जीवन को स्वस्थ, सार्थक एवं सुखी बनाइये

April 1965

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सर्व साधारण से लेकर महा मनीषियों तक ने स्वास्थ्य को आवश्यक ही नहीं जीवन को अनमोल सम्पदा कहा है। भर्तृहरि ने अपने नीतिशतक में जिन दुर्लभ चार वस्तुओं का वर्णन किया है, उनमें स्वास्थ्य का प्रथम स्थान है- शारीरिक-स्वास्थ्य, पतिव्रता स्त्री, आज्ञाकारी पुत्र और सच्चा मित्र।

कोई भी ऐसा शास्त्रकार अथवा नीतिकार नहीं हुआ है जिसने स्वास्थ्य की भूरि-भूरि आवश्यकता न बताई हो। स्वास्थ्य की महत्ता और उसके बनायें रखने की रीति पर सारे सभ्य संसार में आयुर्वेद सम्बन्धी ग्रन्थ बहुत पूर्व ही लिखे जा चुके हैं, आज भी लिखे जा रहे हैं। किन्तु हम देखते हैं कि ज्यों ज्यों उपचार और स्वास्थ्य सम्बन्धी साहित्य और साधनों की बढ़ती हो रही है त्यों त्यों मनुष्य का स्वास्थ्य और भी बिगड़ता जा रहा है। अस्तु हमें सबसे प्रथम इस पर विचार करना चाहिये कि आज मनुष्य का स्वास्थ्य दिन-दिन क्यों बिगड़ता जा रहा है ?

इसका सबसे पहला कारण यह है कि हम अधिकाधिक अप्राकृतिक होते जा रहे हैं। हमने सुख सुविधाओं के नाम पर अपने चारों ओर इतने अधिक कृत्रिम उत्पादन इकट्ठे कर लिये हैं कि हमारे और प्रकृति के बीच बहुत बड़ा व्यवधान पड़ गया है।

हमारा शरीर प्रकृति के पंचतत्वों से बना है-मिट्टी, जल, वायु, अग्नि और आकाश। केवल मानव शरीर ही नहीं यह सारी सृष्टि ही इन पाँच तत्वों से बनी है। यह निर्विवाद है कि जो वस्तु जिस तत्व की बनी होगी, उसके बने रहने में उस तत्व की चरम महत्ता है। अस्तु हमारे शरीर के बने रहने अर्थात् स्वस्थ रहने में उपयुक्त पाँच तत्वों के संपर्क की अनिवार्य आवश्यकता है। हमें मिट्टी के सारे रूप अन्न और वनस्पति की, श्वास के रूप में सूर्य किरणों की और उन्मुक्तता के रूप में आकाश की अखण्ड आवश्यकता है। हम जब-जब इन तत्वों से जितना दूर हो जाते हैं, उतने ही अस्वस्थ हो जाते हैं। हम खाने के नाम पर अन्नों और वनस्पतियों को बिगाड़ कर खाते हैं, सघन स्थानों पर दूषित वायु में श्वास लेते हैं, अधिक से अधिक आन्तरिक और बन्द कक्षों में रहकर सूर्य के दर्शन दुर्लभ कर लेते हैं, तथा मकान, महल, और कोठियों के रूप में अपने चारों ओर प्राचीरों और छतों का निर्माण करके आकाश को तो अपने जीवन से बहिष्कृत ही कर देते हैं।

इसके अतिरिक्त हम अपने जीवन में इतने अनियमित हो गये हैं कि हमें स्वयं ही पता नहीं रहता कि हम किस समय क्या काम करेंगे अथवा कर सकते हैं। प्रकृति के, जिसको कि हम जड़ कहते हैं, सारे काम एक निश्चित समय और क्रम से होते हैं, किन्तु, अपने को चेतन कहकर दम्भ करने वाले मनुष्य का कोई काम भी क्रमानुसार नियम से नहीं होता। सूर्य समय पर उदय होता और समय पर अस्त होता है, अपने निश्चित समय पर मेघ छाते और बरसते हैं, फूल समय पर खिलते और मुरझाते हैं, फल समय पर उगते और पकते हैं, अन्न न तो असमय उपजाये जा सकते हैं और न काटे, अपने निश्चित समय नक्षत्र चमकते और छिपते हैं, सारे ग्रह मण्डल एक निश्चित नियम से परिभ्रमण करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रकृति का ऐसा कोई कार्य नहीं है जिसमें एक निश्चित काल-कम का नियम न हो। किन्तु मनुष्य का ऐसा कोई कार्य नहीं जो एक निश्चित काल क्रम के अनुसार चलता हो। यही कारण है कि प्रकृति चिरजीवी और प्राणी अचिरजीवी है। वह कभी जल्दी उठता है तो कभी देर से, कभी देर से सोता है तो कभी जल्दी, कभी भूख लगने पर खाता है तो कभी बे भूख, कभी अधिक खाता है तो कभी कम, कभी कुछ खाता है तो कभी कुछ, कभी व्यायाम करता है तो कभी नहीं, कभी खुले में सोता है तो कभी बन्द में। साराँश यह है कि वह कोई काम न तो नियम से करता है और न इसकी महत्ता समझता है।

यदि हम पशु पक्षियों को देखें तो वे मनुष्य से अधिक स्वस्थ, सुन्दर और प्रसन्न दिखाई देंगे। इसका कारण है उनका प्रकृति के निकट अधिक से अधिक रहना और नैसर्गिक नियमों का पालन करना। पक्षी सूर्योदय के साथ ही जगते हैं, हर्ष मनाते और क्रीड़ा करते हैं, अपने लिये प्रकृति की ओर से निर्धारित वस्तुयें ही खाते, समय पर संयोग करते और उन्मुक्त आकाश के नीचे प्रकृति के हरे भरे विशाल आँगन में विहार करते हैं। मनुष्य को छोड़कर संसार का प्रत्येक प्राणी अपने ही श्रम के आधार पर ही खाता और जीता है। उनमें से कोई किसी के आश्रित नहीं रहता।

कोई भी मनुष्य न तो जल्दी मरना चाहता और न दुखी रहना चाहता, किन्तु वह काम अपनी कामना के विपरीत करता है। जहाँ पहले भारतीयों की औसत आयु सौ साल थी वहाँ आज कठिनता से केवल 25-30 साल रह गई है। हमें अपने प्राचीन ग्रन्थों में शतजीवी होने की जो व्यवस्था मिलती है, क्या वह निराधार है? नहीं कदापि नहीं। इसी शतवर्षीय जीवन के आधार पर ही भारतीय जीवन के मूल आश्रम-धर्म की व्यवस्था की गई है। यदि यह कोई कोरी कल्पना मात्र होती तो भारतीय सभ्यता-संस्कृति का इतना प्राचीन भवन अब तक खड़ा न रहता।

दीर्घजीवी होने के रहस्य में स्वास्थ्य एक मूल मन्त्र है। जो स्वस्थ नहीं, वह न तो दीर्घजीवी हो सकता, न सुखी रह सकता और न कुछ कर ही सकता है। अस्वस्थ मनुष्य अपने लिये भार तो होता ही है, दूसरों के लिये भी भार स्वरूप बन जाता है। अतएव मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है कि वह संसार में स्वस्थ होकर जिये।

स्वस्थ जीवन बिताने की एक कला है उसके कुछ नियम हैं जिनका पालन करने से कोई मनुष्य स्वस्थ हो सकता है और स्वस्थ रह सकता है।

स्वस्थ जीवन का सर्वप्रथम नियम है आहार विहार-हम क्या खायें और कैसे रहें ? खाने के लिये केवल वही पदार्थ खायें जो अधिक से अधिक अपने प्रकृत रूप में और स्वास्थ्यप्रद हों। जैसे फल, शाक, सब्जी आदि। भोजन को अधिक पकाकर अथवा जला कर खाना हानिकर है। भोजन अधिक से अधिक दो बार आवश्यकतानुसार ही करना चाहिये। अधिक खाना अथवा अधिक-क्रम खाना स्वास्थ्य के लिये अहितकर है। भोजन की वस्तुएँ ऐसी चुनिये जो सरस और सुपाच्य हों। अधिक नीरस और गरिष्ठ भोजन करने से पाचन क्रिया को आवश्यकता से अधिक परिश्रम करना पड़ता है जिसके कारण यह शिथिल होने लगती है और फिर आगे चलकर हल्के से हल्का भोजन भी पचा सकने में असमर्थ हो जाती है। जिसके फलस्वरूप पेट खराब रहने लगता है और विविध प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। बार-बार खाना अथवा अधिक खटास-मिठास और मिर्च मसाला खाने का अर्थ है रोगों को निमन्त्रण देना।

भोजन की उपयुक्तता के साथ पाचन क्रिया ठीक रखने के लिए श्रम अथवा व्यायाम बहुत आवश्यक है। जो व्यक्ति शारीरिक कार्य जैसे, लकड़ी काटना, पत्थर ढोना, जमीन खोदना, मशीन खींचना आदि द्वारा अपनी आजीविका कमाते हैं उन्हें विशेष तौर पर कोई व्यायाम करना आवश्यक नहीं है। परन्तु जो पढ़ लिख कर अथवा एक स्थान पर बैठे कर अपना काम करते हैं उनके लिये शारीरिक व्यायाम एक अनिवार्य आवश्यकता है।

अपनी स्थिति के अनुसार ही व्यायाम का चुनाव करना चाहिये। जैसे विद्यार्थियों के लिये खेल-कूद दौड़ धूप। बैठकर काम करने वालों के लिये प्रातः भ्रमण आदि, भारी भरकम शरीर वालों को यथा साध्य शीघ्र चल कर घूमना और कोई सूर्य-प्रणाम आदि आसन करना। धर्मपरक व्यक्तियों को, अन्य नियमों के साथ कोई न कोई प्राणायाम, या कोई साधना पूर्ण योगासन करना चाहिये।

भोजन के बाद रहन-सहन आता है। प्रातःकाल सूर्योदय पर नियमित रूप से उठिये और रात्रि में बहुत देर तक न जागिये। ठीक समय पर नैमित्तिक कर्म कीजिए।

वस्त्र

देशकाल के अनुसार पहनने चाहिये। भारत शीत प्रधान देश नहीं है, अस्तु यहाँ के लोगों को अधिक घने व तंग वस्त्र नहीं पहनने चाहिये। अधिक तंग वस्त्र पहनने से शरीर के रोम-कूप बन्द हो जाते हैं, जिससे अन्दर की गन्दी वायु बाहर निकालने, तथा बाहर की स्वच्छ वायु अन्दर जाने में बाधा पड़ती है। पसीने के साथ निकला हुआ मल शरीर पर जम जाता है, जिससे विविध प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। गर्मी में विरल वस्त्र, बरसात में अपारदर्शी और जाड़ों में सघन पहनने चाहिये। किन्तु किसी भी ऋतु में तंग वस्त्रों का प्रयोग स्वास्थ्यकर नहीं है। क्योंकि उससे शरीर की स्वाभाविक प्रक्रिया में अवरोध होता है। अन्य ऋतुओं में तो क्या जाड़ों में भी इतने अधिक वस्त्र न पहनिये जिससे आपको एक बोझ लेकर चलना पड़े, और ऋतु के वातावरण का अनुभव आपके शरीर को बिल्कुल न हो। ऋतु के प्रभाव का कुछ न कुछ अनुभव होते रहना परमावश्यक है। क्योंकि हर ऋतु मनुष्य के लिये कुछ न कुछ स्वास्थ्यप्रद उपहार लेकर आती है। प्रकृति के किसी भी स्वाभाविक वातावरण से भयभीत न होइये। प्रकृति किसी भी ऐसे तत्व को कभी नहीं भेजती जो उसकी सृष्टि के लिये हानिकारक हो। मनुष्य को उनसे हानि जब ही होती है जब वह उसके नैसर्गिक नियमों का उल्लंघन करने का दोषी होता है। अन्यथा धूप में काम करने वाले किसान मजदूरों का जीना दुर्लभ हो जाता है। जाड़ों में अधिकतर नहीं के बराबर वस्त्र पहन कर निर्धन जीवित न रहते। हम जितना वातावरण से भयभीत रहते हैं अथवा भागते हैं वह उतना ही हमें तस्त्र करता है।

गर्मी में खुले, बरसात में छाये, और जाड़ों में ऐसे कक्षों में रहें और सो सकते हैं जिनमें प्रकाश और वायु के प्रवेश की पर्याप्त व्यवस्था हो, आवश्यकतानुसार कम से कम कपड़े ही ओढ़िये बिछाइये। इस प्रकार उनको उठाने धरने, धुलाने, सुखाने आदि की परेशानी से बचने के साथ-साथ व्यय की भी बचत होगी।

स्वस्थ जीवन के लिये ब्रह्मचर्य का पालन एक प्रधान नियम है बुद्धि जीवियों विद्यार्थियों, एवं साधकों के लिये यह जितना अनिवार्य है उतना ही अनिवार्य यह श्रमजीवियों के लिये भी है। क्योंकि ब्रह्मचर्य का संचय आन्तरिक शरीर को लाभ पहुँचाने से पहले बाह्य शरीर को बल प्रदान करता है। स्वास्थ्य के सारे नियमों का पालन करते हुये यदि ब्रह्मचर्य का पालन न किया गया तो यह किसी वृक्ष की जड़ सींचने के बजाय पत्ते सींचना होगा। इसका अर्थ यह होगा कि एक ओर से तो आप शरीर-भवन का निर्माण करते हैं और दूसरी ओर से उसे ढहाते भी जाते हैं, तब इस प्रकार तो आपका सारा श्रम और प्रयत्न ही बेकार चला जायगा। भविष्य के लिये सारे संचयों में ब्रह्मचर्य का संचय सर्वश्रेष्ठ है। ब्रह्मचर्य आपको हर नियम पालन करने में उत्तरोत्तर सहायक सिद्ध होगा। स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन के लिए ब्रह्मचर्य पालन का प्रमुख स्थान है।

स्वास्थ्य और सफाई के नियमों में स्वच्छता को स्थान न देंगे तो कोई लाभ न उठा सकेंगे। मानिये आप स्वास्थ्य प्रद भोजन तो खाते हैं, परन्तु वह गन्दा और बासी है तो इसके परिणाम में रोग ही प्राप्त होगा। आप उपयुक्त वस्त्र पहनते ओढ़ते हैं किन्तु वे गन्दे रहते हैं तो स्वस्थ होने की आशा छोड़ दीजिये। आप खुले और बड़े कमरे में रहते तो अवश्य हैं, परन्तु वह कूड़ा करकट नाक थूक आदि से गन्दे हैं तो परिणाम विदित ही है। आप घूमते हैं, व्यायाम करते हैं और आसन करते हैं किन्तु शरीर गन्दा रखते हैं तो आप पर “शरीरं व्याधि मन्दिरम्” वाली उक्ति चरितार्थ होगी, इसलिये आवश्यकता है कि अपने रहने के स्थान, ओढ़ने पहनने और बिछाने के कपड़े अच्छी प्रकार स्वच्छ रखिये, शरीर को हर प्रकार से साफ रखिये, वस्त्रों को अधिक गन्दा होने से पहले धोइये, कमरों की प्रति दिन सफाई कीजिये और जाड़ों में कम से कम एक बार और गर्मी आदि में दो बार नहाइये।

स्वास्थ्य के लिये जिस प्रकार बाह्य प्रयत्नों की आवश्यकता है उसी प्रकार आन्तरिक प्रयत्नों की भी।

सदैव प्रफुल्लित मन और प्रसन्नचित्त रहिये। दुश्चिन्ताओं को पास न आने दीजिये। बुरे विचारों को दूर रखिये सदैव क्रियात्मक ढंग से सोचिये, भूत को भुलाकर वर्तमान में संतुष्ट रहकर भविष्य के लिये विचार कीजिये। अच्छा साहित्य पढ़िये, सत्संग करिये और अवस्थानुसार परमात्मा का स्मरण कीजिए, छल, कपट, द्वेष दम्भ, लोभ, क्रोध आदि दुर्भावनाओं से बचिये। आलस्य, प्रमाद भीरुता व परावलंबन का परित्याग कीजिये, सद्वृत्तियों का विकास कीजिये। परोपकार एवं सदाचार में तत्पर रहिये।

सभा समितियों में सम्मिलित होइये, रमणीक स्थानों का दर्शन कीजिये, वस्तुओं का संकलन करिये और आडम्बर को व्यवहार में न लाइए। सत्य और विनम्रता को स्थान दीजिये। अन्याय एवं अनाचार का यथा साध्य विरोध करिये। आत्मशोधन में लगे हुए हर प्रकार से अपने जीवन को अनुशासित करने का प्रयत्न कीजिये।


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