हमारी वीरता अक्षुण्ण रहनी चाहिये

April 1965

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धर्म, संस्कृति, शिक्षा, कृषि, विज्ञान, चिकित्सा, ज्योतिष, ग्रह विज्ञान आदि में अग्रगण्य भारतवर्ष अपनी वीरता के कारण भी संसार में प्रसिद्ध है। यहाँ की धरती को वीर-प्रसूता कहा गया हैं। इतिहास साक्षी है कि इस देश ने जहाँ संसार को सत्य-अहिंसा, न्याय-नीति, धर्म-परायण का पाठ पढ़ाया है वहाँ असुरत्व के दमन के लिए, आत्मरक्षा के लिए उसने वीरता भी प्रदर्शित की है। वीरता हमारी शक्ति है जिससे हम संगठित रहे हैं और हमारे धर्म तथा संस्कृति की रक्षा हुई है। किन्तु आज जो परिस्थितियाँ हमारे आगे दिखलाई पड़ रही हैं उनसे भारी असंतोष होता है। अन्य आध्यात्मिक तत्वों की तरह राष्ट्र की वीर भावनायें भी घटती चली जा रही हैं।

वीर संस्कार प्रत्येक युग में आवश्यक रहे हैं। भगवान् राम ने रावण की दुष्टता का दमन किया था। कृष्ण ने कौरवों का मान-मर्दन किया था। शिव जी, राणाप्रताप, झाँसी की रानी की वीरतापूर्ण कहानियाँ इतिहास के पन्नों में अंकित हैं और वे युग-युगान्तरों तक असत्य, अनीति और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा देती रहेंगी। यहाँ वीर भावना केवल काव्य का विषय नहीं, वह सर्व-साधारण की उद्दात्त जीवन पद्धति रही है। शत्रु से युद्ध करते हुये मृत्यु का आलिंगन करना यहाँ शोक का नहीं आह्लाद और उत्सव का विषय माना जाता रहा है। शास्त्रों का गहन अध्ययन करने वाले पंडित अपनी पीठ पर तरकस और कंधों पर प्रत्येक-क्षण धनुष डाले घूमते थे ताकि आवश्यकता पड़ने पर वे दुष्टों से संघर्ष भी कर सकें। जो उपदेश से न मानें उन्हें शक्ति और बल के द्वारा भी सिखाया जगाया जा सके। “शक्ति और सरस्वती की” समवेत साधना इस देश की विशेषता रही है।

मातायें अपने बालकों को पालने में झुलाती हुई कहती थीं।

इला न देणी आपणी, हालरिया हुलराय।

पूत सिखावै पालणै मरण बड़ाई पाय॥

ओ! मेरे प्यारे पुत्र अपनी धरती शत्रु के हाथ न जाने देना चाहे तेरे प्राण क्यों न चले जायें। मृत्यु तो मनुष्य का बड़प्पन है।” माताओं के इन शब्दों में क्या ही अनोखी शान थी, कितना गौरव था उनकी आत्माओं में। तभी तो उनकी आत्मा का रस पीकर परिवर्द्धित होने वाले बालक भी इतनी प्रौढ़ भावनाओं के होते थे जो इस संसार में जीवन और मृत्यु को खेल समझते थे। उन्हें न जीवन के प्रति कोई राग होता था न मृत्यु से भय। देश की रक्षा के लिये, धर्म की रक्षा के लिये सब से आगे बढ़ कर प्राण देने की प्रतिद्वन्दिता होती थी मौत भी उन शूरवीरों की वीरता के आगे सर झुका देती थी।

किन्तु आज वह संस्कार न जाने कहाँ लोप होते जा रहे हैं। न तो हमारी माताओं में वह तेजस्विता रही है कि बेटों को जीवन संग्राम के लिये विधिवत् तैयार कर सकें और न अब वह वातावरण ही रहा है। अपने से गई-गुजरी स्थिति के व्यक्ति को डराने, धमकाने और रौब दिखाने को ही लोग वीरता समझते हैं। पड़ोसियों को नीचा दिखाने में लोग शान समझते हैं। हतवीर्य बालक अल्प अवस्था से ही कायर, कमजोर और जरा-सी परिस्थिति में घबड़ा जाने वाले होते हैं। लड़ाई तो वह स्वप्न में भी देख लें तो दिल धक-धक करने लगे। इस साहस की कमी का एक ही कारण है वीरतापूर्ण संस्कारों का जागरण न किया जाना। पहले शिक्षा के साथ युद्ध का भी अभ्यास कराया जाता था। शास्त्र के साथ शस्त्र की भी पूजा की जाती थी। छोटे-छोटे बालकों को प्रारम्भ से ही कठोर जीवन बिताने का अभ्यास कराया जाता था। कथा-कहानियाँ भी उन्हें ऐसी ही सुनाई तथा पढ़ाई जाती थीं जो सच्ची और घटनात्मक होती थीं। इससे बालकों का साहस जागृत होता था और वीरता के संस्कार परिपुष्ट होते थे। आहार आदि की व्यवस्था भी ऐसी ही होती थी जिससे उनका शरीर शक्तिशाली बना रहता था। आने वाली मुसीबत का वे वरदान की तरह स्वागत करते थे। प्रत्येक नवयुवक इस प्रतीक्षा में रहा करता था कि कब कोई ऐसा समय आयें जब उन्हें अपनी प्रतिभा एवं शक्ति प्रदर्शन का अवसर मिले। उनका शौर्यत्व सदैव जागृत बना रहता था। पर यह परिस्थितियाँ अब कहीं दिखाई नहीं देतीं।

वीरता के संस्कार संघर्ष शक्ति और कठोर जीवनपद्धति से बनकर आते हैं। किन्तु अब इनमें से एक भी परिस्थिति दिखाई नहीं देती। लोगों के मनोबल इतने गिरे हुये हैं कि अपने सामने अन्याय होता हुआ देखकर भी तमाशबीन की तरह चुपचाप खड़े रहते हैं, बुरे तत्वों और बुराइयों से टक्कर लेने की उनकी जरा भी हिम्मत नहीं पड़ती। विलासिता, राग-रंग, सिनेमा-शौकीनी बढ़ने के कारण लोगों के दिल बिल्कुल छोटे होते जा रहे हैं। अन्धकार में पैर रखते हुए काँपते हैं। शरीर में थोड़ी-सी पीड़ा हो जाय तो यों चिल्लाते, रोते और कराहते हैं मानों उन पर कोई मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा है। शरीरों में सहन शक्ति रही नहीं, हृदय कमजोर पड़ गये हैं, सरल जीवन में ही सुख अनुभव करने की भद्दी आदतों ने आज देश की वीर भावनाओं को मटियामेट करके रख दिया है।

क्षात्र-धर्म मनुष्य जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है। उसका पालन न किया जाय तो न देश की सुरक्षा संभव हो सकती है न जाति, धर्म और संस्कृति की। “वीर-भोग्या वसुन्धरा” की कहावत के अनुसार धरती में जीने का सच्चा आनन्द वीरों को मिलता है। पर यह वीरता उद्धतपन, अत्याचार या डाकुओं जैसा साहस नहीं है। राणासाँगा, रणजीत सिंह, गोरा बादल, फतेह सिंह, जोरावर सिंह, भगत सिंह, महात्मा गान्धी तथा ब्रिगेडियर शैतान सिंह की तरह किसी आदर्श की रक्षा के लिए आत्म-बलिदान की भावना का नाम ही वीरता है। प्रेम और मृत्यु वीरों के लिये समान होते हैं। धर्म और कर्त्तव्य पालन के लिए जो बड़े से बड़े प्रलोभन को ठुकरा सकता है, जिसे न जीवन में आसक्ति होती है न मौत से घबराहट, वही सच्चा वीर है। वीरता से मनुष्य की स्थिर भावना और उसकी निष्ठा की परीक्षा होती है। जो इस कसौटी पर सही उतरते हैं उन्हें ही वीर कहा जायगा, फिर भले ही रणक्षेत्र में प्राण त्याग करें या सामाजिक जीवन के किसी सत्य आदर्श के लिए संघर्ष करते हुए जीवन बलिदान करना पड़े।

हमारी इस शानदार परम्परा का ह्रास नहीं होना चाहिए अन्यथा इस देश का गौरव मिट जायगा। हमारी भावनाओं में यदि वह शक्ति न हुई जिससे आस-पास फैली हुई दुष्टता से मुकाबला किया जाता है तो हमारे हित भी सुरक्षित न रह सकेंगे। निर्बल चिड़ियों को जिस तरह बाज झपट ले जाता है उसी तरह हम भी लूट लिये जायेंगे। कायर को कहीं शरण नहीं मिलती। अपनी रक्षा मनुष्य स्वयं कर सकता है। अपने मुकाबले के लिये उसे स्वयं कठोर और साहसी बनना पड़ता है। दूसरों के सहारे जिन्दगी बिताने में कोई आनन्द भी नहीं आता। यह संभव भी नहीं है कि किसी दूसरे व्यक्ति या राष्ट्र का संरक्षण सदैव ही मिलता रहे क्योंकि दूसरों के भी अपने हित होते हैं और उनकी सुरक्षा भी उन्हें करनी पड़ती है। अतः हमारे लिये परम आवश्यक है कि हम अपने जीवन में वीरता के संस्कारों का स्वतः जागरण करें अपने पैरों पर आप खड़े हों।

अब वह युग आ गया है जब हमें इस बात पर गम्भीरता से विचार करना है कि आत्मा-रक्षा और आत्म-कल्याण के योग्य हम में शक्ति, सामर्थ्य तथा उत्कट भावनायें जागृत हों। आत्म-पतन की ओर इसी गति से बढ़ते रहे तो जो गौरव अभी तक अन्य जातियों के समक्ष हम को जीवित किये हुये हैं वे भी नष्ट हो जायेंगे और हमारी गणना संसार के निकृष्ट श्रेणी के लोगों में होने लगेगी।

“वीरता हमारा स्वभाव है, हम शक्ति के उपासक है, संघर्ष से हम नहीं घबराते।” इन मान्यताओं को फिर से जगाने की जरूरत है ताकि हमारे धर्म संस्कृति तथा आदर्शों की रक्षा हो सके। आओ आज वेद भगवान की इस प्रार्थना को फिर दोहरायें-

त्वं शुष्मिन् पुरुहूत वाजयन्त मुपब्रु वे शतक्रतो।

स नो रास्व सुवीर्यम्॥

ऋ. वे. 8। 88 (98) 12

हे प्रभो ! आप उन्हें अधिक प्यार करते हैं जो शक्तिशाली होते हैं, अतः हम भी शक्तिशाली, वीर और बलवान बनेंगे।


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