वसुधैव कुटुम्बकम्

April 1965

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सूर्य की प्राण शक्ति प्रस्फुटित होकर जिस तरह वनस्पति जगत का विधान करती है, उसी प्रकार परमात्मा प्रकीर्ण हो कर सम्पूर्ण संसार का सृजन करता है। यह जो कुछ दिखाई देता है उसी की रचना है। जो चेतना इस विश्व ब्रह्माण्ड में दिखाई देता है वह सब परमात्मा की ही चेतना है। सम्पूर्ण जीवधारी उसी के अंग मात्र हैं, उसी तत्व के सूक्ष्म परमाणु मात्र हैं। फिर बड़े खेद की बात है कि मनुष्य आपस में भेद-भाव, छल-कपट, धोखादेही की स्वार्थपूर्ण परम्परायें अपनाये बैठा है, इससे मानव जीवन का उद्देश्य पूरा नहीं होता है। जाति पाँति, भाषा-विचार, वर्ण-भेद की जो विभिन्नता दिखाई देती है उस से सत्य का वास्तविक स्वरूप छिपाया नहीं जा सकता। परमात्मा ने जीवन और मृत्यु के बीच जो आवश्यक साधन थे उन्हें सबको समान रूप से वितरित कर के यह सिद्ध किया है कि यह पृथ्वी और यहाँ के साधन व्यक्ति विशेष के लिये नहीं हैं। इनका उपभोग मिल बाँटकर करने में ही मानव जीवन की सार्थकता है। आत्मा को इसी में संतोष मिलता है।

सारा विश्व एक प्रेम के सूत्र में बंध सकता है यदि सभी लोग संसार को एक कुटुम्ब के रूप में देखें और प्रत्येक मनुष्य से वैसे ही प्रेम करें जैसे अपने परिवार के सदस्यों के साथ करते हैं। व्यवहार की सहृदयता हृदय की विशाल भावनाओं से समुन्नत होती है। जितने उच्च विचार और उदार भावनायें होंगी, उतना ही औरों को अपनी ओर आकर्षित करने की क्षमता भी होगी। चिरस्थायी स्नेह मनुष्य की आन्तरिक उत्कृष्टता से ही प्राप्त होती है। वाचालता और कपटपूर्ण व्यवहार से किसी को थोड़ी देर तक अपनी ओर लुभाया जा सकता है, पर स्थिरता का सूत्र तो प्रेम ही है। हमारे अन्तःकरण में दूसरों के लिये जितनी अधिक मैत्री की भावना होगी उतना ही अपना व्यक्तित्व विकसित होगा, उतनी ही आत्म शक्तियाँ प्रबुद्ध होंगी।

पूर्ण कल्याण की भावना “आत्मवत् सर्व भूतानि यः पश्यति सः पण्डित” इस एक वाक्य से ही निहित है। चरित्र की उदारता और सज्जनता का अर्थ ही यह है कि मनुष्य, मनुष्य को, जीव जन्तुओं को भी उनके अधिकारों का उपयोग ठीक उसी तरह करने दे, जिस तरह हम अपने लिये औरों से अपेक्षा रखते हैं। गोस्वामी तुलसी दास की पंक्तियाँ मानवता शब्द को भली प्रकार अभिव्यक्त कर देती हैं -

आपु आपु कहँ सब भलों अपने कहं कोय कोय।

तुलसी सब कहँ जो भलों, सुजन सराहिय सोय॥

अर्थात् सज्जन तथा सराहनीय वह है जो केवल स्वहित तक ही सीमित नहीं है। जो उदारता पूर्वक सब के हित की बात सोचता है वही मनुष्य श्रेय का अधिकारी हो सकता है।

अपने हित की साधना का भाव तो पशु पक्षियों तक में पाया जाता है। अतः इसमें कोई बुद्धिमानी नहीं हो सकती कि मनुष्य सम्पूर्ण जीवन केवल अपनी ही स्वार्थपूर्ण प्रवंचनाओं में बिता दे। इससे अन्त तक मानवीय शक्तियाँ प्रसुप्त बनी रहती हैं। प्रेम और आत्मीयता की भावनाओं का परिष्कार नहीं हो पाता। स्वार्थपरता नहीं संकीर्णता के कारण मनुष्य का जीवन कितना दुःखमय कितना कठोर हो सकता है यह सर्व विदित है।

हममें ईश्वर सदृश गुण और अनन्त शक्ति की योग्यता होने पर भी हमारा जीवन अर्द्ध विकसित क्यों है ? यह एक विचारणीय प्रश्न है। इससे यह मानना पड़ता है कि हमारी जीवनचर्या में कहीं कोई भूल हो रही है। यह देखना है कि क्या वस्तुतः हमारे आचरण दैवी तत्वों के सदृश हैं। यहीं अपनी भूल पकड़ में आती है। परमात्मा अपने सभी पुत्रों के हित का समान रूप से ध्यान रखता है। संसार पर उसकी कृपा है, सभी से वह प्रेम करता है। इसीलिए वह अनन्त शक्तिशाली है, अपराजेय है। हम भी अपना जीवन इसी साँचे में ढालने का प्रयत्न करें, सबके हित का अपना हित मानें, सबके साथ प्रेम करें तो अपनी शक्तियों का विस्तार न हो ऐसा नहीं हो सकता।

अन्य जीवधारियों के जीवन से अपनी तुलना करते हैं तो मालूम पड़ता है कि मनुष्य जीवन में विकास की सम्भावनायें विद्यमान हैं। अपनी दिव्यता का अनुकरण करते जायेंगे तो अपनी सहायता की अभिलाषा भी पूर्ण होती चली जायगी।

ईश्वर का आदेश भी ऐसा ही लगता है। यह आवाज प्रतिक्षण आती है उठो, मुझ जैसा पूर्ण और परिपक्व बनो। संकीर्णताओं में इन अमूल्य क्षणों को नष्ट न होने दो। यह संसार निःसार है इसकी सत्यता यदि कुछ है तो यही कि कुछ दिन इस धरती पर प्रेम और आत्मीयता का आनन्द प्राप्त कर लें। यही आत्मा की आध्यात्मिक प्यास है। किंतु जब भौतिक सुखों के लिये आत्म कल्याण की इस भावना का परित्याग कर देते है तो यह बुझती नहीं और भी भड़क उठती हैं। आन्तरिक तड़पन, क्षोभ और अशाँति इसी कारण होती है कि मनुष्य इन्द्रिय सुखों की लालसा में इतना छोटा बन गया है कि अपने वास्तविक स्वरूप को भी पहचानने में असमर्थ हो गया है।

विश्व प्रेम की भावना में जो रमणीयता, सौंदर्य दर्शन या मोहकता होती है वही मनुष्य की सच्ची धार्मिक सम्पत्ति हो सकती है। इसी से पुण्य पथ प्रशस्त होता है, इसी से सर्व शक्तियाँ जाग्रत होती हैं। घृणा और क्रोध, वैर और बदले की भावना से मनुष्य का जीवन स्तर दिन-दिन गिरता चला जाता है, इससे सामूहिक तौर पर व्यक्ति और समाज दोनों का पतन होता है। समाज में सात्विकता का प्रकाश जिन सद्गुणों से फैलता है उनकी ओर संकेत करते हुये भगवान् कृष्ण ने बताया है -

अद्वेष्टा सर्वभूतानाँ मैत्रः करुणा एव च।

निर्ममो निरहंकारः सम दुःख सुख क्षमो॥

अर्थात् जो सम्पूर्ण प्राणियों को अद्वैत भावना से देखता है, सबके साथ मैत्री करुणा माया मोह से रहित और नम्रता पूर्ण व्यवहार करता है, जो सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति क्षमा भाव रखता है, उनके साथ सुख और दुःखों में समान रहता है, वही पूर्ण पुरुष है। अर्थात् महानता का लाभ मनुष्य इन्हीं सद्गुणों के आधार पर पाता है।

हम लोग एक ही माता पिता से उत्पन्न सन्तान को परस्पर भाई-बहिन समझते हैं। मानवीय दृष्टिकोण से यह सही भी है। व्यवहारिकता में इसी आधार कर्त्तव्य विभाजन और उसका क्षेत्र निर्धारित करने की सुविधा रहती है, किंतु भावनात्मक दृष्टि से इतने से ही संतोष नहीं मिलता। तब हमें यह मानकर चलना पड़ता है कि एक परमात्मा से ही जीवात्मा उत्पन्न और उसी से सम्बद्ध है वही हमारा पिता, माता, सर्वस्व है। इस आधार पर संसार के सभी जीवधारियों को अपने से भिन्न नहीं कह सकते। एक पिता जिस तरह अपने बच्चों को प्रगाढ़ स्नेह और प्रेम के सूत्र में बंधा देखना चाहता है वैसी ही सदिच्छा परमात्मा की भी हम से हो सकती है। इस सत्य से ही एकता की वृद्धि की होती है। समाज की पूर्ण विकसित रचना के उद्देश्य से महापुरुष सदैव इस बात पर जोर देते रहे हैं कि मनुष्य अपने आपको विश्व समाज का सदस्य मानें। आज भी यह आवश्यकता ज्यों की त्यों विद्यमान है। युग परिवर्तन के लिये इसी योग का अभ्यास भी किया जाना है।

प्रेम का साम्राज्य सर्वत्र है। इसके बिना मानव जीवन में सरसता नहीं आती। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह जितने अधिक अंशों में समाज के प्रति आत्म विकास करता है उसी के अनुपात में प्रेम की अन्तः ज्योति मानवीय जीवन की मधुरता को उपलब्ध करता है। यह आत्म विकास की साधना जितना अधिक तेज होगी समाज में सद्गुणों का प्रसार उसी गति से होता रहेगा। और एक दिन मनुष्य पूर्ण विकास की अवस्था भी प्राप्त कर लेगा।

भावनाओं का विस्तार अपने आप से करना है। व्यक्तिगत चरित्र निर्माण से यह प्रक्रिया प्रारम्भ होती है, धीरे-धीरे परिवार, गाँव, समाज, राष्ट्र और विश्व के साथ उसका सामंजस्य बढ़ता जाता है। इसी क्रम में व्यक्ति का निज का ज्ञान, बौद्धिक विकास और ईश्वर अनुभूति की सिद्धि प्राप्त होती है। यह आत्मयोग ही ब्रह्म ज्ञान का सबसे सीधा और सरल रास्ता है।

“वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना आत्मा के पूर्ण विस्तार की प्रतीक है। ऐसे व्यक्तियों के सहृदयता, उदारता कष्ट सहिष्णुता आदि सद्गुण पराकाष्ठा तक जा पहुँचते हैं, उनके लिये अपने पराये का भेद मिट जाता है। वह परमात्मा के प्रकाश में ऐसे असीमत्व का अनुभव करते हैं, जिससे उसके सम्पूर्ण दुःख, अभाव आदि नष्ट हो जाते हैं और प्राणिमात्र की सेवा में सर्वस्व बलिदान करने की महानता जागृत होकर धरती को कृतार्थ कर देती है।


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