आत्म-शक्ति का अकूत भंडार

April 1965

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संसार की रचना छोटे-छोटे परमाणुओं से मिलकर हुई है। जड़ और चेतन परमाणुओं के विभिन्न संयोग से ही यह संसार गतिमान हो रहा है। जड़ परमाणुओं की शोध बीसवीं शताब्दी के विज्ञान की सबसे बड़ी देन है। कहते हैं जब इस परमाणु शक्ति का पूर्णरूपेण उपयोग होने लगेगा तब मनुष्य के लिए इस संसार में कुछ भी असंभव न रहेगा। वह स्वेच्छापूर्वक ग्रह-नक्षत्रों में ऐसे ही विचरण कर सकेगा जैसे इस पृथ्वी में एक गाँव से दूसरे गाँव को चले जाते हैं। यह शक्ति कितनी बड़ी होगी इसका अनुमान लगाना भी कठिन है।

जिस परमाणु की शक्ति और महत्ता इतनी बढ़-चढ़ कर है वह इतनी सूक्ष्म वस्तु है कि उसे बड़ी से बड़ी खुर्दबीन लगाकर भी देख पाना संभव न हुआ। केवल उसकी प्रतिक्रियाओं के आधार पर उसका नामाँकन हुआ है। पदार्थ का सबसे छोटा से छोटा टुकड़ा जिसके और अधिक अंश न हो सकें वह ‘अणु’ कहलाता है। इस अणु में भी ‘न्युक्लियस’ या केन्द्र पिण्ड और इसके किनारे अण्डाकार कक्षा में गति करता हुआ “इलेक्ट्रान”, स्थिर “न्यूट्रॉन” और “प्रोटान” से मिलकर बना हुआ परमाणु होता है, जिसको हम देख भी नहीं सकते। उस एक परमाणु का जब विस्फोट होता है तो आइन्स्टाइन के “मासकनवर्जन” सिद्धान्त के अनुसार 33 लाख किलो कैलोरी ताप पैदा होता है। यह शक्ति एक विशाल भू-भाग को जलाकर खाक कर देने में पूर्णतया समर्थ है। अभी तो उस पर अनेकों खोजें और भी होनी शेष हैं।

प्रत्येक पदार्थ इन छोटे-छोटे परमाणुओं से मिलकर बना है। मिट्टी के छोटे-छोटे कणों का वृहत्स्वरूप यह पृथ्वी है, समुद्र पानी की एक छोटी-सी बूँद है। विशाल वट वृक्ष का निर्माण उसके बीज के एक बहुत छोटे अंश से होता है। परमाणु एक प्रकार से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का नक्शा है, जो कुछ शक्तियाँ इस सृष्टि में दिखाई देती हैं वे सब बीज रूप में एक परमाणु में विद्यमान हैं। इस शक्ति की हम कल्पना भी नहीं कर सकते।

जड़ परमाणु की इतनी सामर्थ्य देखकर आश्चर्य होता है पर चेतन अणु की शक्ति उससे भी अधिक है। जड़ पदार्थ स्वाधीन नहीं होते। उनकी अपनी कोई इच्छा शक्ति नहीं होती। किन्तु चेतना शक्ति स्वच्छन्द है। वह पदार्थ पर शासन करती है शासित से शासक की शक्ति अधिक होना भी चाहिये। जड़ से चेतना का महत्व अधिक है उसे जानकर ही मनुष्य के वास्तविक प्रयोजन की सिद्धि होती है।

आत्मा को विश्व चेतना का परमाणु ही समझना चाहिये। पदार्थ के परमाणु की शक्ति का हिसाब लगा चुके हैं उससे आत्म शक्ति की तुलना कर सकते हैं।

संसार में जो कुछ चल रहा है उसका स्रष्टा परमात्मा अनन्त शक्तिशाली है। उसी का यह सब खेल चल रहा है इस विश्व में। परम शक्तिशाली परमात्मा की प्रत्येक शक्तियाँ हमारी अन्तरात्मा में उसी तरह समायी हुई हैं जिस तरह वृक्ष की सम्भावना उसके बीज में होती है। उपनिषद्कार के कथन से इस आत्मशक्ति का परिचय मिलता है।

एको देवः सर्वभूतेषु गूढः।

सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।

कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः

साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च॥

अर्थात्- वह परमात्मा ही सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मा रूप में विद्यमान है। वह सर्वव्यापक है, सर्वान्तर्यामी है, वही कर्मों का अधिष्ठाता है। सम्पूर्ण भूतों का निवास, सब का साक्षी, चेतन स्वरूप और सबको जीवन देने वाला एवं पवित्र और गुणातीत भी है।

सारे संसार में जो शक्ति परमात्मा की है। मनुष्य देह में वह सारी योग्यताएं जीवात्मा को उपलब्ध हैं। यह शक्तियाँ हमारी अपनी हैं किन्तु अज्ञान वश हम उन्हें भूल चुके हैं। देह अर्थात् पदार्थ के सुखों में आसक्ति हो जाने के कारण आत्मा की इस सूक्ष्म सत्ता की ओर हमारा ध्यान भी आकृष्ट नहीं होता। यही हमारे दुःखों का कारण है। आत्महीनता का कारण मनुष्य की आत्म-अज्ञानता ही है।

आत्म-ज्ञान के मूल में वह शक्ति, वह सामर्थ्य और विशेषतायें सन्निहित हैं कि उन्हें यदि जागृत कर लिया जाय तो मनुष्य अपने आप में महामानव, देवत्व तथा परमात्मा की सी शक्ति अनुभव कर सकता है। आत्मा वह कल्पतरु है जिसकी छाया में बैठने से कोई भी कामना अपूर्ण नहीं रहती है।

महापुरुषों के जीवन को फूल के समान खिला हुआ, सिंह की तरह अभय, सद्गुणों से ओत-प्रोत देखते हैं तो स्वयं भी वैसा होने की प्रसुप्त आकाँक्षा जागती है। आत्मा की यह आध्यात्मिक माँग है। उसे अपनी विशेषतायें प्राप्त किये बिना सुख नहीं होता। पारलौकिक कामनाओं में डूबे रहकर हम इस मूल आकाँक्षा पर पर्दा डाले हुये पड़े रहते हैं। इससे किसी भी तरह जीवन लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती।

श्रेष्ठता मनुष्य की आत्मा है। इसलिए जहाँ कहीं भी उसे श्रेष्ठता के दर्शन मिलते हैं वही आकुलता पैदा होती है। मोर के पंखों की सी सुन्दरता पाने को हर कोई लालायित रहता है। किसी कवि की परिपूर्ण कविता पढ़ कर ऐसा लगता है काश! हम भी ऐसा ही लिख पाते। पक्षियों को आकाश में उड़ता हुआ देखकर लगता है, अपनी इच्छानुसार स्वच्छन्द आकाश में विचरण करने की सामर्थ्य मिली होती तो कितना अच्छा होता। यह अभिलाषायें जागती तो हैं किन्तु यह विचार नहीं करते कि यह आकाँक्षा आ कहाँ से रही है। आत्म केन्द्र की ओर आपकी रुचि जागृत हो तो आपको भी अपनी महानता जगाने का श्रेय मिल सकता है, क्योंकि लौकिक पदार्थों में जो आकर्षण दिखाई देता है वह आत्मा के प्रभाव के कारण ही है। आत्मा की समीपता प्राप्त कर लेने पर वह सारी विशेषतायें स्वतः मिल जाती हैं, जिनके लिए मनुष्य जीवन में इतनी सारी तड़पन मची रहती है। सत्य, प्रेम, धर्म, न्याय, शील, साहस, स्नेह, दृढ़ता, उत्साह, स्फूर्ति, विद्वता, योग्यता, त्याग, तप और अन्य नैतिक सद्गुणों की चारित्रिक विशेषताओं के समाचार और दृश्य हमें रोमाँचित करते हैं क्योंकि ये अपनी मूलभूत आवश्यकतायें हैं। इन्हीं का अभ्यास डालने से आत्म तत्व की अनुभूति होती है।

आत्म-ज्ञान का सम्पादन और आत्म केन्द्र में स्थिर रहना मनुष्य मात्र का पहला और प्रधान कर्तव्य है। आत्मा का ज्ञान चरित्र के विकास से मिलता है। अपनी बुराइयों को छोड़कर सन्मार्ग की ओर चलने की प्रेरणा इसी से दी जाती है कि आत्मा का आभास मिलने लगे। आत्म सिद्धि का एक मात्र उपाय पारमार्थिक भाव से जीव मात्र की सेवा करना है। इन सद्गुणों का विकास न हुआ तो आत्मा की विभूतियाँ मलिनताओं में दबी हुई पड़ी रहेंगी।

बुराइयाँ आत्मा को प्रिय नहीं हैं। आप जब किसी चोर या डाकू को सजा पाते हुये देखते हैं तो आपको भय प्राप्त होता है, तुरन्त जी में आता है कि कहीं हम भी चोरी न करने लग जायें। कसाई को जानवर काटते देखकर, शिकारी को पक्षियों को मारने की हिंसात्मक क्रिया देखकर दुःख होता है। दुष्टता और राक्षसी प्रवृत्ति से दूर भागने का प्रयास सभी करते हैं। अनीति, अत्याचार, अन्याय, आतताईपन, द्वेष, त्रुटि, कुरूपता, चोरी, ठगी आदि के क्षण, संस्मरण तथा घटनायें बड़ी अप्रिय लगती है। यह अपनी मूल स्थिति के अनुरूप होता है। आत्मा कभी निकृष्ट होना नहीं चाहती क्योंकि उत्कृष्टता उसका सहज स्वभाव है। भय उसे इसलिए पसन्द नहीं है कि वह चिर अभय है। कुरूपता इसलिए अप्रिय है कि आत्मा का सौंदर्य बड़ा मोहक है। यह स्थिति प्राप्त न होने तक छटपटाहट अवश्य रहेगी। असंतुष्ट होना यह व्यक्त करता है कि अभी तक आपको ‘निजत्व’ का ज्ञान नहीं मिला है।

देवत्व हमारी आवश्यकता है, दुष्प्रवृत्तियों से भय लगता है, पवित्रता हमें प्रिय है। अपवित्रता से दुख मिलता है, निश्छलता से सुख मिलता है। छल और कपट के कारण जो संकीर्ण स्वभाव बनता है उससे अपमान मिलता है। जो कुछ श्रेष्ठ है, साथ है वही आत्मा है और उसी को प्राप्त करना मनुष्य जीवन का मूल उद्देश्य है। जब तक इस बात को समझ नहीं लेते, कोई भी समस्या हल नहीं होती।

श्रेष्ठता से सुख मिलता है यह सच है, इसे प्राप्त करना ही जीवन लक्ष्य है, इसे भी मानते हैं तो सन्मार्ग और सत्प्रवृत्तियों द्वारा अपने देवत्व को जगाना पड़ेगा। प्रत्येक गुण का अमृतकुण्ड हमारी आत्मा में है इसलिए अपने आत्मभाव का परिष्कार करना पड़ेगा। आत्मीयता की भावना उठती है तो उच्च प्रवृत्तियों का प्रकाश हमारे जीवन में लहराने लगता है।

यह जागृति प्रत्येक अवस्था में अभीष्ट है। यह संसार स्वप्न की तरह है। जिस प्रकार जागने पर स्वप्न मिथ्या प्रतीत होते हैं, उसी प्रकार आत्मा का ज्ञान प्राप्त होने पर लौकिक कामनायें झूठी मालूम पड़ने लगती हैं। अभी जो अपनी शक्तियों को लौकिक संघर्षों में अपव्यय करना पड़ता है उसे यदि पतनकारी दुष्प्रवृत्तियों से हटाकर सद्गुणों के रचनात्मक कार्यक्रम में लगायें तो शक्तियों का सदुपयोग भी होता है और आत्मा के अकूत शक्ति संसार का अधिकार भी मिलने लगता है।

संसार में जो कुछ भी विभूतियाँ एवं श्रेष्ठतायें हैं उन सब में अपना आत्म तत्व ही प्रवाहित हो रहा है। सत्-चित् आनन्द स्वरूप आत्मा ही सम्पूर्ण श्रेष्ठता और सौंदर्य का स्रोत है। जन्म और मरण का, निर्माण और विनाश का जो विश्वव्यापी खेल चल रहा है, वह विश्व आत्मा की शक्ति का प्रतीक है। यह शक्ति पुँज हमारे भीतर भरा पड़ा है। जब तक हम उस से विमुख रहकर लौकिक कामनाओं में डूबे रहते हैं तब तक बड़े दीन-दुखी बने और दरिद्रता से घिरे रहते हैं, किन्तु जब पारमार्थिक जीवन की उमंग आती है तो हमारी शक्तियों का स्रोत भी उमड़ पड़ता है। तब हमारा जीवन विशाल आनन्दमय और शक्तिसम्पन्न बन जाता है।


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