आदर्श गुरु शिष्य परम्परा फिर जागे ?

April 1965

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तैत्तिरीय उपनिषद् में “मातृदेवो भव”, “पितृ देवो भव” के साथ “आचार्य देवो भव” कह कर गुरु का महत्व माता-पिता के तुल्य बताया है। इतना ही नहीं अनेक स्थानों पर तो “गुरु साक्षात् परब्रह्म” कह कर उसकी सर्वोपरिता को भी स्वीकार किया गया है। वस्तु स्थिति भी ऐसी ही है। बच्चे के पालन-पोषण का कार्य माता-पिता करते हैं किन्तु उसे संस्कारवान बना कर सुसभ्य नागरिक बनाना आचार्य की जिम्मेदारी है। इस महान् उत्तरदायित्व के कारण ही गुरु मनुष्य समाज का देवता है। उसकी महत्ता पर जितना लिखा जाय उतना कम है।

हमारी प्राचीन पद्धति के अनुसार जैसे ही बालक की बुद्धि का विकास प्रारम्भ हो उसे योग्य गुरु को सौंप देने का विधान है। गुरुकुल प्रणाली में विद्यार्थी पूर्ण शिक्षित होने तक अपने गुरु के समीप रहकर जहाँ अक्षराभ्यास, भाषा बोध, व्याकरण, साहित्य, दर्शन आदि का अध्ययन करते थे वहाँ उन्हें चरित्र, सदाचरण, पवित्रता, आन्तरिक निर्मलता, अतिथि-सेवा भ्रातृ-भावना, सहयोग, सहानुभूति, परदुःख, कातरता और परोपकार की भी शिक्षा दी जाती थी। मानसिक प्रौढ़ता, विचारशक्ति, उत्तम स्वास्थ्य और शुद्ध जीवन लेकर स्नातक जिस क्षेत्र में प्रवेश करते थे उसी में सत्य को प्रतिस्थापित कर योग्य नागरिक कहलाने का श्रेय प्राप्त करते थे। जो अपने चरित्र और विद्वता को कसौटी पर कस कर पूर्णता प्राप्त कर लेते थे शिक्षा का गुरुतर कार्य उन्हीं को सौंपा जाता था। ताकि वे विद्यार्थियों को अक्षर ज्ञान के साथ सद्गुणों की क्रियात्मक शिक्षा भी दे सकें। इसके लिए वे पहले अपने उद्दात्त चरित्र की परीक्षा देते थे। जिनमें विद्यार्थियों के चरित्र और ज्ञान को परिपक्व बनाने की, उनके मन और जीवन को सत्प्रेरणाएँ देकर उत्कृष्ट बनाने की क्षमता होती थी उन्हें ही आचार्यत्व का गौरवपूर्ण पद प्राप्त होता था। श्रेष्ठ चरित्र की आधार-शिला पर विनिर्मित बालकों का जीवन भी तब भव्य और भला बनता था।

आज गुरु की आज्ञा का पालन करना तथा उनकी सेवा करना प्रतिगामिता का चिन्ह समझा जाता है। शिक्षा क्षेत्र में भौतिक शिक्षा पद्धति का पूर्णतया प्रचलन होने से अब शिक्षक भी वैसे निष्ठावान नहीं रहे। शिक्षकों का कार्य पाठ्य विषय को किसी तरह प्रतिपादित करके समझा देना और विद्यार्थियों ने शिक्षा का उद्देश्य केवल प्रमाण पत्र पा लेना समझ लिया है। शिक्षा के क्षेत्र में श्रद्धा प्रायः विलुप्त हो चली है और सभी ओर अनुशासन-विहीनता ही दृष्टिगोचर हो रही है। व्यवहारिक ज्ञान की शिक्षा देने का कोई प्रयोजन नहीं रह गया। नागरिक जीवन में प्रवेश पाने तक बालकों में इस कारण से न तो बौद्धिक आत्मनिर्भरता आ पाती है और न वे जीवन के सदुद्देश्य को ही समझ पाते हैं। सामाजिक जीवन जो अस्त-व्यस्त हो रहा है वह इसी के कारण है।

गुरु की महत्ता शिक्षा और गुणों तक ही सीमित नहीं है। सही ज्ञान का दिग्दर्शन कराना उनका प्रमुख उद्देश्य रहा है। मनुष्य संसार की अनेक समृद्धियाँ प्राप्त कर ले, सुख और सुविधाओं की किसी तरह की कमी न हो तो भी उसके शांतिमय जीवन की कल्पना नहीं की जा सकतीं। इस सृष्टि के “कारण” और “उद्देश्य” को समझे बिना शाश्वत आनन्द की अनुभूति नहीं होती। यह ज्ञान प्राप्त करना मनुष्य का मूल उद्देश्य है। विद्यार्थी जीवन में मनुष्य की बुद्धि कोमल और ग्रहणशील होती है अतः श्रेष्ठ संस्कारों के बीज उनमें डालना इस समय आवश्यक होता है। ब्रह्म सूत्र का प्रथम सूत्र-”अथातो ब्रह्म जिज्ञासा” - विद्यार्थी के मन की ज्ञान पिपासा को प्रकट करता है। विश्व की रहस्यमयी गुत्थियों को सुलझा कर परम सत्य की खोज करना मनुष्य जीवन का लक्ष्य भी है। लक्ष्य पूर्ति के साधना की आवश्यकता भी होती है। साधना अनुभवी पथ-प्रदर्शक की देख रेख में ही सम्पन्न हो सकती है। गुरु शब्द में ‘ब्रह्म विद्या’ का बोध होता है। साधना और ‘ब्रह्म विद्या’ के निष्णात आचार्य यह समझते थे कि साधना काल में साधक के जीवन में जो मोड़ और परिवर्तन लाने होते हैं उसके लिये विद्यार्थी जीवन सब से उचित है। इस समय मस्तिष्क में श्रद्धा और विश्वास अधिक होता है किन्तु मानसिक परिपक्वता प्राप्त कर लेने के बाद लोगों के विचार और संस्कारों को बदलना कठिन हो जाता है। इसके लिए अधिक शक्ति, समय और श्रम लगा कर भी परिणाम थोड़े ही निकलते हैं। विद्यार्थी जीवन में बुद्धि का उदय होता है इसलिए उसमें आसानी से श्रद्धा उत्पन्न करके ब्रह्मतत्त्व की ओर प्रेरित किया जा सकता है। इस बात को भारतीय आचार्यों ने गहराई तक समझ लिया था, इसीलिए जीवन के प्रारम्भ में ही शिक्षा के साथ साधना का समन्वय किया गया था।

गुरु के सान्निध्य में रह कर शिष्य साधना का तेजस्वी जीवन बिताते थे। तपोवेष्ठित होने से उनका शरीर स्वर्ण जैसा देदीप्यवान् होता था। संसार की कठिनाइयों से संघर्ष करने की उनमें शक्ति होती थी। वार्तालाप, विवेचन, विश्लेषण और विचार-विनिमय के द्वारा उनमें गंभीर चिंतन की प्रवृत्ति जागती थी। साधना और स्वाध्याय के सम्मिश्रण से उनको आत्म-ज्ञान की अनुभूति हो जाती थी। विद्यार्थी केवल गुण-पुँज या ज्ञान पुँज ही नहीं शक्ति-पुँज होकर भी निकलते थे। फलस्वरूप उन्हें भौतिक सुखों की कोई आकाँक्षा न होती थी तब वे अधिकार नहीं कर्तव्य माँगते थे। सेवा को वे व्रत समझते थे। साहस और कर्मठता उनमें कूट-कूट कर भरी होती थी। मनुष्य शरीर के रूप में उनमें स्वयं देवत्व निवास करता था। ऐसे मेधावी पुरुषों से यह भारत भूमि भरी पूरी थी। यहाँ सुख और समृद्धि की वर्षा हुआ करती थी।

गुरु के समीप रह कर जहाँ शिष्य इस तरह की खोजस्विता धारण करते थे वहाँ गुरु-विहीन पुरुषों की भर्त्सना भी होती थी। “निगुरा” शब्द एक तरह की गाली समझी जाती थी। इसे एक तरह का समाजिक अपराध समझा जाता था। माता-पिता पहले ही यह व्यवस्था बना लेते थे कि बालक को किसी आचारवान् तथा गुणवान गुरु के समीप भेज देना चाहिये। इससे वे अपने बालकों को गुरुविहीन होने के अपराध से बचा लेते थे।

ज्ञानवान् तथा बुद्धिमान् आचार्यों के मार्ग-दर्शन में रहकर जीवन की सर्वांगपूर्ण शिक्षा इस देश के नागरिकों ने पाई थी, इसी से वे अपने ज्ञान, संस्कृति और सभ्यता को प्रकाशित रख सके। गुरुकुलों के रूप में न सही, उतने व्यापक क्षेत्र में भी भले ही न हो किन्तु यह परम्परा अभी पूर्ण रूप से मृत नहीं हुई है। आज भी ब्रह्म विद्या के जानकार आचार्य और “अथातो ब्रह्म जिज्ञासा” के जिज्ञासु शिष्य यहाँ विद्यमान हैं किन्तु उनकी संख्या इतनी कम है कि ये किसी तरह लोक-जीवन में प्रकाश उत्पन्न नहीं कर पा रहे है। फिर भी संतोष यह है कि “गुरु-गौरव” अभी भी यहाँ सुरक्षित है और उसका पूर्ण विकास भी संभव है। इसमें कुछ देर भले ही लगे किन्तु आत्मा की ज्ञान-पिपासा को अधिक दिन तक भुलाया नहीं जा सकता। उसके जागने का समय अब करीब आ पहुँचा है।

एक बार फिर से विचार करना पड़ेगा कि पाश्चात्य प्रणाली पर आधारित आधुनिक शिक्षा-संस्थाओं में जो व्यवस्था चल रही है उससे क्या मानवीय जीवन की समस्यायें पूरी होती हैं? आज की शिक्षा का एक मात्र उद्देश्य अर्थ-प्राप्ति और कामोपभोग रह गया है। जीवन निर्माण तथा राष्ट्र के उत्थान के लिये ऐसी शिक्षा से कोई लाभ नहीं हो सकता। विद्यार्थी जीवन में तपश्चर्या, तत्परता और संयम भावना जागृत करने की आवश्यकता है। इसके लिये गुरु-शिष्यों के संबंधों में अनुशासन का भाव पैदा करना आवश्यक है।

इस आवश्यकता की पूर्ति के लिये सर्वप्रथम योग्य, विचारवान्, दृढ़ चरित्र तथा ब्रह्मवेत्ता अध्यापकों को ढूंढ़ निकालना पड़ेगा। शिक्षा की नींव जब तक चरित्रवान् व्यक्तियों के हाथों से नहीं पड़ेगी तब तक जातीय-विकास की समस्या हल न होगी। जो स्वयं प्रकाश फैलाने वाला है यदि वहीं अंधेरे में ठोकर खा कर गिरे तो दूसरों को वह उजाला क्या देगा? राष्ट्र को ज्ञानवान्, प्रकाशवान् तथा शक्तिवान् बनाने के लिये गुरु और शिष्य परम्परा का सुधार नितान्त आवश्यक है। लोक-जीवन में विकास की समस्या इसके बिना कभी भी पूरी न होगी।


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