो इनका उल्लंघन करता है रोग उन्हें डरा देता है।
उदाहरण के लिए दो नवयुवकों को लीजिए। एक को पूरी तरह भूख लगती है, ठीक प्रकार शौच हो जाता है, शरीर में आलस्य नहीं रहता, खूब स्वस्थ रहता है। कारण का पता लगाते हैं तो मालूम पड़ता है कि वह नवयुवक खूब श्रम करता है, खुले खेतों में, कड़ी धूप में काम करता है। भूख लगने पर ही खाता है, पर्याप्त निद्रा जब तक नहीं ले लेता तब तक दूसरा काम नहीं करता, उसका आहार सादा होता है, स्नान सफाई का भी उसे ध्यान है। इन प्राकृतिक नियमों के पालन से ही वह पूर्ण स्वस्थ और बलिष्ठ है। पर उसकी बगल में एक दूसरा लड़का रहता है। दिन चढ़े तक सोना, कडुआ, कसैला भोजन करना। परिश्रम से वह बेतरह घबड़ाता है। बड़ी अस्त-व्यस्त दिनचर्या है उसकी। इसीलिए तो उसे कब्ज बन रहता है, भूख तो जैसे बिलकुल ही मर गई हो। आलस्य के मारे दिन-भर चारपाई नहीं छोड़ता। शरीर में जान नहीं रह गई है। यह स्थिति इसलिए हो गई कि उसने प्रकृति की मर्यादाओं का पालन करने में आनाकानी की। अब उसने पड़ोसी की हालत देखकर समझ लिया है कि रोग से बचना है तो पर्याप्त श्रम जरूर करना होगा, निद्रा, विश्राम, सफाई और खान-पान में भी पूर्ण सावधानी रखनी पड़ेगी।
रोग हमें प्राकृतिक नियमों पर चलने-अर्थात् स्वस्थ रहने की शिक्षा देता है, किन्तु जो इस आवाज को सुनते, परखते नहीं, वह धोखा उठाते हैं। जो रोग की प्रारम्भिक अवस्था में ही संभल कर अपना स्वास्थ्य सुधार लेते हैं, उन्हें ही बुद्धिमान कहा जायेगा। हमें किसी भी हालत में रोग की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।