जीवन की सार्थकता पर कठोपनिषद् में बाजिश्रवा के पुत्र नचिकेता और यमाचार्य के बीच बड़ा ही महत्वपूर्ण कथोपकथन आया है। यम कहते हैं-
अन्यच्छ्रे पोऽन्यदुतैव प्रेय-
स्ते उमे नानार्थे पुरुष œसिनीतः।
तयोः श्रेय आददानस्य साधु
भवति दीपतेऽर्थाद्य उ प्रेयो वृणीते॥ । 1। 2। 1
“हे नचिकेता! कल्याण के साधन को ग्रहण करने वाले पुरुष का कल्याण होता है और जो साँसारिक भोगों में फँसते हैं, वे सत्य-लाभ से गिर जाते हैं। क्योंकि नेकी के साधनों में और साँसारिक भोग के साधनों में विभिन्नता है। दोनों ही पृथक-पृथक फल देने वाले हैं।”
श्रेय और प्रेय दोनों विभिन्न प्रयोजन वाले हैं और दोनों ही पुरुष को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। परन्तु उनमें से जो अच्छाई का मार्ग अपनाते हैं, उन्हें इस संसार में सुख मिलता है। लौकिक तृष्णाओं की ओर भागने वालों को इस मनुष्य-देह धारण करने का कोई आनन्द नहीं मिलता। प्रेय चाहने वाले व्यक्ति मनुष्यत्व से गिर जाते हैं। वे अपने लिए खाई खोदते हैं, दूसरे भी उसमें गिर जाते हैं।
साँसारिक सुखों की लालसा और फल की कामनायें मनुष्य की स्वार्थी बनाती हैं। अहंकार में फँसकर मनुष्य कर्त्तव्य पालन से गिर जाता है और जीवन में अशान्ति तथा अव्यवस्था छा जाती हैं। इस संसार की रचना इस प्रकार हुई है कि सब लोग मिल-बाँटकर यहाँ के सुखों का उपभोग करें। ऐसा तभी सम्भव है, जब मनुष्य अपने निजी सुखों की अपेक्षा कर्त्तव्य-पालन का महत्व अधिक समझे। यदि ऐसा न हुआ तो कलह बढ़ेंगे, छीना-झपटी होगी, राग-द्वेष, ईर्ष्या-प्रमाद और दुर्भावनायें बढ़ेगी और इस तरह जो थोड़े से सुख होंगे, उनका भी पतन हो जायगा।
संसार में जितने भी भौतिक पदार्थ मनुष्य को उसके उपयोग के लिये मिले है, उनकी एक परिमित मात्रा ही उसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये काम में लानी हैं। यदि किसी के पास आवश्यकताओं से अधिक जमा हो जाय तो उसे वहाँ लगा देना चाहिये, जहाँ उसकी कमी पड़ रही हो या दूसरे लोग आवश्यकता अनुभव कर रहे हों। सारा मनुष्य-परिवार एक है। आत्मा अपने व्यक्तिगत शरीर और परिवार तक ही सीमित नहीं, बल्कि वह विराट जगत का अधिष्ठाता है और सबके सुखी रहने में ही उसे सुख मिलता है। स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियाँ उसे प्रिय नहीं। नेकी की राह चलने वाले को ही वह अपने वरदान देकर सुखी संतुष्ट और पूर्ण तृप्त बनाता है।
ईमानदारी के मार्ग में आत्मा की दैवी शक्तियों का सहयोग मिलता है। यह सोचना भूल है कि सन्मार्ग में बाधायें हैं, कष्ट और असुविधायें हैं। सच्चे व्यक्ति को किसी भी गुप्त भेद के प्रकट होने का कोई भय नहीं रहता। वह तो खरा होता है। अपने स्वाभिमान के आगे इन्द्रासन को लात मारकर दूर कर देता है। क्या करेंगी बाधायें भला उस इन्सान का जिसमें सत्य का, श्रेय का बल होगा। हरिश्चन्द्र की तरह वे अपनी अग्नि परीक्षाओं में सफल होकर संसार में ऐसे चमकते हैं, जैसे सूर्य, चन्द्रमा। लोग तो रोज ही मरते हैं पर उनकी मौत पर बहुत थोड़े ही आँसू बहाते हैं पर श्रेय और सत्य का अनुसरण करने वाले जब इस संसार से विदा होते है, तो सारी दुनिया की आंखें गीली हो जाती हैं। भगवान, राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा, सुकरात, महात्मा गान्धी आदि महापुरुषों का स्मरण करते हुए आज भी लोगों के गले भर आते हैं। वे शान से जीते हैं और शान से मरते हैं। किसी भी कसौटी पर चढ़ा देने पर भी वे चमकते ही रहते हैं।
जो व्यक्ति यह समझता है कि बेईमानी से, लोगों की आँखों में धूल झोंककर बढ़ता रहेगा, वह वास्तव में बड़ी भूल करता है। अनीति एक प्रकार की अग्नि है, जिससे अपना लोक और परलोक नष्ट ही होता हैं।
सबको अपना समझते हुये, उनके, सुख-दुःख में हाथ बटाते हुये तथा तन, मन, धन से औरों की सहायता करते हुये लोग अपना ही भला करते हैं, अपने आपको विस्तीर्ण करते हैं-फैलाते हैं, सीमा से उन्मुक्त हो कर अनन्तता की और, असीमत्व की और पदार्पण करते हैं। सर्वात्मभावपूर्वक सुखों के उपभोग में वह आनन्द आता है। जिसका शताँश भी अकेले भोग करने में नहीं आता। बेटे से बाप का दर्जा भी इसीलिए बड़ा है कि वह अपनी तृप्ति अपने बेटे की तृप्ति में मानता है। इस आत्म-भाव का नैतिक सद्गुणों के रूप में जितना अधिक विकास होता है, उतना ही आत्मा पुलकित और प्रफुल्लित होती है।
फल, आशक्ति, अहंता, ममता से रहित होकर संसार के हित के उद्देश्य से कर्त्तव्य-कर्म करना ही मनुष्य जीवन का मूल-लक्ष्य है। गीता में भक्तियोग, ज्ञान योग तथा कर्म योग-इन सब साधनों का प्रधान उद्देश्य यह है कि किसी का परम हित हो। इस उद्देश्य की पूर्ति तभी हो सकती है, जब लोग स्वार्थ और अभियान से रहित होकर सम्पूर्ण प्राणियों के साथ त्याग, समता, सहिष्णुता, उदारता, प्रेम और विनय-युक्त व्यवहार करें। उत्तम आचरण और अन्तःकरण के उत्तम भावों से ही मनुष्य की मनुष्यता विकसित होती है। यह न हो तो फिर मनुष्य और शैतान में अन्तर ही क्या रह जाता है।
सत्याग्रह और सदाचरण आत्मा के दो बेटे हैं। इन्हें मारकर कोई भी व्यक्ति आत्म-निष्ठा का लाभ प्राप्त नहीं कर सकता। हनन की हुई आत्मा ही अनीति की ओर प्रेरित करती और दुष्कर्म कराती है। असत्य कर्म करते रहने से धीरे-धीरे आत्मा मूर्छित हो जाती है, तब फिर उसमें अधर्म का प्रतिरोध करने की भी क्षमता नहीं रहती।
पाप का फल भोगे बिना कोई मनुष्य बच नहीं सकता। गीता का “अवश्यमेव भोक्तव्यं कर्म फल शुभाशुभं” सिद्धान्त अटल है। मनुष्य दुष्कर्मों का दुष्परिणाम भोगे बिना बच नहीं सकता। आग में उँगली देने वाला जले नहीं, ऐसा कभी हुआ नहीं। प्राकृतिक नियम अमिट हैं। गलती करने वालों को दण्ड मिलना स्वाभाविक भी है। अतः मनुष्य की समझदारी इसमें है कि सत्यता और ईमानदारी का ही बर्ताव अन्त तक करता रहे। ईमानदारी की रूखी रोटियाँ बेईमानी के पकवानों से अधिक स्वादिष्ट होती हैं, क्योंकि उनमें निर्भयता, निश्छलता और आत्मा का तेज समाविष्ट होता है।
यदि किसी ने भोग को ही अपने जीवन का लक्ष्य मान लिया है और उसके लिये हर उचित- अनुचित साधन अपनाने के आतुर रहता हैं तो उसकी भी कुछ हद होती हैं। अनियंत्रित भोग की कामना से भोग भोगने की क्षमता नष्ट हो जाती हैं। इन्द्रियाँ निर्बल और निस्तेज हो जाती है। मन बेकाबू हो जाता है। बुद्धि का नाश हो जाता है। शरीर और मन के अनेकों विकार उठ खड़े होते हैं और अनेकों आपत्तियाँ घेरकर खड़ी हो जाती हैं। कहते हैं “पहले मनुष्य भोग भोगता है, बाद में भोग मनुष्य को भोगते हैं।” अर्थात् मनुष्य केवल इच्छाओं और वासनाओं का दास होकर रह जाता है और इस तरह उसे अकाल ही काल के गाल में चले जाने का दुर्भाग्य प्राप्त होता है।
मनुष्य सत्य-पथ का, प्रकाश-पथ का यात्री है। झूठ और मिथ्याचार के आकर्षण में फँसकर उसे अपने जीवनोद्देश्य से क्यों पतित होना चाहिये? अधर्म से धन जमा करने की अपेक्षा यही अच्छा है कि मनुष्य सत्य आचरण करता हुआ गरीब बना रहे। जो साधन अधर्मपूर्वक प्राप्त किये जाते हैं, वे मनुष्य को अन्ततः रुलाये बिना नहीं छोड़ते।
जीवन जीने के दो ही रास्ते हैं, एक नीति का दूसरा अनीति का, एक नेकी का दूसरा बदी का। एक का नाम श्रेय है, दूसरा प्रेय। श्रेय पर चलने वाले सीधी सड़क पर चलते हुये, जीवन के सात्विक सुखों का उपभोग करते हुये सुविधापूर्वक अपने लक्ष्य तक पहुँच जाते हैं। यह मार्ग सर्व कामना सिद्ध है। दूसरा है इन्द्रियों को जो भाये, जिधर चलायें उधर चलने वाला मार्ग। कोई लक्ष्य नहीं, कोई उद्देश्य नहीं। ऐसा मनुष्य अन्त में कष्ट और कठिनाइयों के बीहड़ बन में भटक कर तरह-तरह के क्लेश पाता है। उसके लिये यह मनुष्य जीवन भार की तरह हो जाता है। यह स्थिति अवाँछनीय है। हम वह राह क्यों चलें जिसमें कष्ट हों, काँटे बिछे हुये हों। नेकी की राह एक ऐसा राजमार्ग है, जिस पर चलकर परमात्मा का राज- कुमार मनुष्य हँसते, खेलते, मौज लेते हुये जिन्दगी का रास्ता तय कर लेता है, और पूर्ण-सुख, चिर-विश्राम की शान्तिदायिनी स्थिति को प्राप्त कर लेता है।