पैसा,पैसा, पैसा-आज जिधर देखिये उधर पैसे के लिये पुकार मची हुई है, छीना-झपटी, लूट-खसोट, छल-कपट, मक्कारी-दगाबाजी और न जाने क्या-क्या हो रहा है। पैसे के लिए कुछ ऐसी दिशाहीन दौड़-धूप हो रही है, कि क्षण-भर ठहर कर सोचने का मौका किसी के पास है ही नहीं। इस समय आदमी कुछ ऐसा पैसे के लिए भाग रहा है, मानो अकस्मात् आई हुई किसी विपत्ति से बचने के लिए लोग ऊँचे-नीचे, खाई, खंदक का विचार किये बिना भागा-भाग मचाये हुए हैं।
पैसा न तो कोई इतनी बड़ी चीज है जिसके लिए जीवन का सर्वस्व भेंट चढ़ा दिया जाये, न ऐसा है कि यह कोई आज अकस्मात् आविर्भूत हुई जैसी अद्भुत वस्तु है, जिसे पाने के लिये इतनी आपा-धापी की जावे और न ही निकट भविष्य में तिरोधान ही होने वाला है, जिससे आज ही इसे जैसे भी हो, लूट-खसोट, चोरी-चकारी से अधिक से अधिक रख लिया जावे नहीं तो आगे कभी इसके दर्शन न होंगे।
पैसा पहले भी था, आज भी है और आगे भी रहेगा, इसमें शंका अथवा सन्देह करने की गुंजाइश का प्रश्न ही नहीं उठता। तब क्या बात है कि आज पैसे के लिए ऐसा पागलपन आदमी पर सवार है? पैसा पहले भी था और उसकी उपयोगिता एवं आवश्यकता भी थी, किन्तु उसके लिये इतना अन्धा पागलपन न था।
यदि आज किसी से पूछा जाये कि पैसे के लिए यह मतवालापन क्यों है, जिसके लिए करणीय अथवा अकरणीय काम करने में जरा भी संकोच नहीं है? तो सबसे पहले तो वह आप से करणीय-अकरणीय कामों की परिभाषा पूछेगा-और जब आप उसे इसकी कोई सरल-सी परिभाषा बतलायेंगे तो उस पर पचास तरह के तर्क रखकर और विवाद करके आपको प्रतिक्रियावादी, अप्रगतिशील अथवा पुरातन-पंथी सिद्ध करने का प्रयत्न करेगा-नहीं तो सीधी-सी एक बात कह देगा कि जमाना ही ऐसा है जिसमें ऐसा किये बिना गुजारा ही नहीं। उसके कहने से कुछ ऐसा मालूम होगा कि जमाना कुछ ऐसा दैवी फरमान लेकर आया है, जिसके अनुसार यदि पैसे के लिए यह सब कुछ न किया गया तो वह बरबाद करके रख देगा। ऐसा करने की बड़ी भारी विवशता आ पड़ी है।
आज किसी बात के लिए जमाने को जिम्मेदार ठहरा देने का एक रिवाज-सा चल पड़ा है। जमाने को दोष दिया और छुट्टी पाई। किन्तु यह सोचने समझने का जरा भी कष्ट नहीं किया जाता कि आखिर किसी जमाने का स्वरूप बनता तो उस समय के आदमियों से ही है। वास्तव में जमाना किसी को बुरा नहीं बनाता बल्कि मनुष्य ही जमाने को बुरा बनाते हैं।
आज का समस्त संसार, आज के समय से पहले का समय, एक स्वर से अच्छा बतलाता है और कहता है कि पहले के समय में लोग इतने बुरे नहीं थे। उनमें आज जैसा झूठ, कपट, मक्कारी आदि नहीं थी। वे बड़ा ही सरल एवं शुभ जीवन बिताते थे। आज हम तरह-तरह से उनकी प्रशंसा और सराहना तो करते है किन्तु उन जैसा बनने का प्रयत्न नहीं करते हैं। हम अच्छाई को अच्छाई और बुराई को बुराई जानते, मानते हुए भी अभिशप्त आत्मा की तरह बुराई की ओर ही भागते चले जा रहे हैं।
अच्छाई से बुराई की ओर पलायन का प्रमुख कारण है आज की अर्थ- प्रधान मनोवृत्ति! हम हर काम पैसे के बल पर करना चाहते हैं। पैसा कमाना चाहते हैं तो पैसे के बल पर, धर्म करना चाहते है तो पैसे के बल पर, स्वस्थ रहना चाहते हैं तो पैसे के बल पर, सुख चाहते हैं तो पैसे के बल पर, शान्ति चाहते है तो पैसे के बल पर, सम्मान चाहते हैं तो पैसे के बल पर, स्वर्ग चाहते हैं तो पैसे के बल पर और मोक्ष चाहते हैं तो पैसे के बल पर। तात्पर्य यह है कि हम लौकिक अथवा पारलौकिक जो कुछ भी चाहते हैं वह सब पैसे के बल पर पाना चाहते हैं। मानो पैसा एक ऐसा वरदान हैं जिसके मिलते ही हमारी सारी कामनायें पूर्ण हो जायेंगी। और इसलिए आज हम पैसे को उचित अथवा अनुचित हर तरीके से प्राप्त करने में जुटे हुए हैं। परन्तु यह कभी नहीं सोचते कि जिनके पास असंख्य धन है, क्या उन्हें सब कुछ प्राप्त है? क्या उनकी सारी मनोकामनायें पूर्ण हो गई हैं? क्या वे अपने जीवन में पूरी तरह से सुखी और संतुष्ट हैं? यदि इस बात का पता गहराई में बैठकर लगाया जावे तो ज्ञात होगा कि जो जितना अधिक धनाढ्य है वह उतना ही अधिक चिन्तित और व्यग्र है।
सुख-शान्ति का निवास पैसे में नहीं। मनुष्य की अन्तरात्मा में है। उसके नेक कामों और कोशिशों में है। पैसा तो संसार में वस्तुओं के विनिमय और आदान-प्रदान का एक साधारण सा माध्यम मात्र है। वस्तु के अभाव अथवा अनावश्यकता में पैसे का क्या मूल्य अथवा उपयोग रहता है?
पैसा अस्थिर है। आज है तो कल बना ही रहेगा इसका कुछ निश्चय नहीं। चोरी, डकैती, ठगी, मुकदमा, बीमारी, अग्निकाण्ड, दुर्घटना, घाटा, विवाह, शादी आदि अनेक आकस्मिक कारण ऐसे हो सकते हैं जिसमें आज की कमाई सम्पत्ति से कल वंचित होना पड़े। ऐसी दशा में यह आशा करना उचित नहीं कि अब अधिक कमा कर रख लें तो उससे आजीवन काम चलता रहेगा और सुखोपभोग की आवश्यक वस्तुयें समय-समय पर खरीदी जा सकेंगी।
इस प्रकार सोचने की अपेक्षा समय-समय पर आवश्यकता के अनुरूप कमाते रहने की क्षमता को बनाये रखने के लिए ही प्रयत्न करना चाहिए ताकि संग्रह की चिन्ता और सुरक्षा से बचकर परिस्थितियों के अनुसार काम चलाने एवं कमाने में कोई अड़चन न आवे।
अब सन्तानों के लिए धन का संचय ले लिया जावे। किसी हद तक, जहाँ तक कि उनके विकास और प्रगति में बाधा न पड़े धन का संचय किया जाना उचित है। किन्तु किसी भी प्रकार से कमाकर धन का अम्बार लगा देने का ठीक-ठीक अर्थ यही होगा कि या तो आप अपने बच्चों दर बच्चों को कमाई के अयोग्य समझते हैं या आप चाहते हैं कि वह आगे चलकर निकम्मे और दुर्व्यसनी बनें। आमतौर से यह देखा जाता है कि जिसने स्वयं नहीं कमाया है वह पैसे का मूल्य नहीं समझता, अपव्यय करता है और दुर्व्यसनों में फँस कर अपने सर्वनाश के साधन जुटा लेता है। इस प्रकार उत्तराधिकार में छोड़ा हुआ अनावश्यक धन सदा उनके लिए अहितकर ही सिद्ध होता है। बच्चों के लिए पैसे का अम्बार छोड़ने का प्रयत्न करने के बजाय उन्हें कर्मठ और सुयोग्य बनाइये और अधिक से अधिक उनकी कमाई और प्रगति के लिए पिता के नाते एक प्रशस्त मार्ग छोड़ जाइये, और कहीं यदि आप पैसा केवल पैसे के संचय की भाव से बटोरते हैं तब तो आप उस धन के बे कौड़ी के गुलाम हैं। ठीक उस सर्प की भाँति हैं जिसका प्रयोजन तो कुछ है नहीं किन्तु धन संचय पर केवल पहरा दे रहा है।
और यदि यह कहा जाये कि अधिक से अधिक कमा कर अधिक से अधिक परोपकार और धर्म कर्मों में लगाया जायेगा, तो पहले तो उसका उपार्जन ही इस बात का प्रमाण है कि कहने वाला धर्म में कितना विश्वास रखता है। फिर इस से कहीं श्रेष्ठ और फलदायक यह होगा कि पैसा कमाने के भ्रष्ट माध्यम, जैसे चोरी, ठगी, बेईमानी आदि का परित्याग कर दिया जावे एक तो सदाचार की कमाई स्वयं ही अपने में एक पुण्य है। फिर भ्रष्टाचार के लाख रुपये से नेक कमाई का एक पैसा भी धर्म कर्म के लिए लाख गुना अच्छा है। फिर पैसे से परमार्थ बन पड़ने वाली बात भी सार हीन है। पुण्य परमार्थ मनुष्य के श्रम और सद्भावनाओं का सम्मिलित स्वरूप है। उसी से किसी का सच्चा हित हो सकता है। ईश्वर भी ऐसे ही को पुण्य मानता है। तथा जिसके पास अपरिमित धन है वह कुछ पैसे किसी तथाकथित धर्म कार्य में लगा भी दे, तो अनीति की कमाई अकारथ ही चली जायेगी इससे सस्ती नामवरी के अतिरिक्त पुण्य प्रयोजन की कोई सिद्धि न हो सकेगी।
अब रही पैसे से आनन्द की बात। यदि कोई यह कहे कि हम तो संसारवादी हैं। संसार में जितने आनन्द हैं उनका उपयोग करना ही हमारा ध्येय है- तो सबसे पहले साँसारिक विषय भोगों में सच्चा आनन्द है ही नहीं केवल आनन्द का एक धोखा है, एक छलना है। फिर भी यदि कोई विषय भोगों को भोगेगा तो अपने अर्थों में आनन्द के लिये, शराब पियेगा, कुकर्म करेगा, विविध व्यंजनों को अपनायेगा और धीरे धीरे अपना जीवन एक अभिशाप बना लेगा। इस प्रकार वह पाप से कमाया हुआ पैसा भी दूसरों के हवाले कर देगा और एक दिन जब इन विषयों और झूठे इन्द्रिय भोगों से ठगा हुआ अशक्त हो जायेगा तब न उसका पैसा उसके पास होगा, और न उसका शरीर ही काम देगा। उसके पास केवल एक दर्शनीय दरिद्रता, पश्चाताप, विषाद, निराशा के अतिरिक्त कुछ भी शेष न रहेगा। और वह अपने सिर पर कुकर्म की गठरी रक्खे हुये इस संसार से घसीटता हुआ चला जायेगा।
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि वह अनुचित वित्तेषणा संसार को कितने भयानक और गहरे गढ़े की ओर लिये जा रही है। इसलिये धन लोलुपता की दृष्टि किसी को भी अपने जीवन में नहीं पनपने देना चाहिये। सभी बुराइयाँ संक्रामक रोगों की तरह बड़े वेग से फैलने वाली होती हैं। क्या आज कोई भी भ्रष्टाचारी यह कह सकता है कि वह किसी दूसरे के भ्रष्टाचार का शिकार नहीं है? यदि एक घी में मिलावट करके बेचता है तो दूसरा उसे दूध में पानी दे जाता है। यदि एक खाद्य वस्तुओं में मिलावट करता है तो दूसरा उसे दवाओं में धोखा देता है। यदि एक रिश्वत लेता है तो उसे कहीं देना भी पड़ता है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि एक व्यक्ति एक प्रकार का भ्रष्टाचार करता है तो वह दूसरों से दूसरे प्रकार के भ्रष्टाचार का शिकार बनता है। और सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि एक भ्रष्टाचारी दूसरे अन्य प्रकार के भ्रष्टाचारी को कोसता तो है लेकिन भ्रष्टाचार कोई भी दूर नहीं करना चाहता। यह कैसी बच्चों जैसी बात है कि जब हम खुद चोरी, बेईमानी करते हैं तब तो बड़े प्रसन्न होते हैं और अपने को बड़ा चतुर समझते हैं परन्तु जब स्वयं किसी की चोरी, मुनाफाखोरी आदि से प्रभावित होते है तो बुरा भला कहते है। जब कोई अपने अनुचित स्वार्थ के लिए किसी अधिकारी को घूँस देता है तब तो अपने आप को बड़ा व्यवहार कुशल समझता है किन्तु जब वह अधिकारी अपने स्वार्थ से रिश्वत की भूमिका बनाता है तब उसे बेईमान कहने लगते हैं।
आज संसार की इस भयानक स्थिति की जड़ में इस अनियंत्रित वित्तेषणा का विष काम कर रहा है जिसने अपने प्रभाव से सारे मानव समाज को विषाक्त बना दिया है।
अस्तु हमें अर्थ का ठीक-ठीक अर्थ समझ कर उसका महत्व निर्धारित करना चाहिये। जहाँ समाज में धन की अनिवार्य आवश्यकता है वहाँ इससे अधिक अनिवार्यता इस बात की है कि यह उचित रूप से उपार्जित किया जाना चाहिये और उचित कार्य में ही लगाया जाना चाहिये। धन के अधिकतर अर्जन की होड़ लगाने के बजाय उसके सदुपयोग की होड़ होनी चाहिये। अर्थ को अनर्थ का कारण न बना कर सामर्थ्य का कारण बनाना चाहिये।
अन्य समाजों को छोड़ दीजिये- किन्तु अपने भारतीय समाज में वित्तेषणा को सभी ऐषणाओं को बुरा माना गया है क्योंकि यह अनुभव सिद्ध बात है कि सन्मार्ग से लाया हुआ धन देवता और कुमार्ग से लाया हुआ धन पिशाच होता है जो कभी न कभी सारे कुल और समाज को अवसर पाते ही ग्रस लेता है।