सुन्दरता बढ़ाइए पर साथ ही आन्तरिक पवित्रता भी

April 1965

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अनेक आध्यात्मिक गुणों में एक गुण सौंदर्य और पवित्रता भी है। अपने आप को शुद्ध रखना तथा शृंगार प्रत्येक मनुष्य को प्रिय है। उसी प्रकार शुद्ध, शृंगार युक्त दूसरे मनुष्य भी बड़े प्रिय लगते हैं चाहे वह किसी अन्य जाति के ही क्यों न हो। गंदे तथा फूहड़ व्यक्तियों के पास किसी को बैठने का भी जी नहीं करता। अपने प्रिय जनों की सन्तुष्टि के लिये या आत्मतुष्टि के लिये ही क्यों न हो सजावट देखकर सभी का मन मुग्ध हो जाता है। शृंगार आत्मा का प्रिय विषय है, पवित्रता उसका प्रकाश है अतः इन्हें प्राप्त कर उसका सुखी होना स्वाभाविक ही है।

धर्म, जिस प्रकार मनुष्य मात्र की कल्याण और भलाई के व्यापक अर्थ में लिया जाता है, सम्प्रदाय, या वर्ग विशेष की संकीर्णता उसे अपवित्र करती है। उसी तरह अपना मैला शरीर शुद्ध कर लेना, या केवल स्वच्छ कपड़े पहन लेना ही शुचिता और सौंदर्य का अर्थ नहीं है। देह को साफ करने का कार्य तो पशु पक्षी भी कर लेते हैं। सुँदर शृंगार तो वेश्यायें भी कर लेती हैं। तरह-तरह का वेष-विन्यास बनाकर अनैतिक आचरण करने वालों के लिये तो शृंगार ही एक प्रकार का महामंत्र है, किंतु यह वास्तविक शृंगार नहीं आत्मघात है। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार की शुद्धि एवं शृंगार कर लेना विरले प्रेमी सज्जनों को आता है। शृंगार लौकिक कामनाओं का पूरक नहीं आत्मिक सद्गुणों का परिष्कार है। शुद्धि का अर्थ बाह्य शुद्धि नहीं, आन्तरिक पवित्रता है।

महात्मा सुकरात की सूरत-शक्ल अच्छी नहीं थी पर उन्होंने इसकी शिकायत कभी भी परमेश्वर से नहीं की। वे प्रार्थना किया करते थे ‘प्रभो! आप मुझे भीतर से सुन्दर बना दो।’ उनकी आन्तरिक सुन्दरता से ही आकृष्ट होकर बरबस लोग उनकी ओर खिंचे हुये चले आते थे। आत्मा के शृंगार में सचमुच एक ऐसा अमृत निर्झर टपकता है जिसका मधुपान कर मनुष्य का जीवन आनन्द विभोर हो जाता है। बाह्य शुद्धि और शृंगार में बहुत थोड़ा आकर्षण होता है किंतु जिसके अन्तःकरण का तरह-तरह के सद्गुणों के आभूषणों से शृंगार करना सीख लिया उसका जीवन सार्थक हो जाता है। जो भीतर से स्वच्छ होते हैं उन्हीं का बाह्य प्रकाश भीतर के प्रकाश से चमक कर लोगों के नेत्र और हृदय दोनों को प्रकाशित कर देता है। शरीर और आत्मा दोनों से देवत्व की आभा प्रस्फुटित हो इसके लिये आन्तरिक सौंदर्य उतना ही आवश्यक है जितना, बाह्य। दोनों के समन्वय से ही मनुष्य का जीवन पूर्ण पवित्र बनता है।

शरीर के प्रत्येक अंग को जल, मिट्टी, साबुन आदि के द्वारा शुद्ध रखना मनुष्य की बाह्य पवित्रता है। स्वच्छ और सुँदर वस्त्र, साधारण आभूषण यह भी बाह्य शृंगार में आते है किंतु आन्तरिक सौंदर्य के अभाव में यह शृंगार अधूरा है। मन, बुद्धि तथा अहंकार का भी उतना ही परिमार्जन होना चाहिये। नेत्रों में स्वाभाविक पवित्रता हो जिसमें हर स्त्री-पुरुष को माता-पिता सुहृद-सुजन के रूप में देख सकें। नेत्रों से फूटने वाली धूर्तता, कामुकता, अपवित्रता रहते हुये सारी बाह्य सफाई धोखा मात्र ही कही जायगी। उसी प्रकार शुद्ध और सरल वाणी का प्रयोग हो। जो सुने वह भी उतना ही पवित्र हो जितना कहने वाला। इस तरह बाह्याभ्यान्तरिक पवित्रता से ही मनुष्य के पवित्र जीवन का सूत्रपात होता है।

सन्ध्या वन्दनादि धार्मिक अनुष्ठानों का प्रथम मंत्र है-

अपवित्रः पवित्रोवाऽसर्वावस्थाँगतोऽ पिया।

यः स्मरेत्पुण्डरी कक्षो सः बाह्याभ्यान्तरःशुचिः॥

अर्थात् - अभी तक मेरी अपवित्र या पवित्र कोई भी अवस्था रही हो अब परमात्मा का स्मरण करने से मैं बाह्य और आन्तरिक दृष्टि से पवित्र हो गया हूँ।”

उपरोक्त सूक्त में दो बातें बताई गई हैं (1) पहली यह कि परमात्मा की उपासना के लिये पवित्रता अनिवार्य है। (2) वह पवित्रता बाह्य भी हो और आन्तरिक भी। अशुद्ध वस्तुओं का त्याग करना और शुद्ध वस्तुओं को धारण करना यह मनुष्य के व्यक्तित्व की कसौटी है इसके बिना यह अध्यात्मिक मार्ग पर एक पग भी आगे नहीं बढ़ सकता। इससे आवश्यक हो जाता है कि मनुष्य अपने को बाहर और भीतर दोनों ओर से स्वच्छ और पवित्र रखे। शरीर की, वस्त्रों की, घर की खान-पान तथा रहन सहन की शुद्धि मन की स्वस्थ अवस्था की द्योतक होती है। पर गंदगी मन की अस्वस्थता को प्रकट करती है। इससे स्वास्थ्य की खराबी के साथ ही व्यवहारिक जीवन में भी खराबी उत्पन्न होती है। किसी से सम्मान नहीं मिलता, कोई प्रेम नहीं करता, कोई मैत्री भी उन आदमियों से नहीं रखना चाहता जो बाह्य-शुद्धि पर ध्यान नहीं देते।

सौंदर्य-प्रिय व्यक्ति जिस तरह शरीर को शुद्ध रखकर उसका वस्त्राभूषण से शृंगार करते हैं, उसी प्रकार अन्तरंग जीवन को भी सद्गुणों, सद्भावों, सद्ज्ञान एवं आत्माभिमान से सजाया जाता है। बाहर और भीतर दोनों की शुद्धता पर प्रकाश डालते हुये स्वायंभु मनु ने लिखा है

अंद्विर्गात्रणि शुद्धयन्ति मनः सत्येन शुद्धयति।

विद्या तपोभ्याँ भूतात्मा, बुद्धिर्ज्ञानेन शुद्धयति॥

(मनुस्मृति 5। 109)

अर्थात्, जल से शरीर को, सत्य से मन को, विद्या और परश्चर्या से आत्मा को तथा ज्ञान से बुद्धि को शुद्ध बनाना ही सच्चा बाह्य और अंतरंग शृंगार है।”

मनुष्यों के स्वभाव को मलिन करने वाले राग, ईर्ष्या, अत्याचार, चिकीर्षा, द्वेष और असूया ये छः प्रबल बुराइयाँ शास्त्रों में बताई गई हैं, इनको शुद्ध किये बिना आन्तरिक सौंदर्य के दर्शन नहीं होते। बाह्य पवित्रता के लिये भी उसी तरह स्नान, शौच, वस्त्र, आहार, आवास आदि की शुद्धता चाहियें। पहली आवश्यकतायें आत्मा के लिये हैं दूसरी शरीर के लिये। आत्मा और शरीर दोनों जब स्वच्छ, पवित्र और रसयुक्त बनते हैं तभी वास्तविक शृंगार के दर्शन होते हैं।

साँसारिक भोगों की दृष्टि से बाह्य स्वच्छता पर प्रायः अधिकाँश ध्यान देते हैं, किंतु आध्यात्मिक शृंगार के बिना उस स्वच्छता का कोई आनन्द नहीं मिल पाता। मनुष्य का मन बड़ा चंचल होता है। इन्द्रियों के वशीभूत होकर मनुष्य राग-द्वेषादि कुप्रवृत्तियों में फँसकर अनिष्ट करता रहता है। मन की पवित्रता के लिये ईश्वर आराधन, सत्पुरुषों के सत्संग एवं सत्साहित्य के स्वाध्याय की बड़ी आवश्यकता होती है। पवित्र मन में अनेक गुणों का विकास स्वतः होने लगता है। लौकिक वस्तुओं को लेकर अभिमान, मोह, ममता, लोभ, क्रोध आदि द्वेष दुर्विकारों का त्याग ही अन्तर्जीवन की शुद्धि है। इसी प्रकार अपने अन्तःकरण में श्रद्धा, भक्ति, विवेक, सन्तोष, क्षमा, उदारता, विनम्रता, सहिष्णुता, एवं अविचल प्रसन्नता का धारण करना ही सुन्दर शृंगार है। केवल बाह्य शरीर के शृंगार पर ध्यान देना, मनुष्य के स्थूल दृष्टिकोण का परिचारक है। आत्म ज्ञान के साधकों तथा श्रेय के उपासकों के लिये आन्तरिक शृंगार की महत्ता अधिक है।

बाह्य सौंदर्य की आवश्यकता आन्तरिक सौंदर्य के साथ जुड़े रहने में ही है। अन्यथा वह उच्छृंखल बन जायगा और संसारी मनुष्यों को रिझाने में परतंत्रता भोगी बनना पड़ेगा। इस स्थिति के कारण ही आज अधिकाँश पाप के शिकार हो रहे हैं। यहाँ बाह्य जीवन के शृंगार पर आक्षेप करने का कोई उद्देश्य नहीं है पर यह स्पष्ट है कि बाह्य शृंगार ही जीवन का उद्देश्य नहीं बन जाना चाहिये।

शृंगार और शुद्धि आत्मा के विकास के विषय हैं इसमें सन्देह नहीं है किन्तु अपना दृष्टिकोण एकाँगी न होना चाहिये। हमें सौंदर्य के सच्चे स्वरूप को समझने का प्रयत्न करना चाहिये। मनुष्य की बाह्य पवित्रता से आन्तरिक शुद्धता का महत्व कम नहीं है वरन् यह दोनों ही एक दूसरे की पूरक हैं। मनुष्य का जीवन इन दोनों में उभयनिष्ठ होना चाहिये। तभी शृंगार की पूर्णता का आनन्द प्राप्त होता है। यह आनन्द मनुष्य को मिल सकता है पर इसके लिये अपनी आत्मा को सद्गुणों एवं सद्भावनाओं से ओत-प्रोत रखने की जरूरत होती है। शुद्ध शरीर, स्वच्छ मन और सद्चित्त वृत्तियों के द्वारा ही यह संयोग प्राप्त किया जा सकता है।


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