युग निर्माण आन्दोलन की प्रगति

April 1965

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जेष्ठ मास में अभूतपूर्व प्रशिक्षण

मथुरा जाने के लिये परिजनों का सादर आह्वान

युग निर्माण योजना का तृतीय वर्ष कितना शानदार होगा, इसका आभास मार्च की अखण्ड ज्योति में छपी सूचनाओं के आधार पर सहज ही लगाया जा सकता है। अभियान असाधारण है। इस युग का इसे सबसे बड़ा धार्मिक आन्दोलन कहा जाय तो इसमें तनिक भी अत्युक्ति न होगी। अखण्ड-ज्योति परिवार ने नव निर्माण का जो संकल्प किया है उसे एक ऐतिहासिक घटना ही कहा जा सकता है। इतने विशाल कार्यक्रम की पूर्ति के लिए उसकी रूप रेखा भी उतनी ही विशाल खड़ी करनी होगी। लक्ष्य के अनुरूप ही उसके साधन भी एकत्रित किये जा रहे हैं।

प्रथम दो वर्ष में केवल योजना का ढाँचा खड़ा किया गया है। अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्यों को किसी पत्रिका को मनोरंजन के लिए पढ़ने वाले पाठक मात्र न रहने देकर, उन्हें नव-निर्माण अभियान के मोर्चों पर लड़ने वाला धर्म सैनिक बनाया गया है। उन्हें यह अनुभव करने दिया गया है कि वे किसी महत्वपूर्ण संगठन के सदस्य हैं और संयोगवश ही सही, उनके कन्धों पर एक बड़ी जिम्मेदारी आ गई है। उसे पूरा भी उन्हें करना ही पड़ेगा। इस मान्यता के अनुरूप अखण्ड-ज्योति के हर सदस्य ने अपनी जिम्मेदारी समझी ही नहीं कन्धे पर उठाई भी है। विगत दो वर्ष के प्रयत्न के फलस्वरूप योजना की यह बहुत बड़ी सफलता है कि उसे 30 हजार से ऊपर ही प्रबुद्ध एवं भावनाशील से कर्मठ कार्यकर्ता अपने महान लक्ष्य की पूर्ति के लिए मिल गए हैं। म॰ गान्धी जी ने स्वाधीनता संग्राम जिन दिनों आरम्भ किया था, उन दिनों उनके पास इससे भी कम कार्यकर्ता थे।

दो वर्ष में कितना बड़ा काम हुआ है इसकी झाँकी जुलाई में युग निर्माण पत्रिका का विशेषांक पढ़ने से अनुमान लगाया जा सकेगा। तीसरे वर्ष का कार्यक्रम मार्च की अखण्ड ज्योति में छपा है अब उसकी तैयारी में हमें लग जाना चाहिए। ताकि आगामी गुरु पूर्णिमा आते ही, तीसरा वर्ष आरम्भ होते ही निश्चित कार्यक्रमों को सुसंचालित किया जा सके। तीसरे वर्ष में जो लक्ष्य निर्धारित किया गया है वह इस प्रकार है-

1-लेखनी द्वारा जनजागरण- भारतवर्ष की 14 भाषाओं में छपने वाले 7 हजार विचार प्रधान एवं समाचार प्रधान सभी अखबारों में लेखों एवं समाचारों के माध्यम से योजना का सन्देश एक करोड़ व्यक्तियों तक नियमित रूप से पहुँचाने की व्यवस्था करना। इसके लिए लेखकों एवं संवाददाताओं को बड़ी संख्या में प्रशिक्षित करना पड़ेगा। इसके लिए कलम का शास्त्र लेकर लड़ने वाले कम से कम एक हजार योद्धा चाहिए। इनको प्रशिक्षित किया जाना है। इस क्षेत्र में फिट बैठने की क्षमता सम्पन्न व्यक्तियों को व्यावहारिक रूप से यह सिखाया जायगा कि वे इस कार्य को किस प्रकार सुचारु रूप से सम्पन्न करते रह सकते हैं। अस्तु जेष्ठ में 31 मई से 14 जून तक का एक पन्द्रह दिवसीय शिविर मथुरा में लगेगा। व्यस्त लोग जून की छुट्टियों में आसानी से आ सकते हैं। पन्द्रह दिन में भी काम चलाऊ जानकारी वे ले सकते हैं।

जिनके पास अवकाश है उन्हें छः महीने इधर ठहरकर अभ्यास और अनुभव भी यहीं करना चाहिए। क्योंकि पन्द्रह दिन में इतना ही हो सकेगा कि उन्हें आवश्यक जानकारी करा दी जाय। उस जानकारी का प्रयोग करना आया कि नहीं यह तो अभ्यास पर निर्भर करेगा। और इतने बड़े ज्ञान के लिए छः महीने किसी भी दृष्टि से अधिक नहीं हैं। अपने दो अखबार निकलते हैं। छोटा प्रेस भी है। उनके माध्यम से सम्पादन, लेखन, प्रकाशन, प्रेस व्यवस्था आदि की ऐसी शिक्षा भी प्राप्त की जा सकती है जो साहित्य सेवी सैनिक बनने के इच्छुकों के लिए भावी जीवन का निर्वाह आधार भी बन सके। देश में अभी 20 फीसदी के करीब शिक्षा है। अगल 10-20 वर्षों में ही यह तीन गुनी, चौगुनी होगी तब आज की अपेक्षा लेखन, प्रकाशन एवं प्रेस व्यवस्था के लिए भी तीन-चार गुना क्षेत्र होगा। उस रिक्त स्थान को लेने के लिए अभी से वे लोग तैयार किये जाने हैं जो राष्ट्र की उस महत्वपूर्ण आवश्यकता की पूर्ति कर सकें।

अभी यहाँ व्यवस्था छोटी ही बन पाई है। इसलिए 100 से अधिक साहित्य सेवी सैनिक जेष्ठ के शिविर में न लिये जा सकेंगे वरन् निभ सका तो इससे कम ही रखेंगे। यह प्रथम शिविर की बात है। आगे और भी कई शिविर लगाने हैं। एक हजार साहित्य सेवी विनिर्मित करने की योजना जहाँ तक हो सकेगा, तीसरे वर्ष में ही पूरी करने का प्रयत्न करेंगे ताकि अगले वर्षों में इससे भी बड़े जो कदम उठाये जाने हैं, उठा सकें।

2-धर्म प्रचारकों की विशाल सेना- धर्म प्रचारकों की एक बड़ी सेना जन-संपर्क के लिए-लोक मानस को पलट डालने के लिए व उसका पुनर्निर्माण करने के लिए तैयार करनी है। लेखनी की पहुँच शिक्षित लोगों तक सीमित है। भारत में शिक्षा ही 23 फीसदी है। उनमें से भी पत्र पत्रिकायें या पुस्तकें पढ़ने में रुचि रखने वाले 1 करोड़ से अधिक नहीं। 46 करोड़ के देश में 1 करोड़ की संख्या तुच्छ है। युग निर्माण का संदेश तो जन-जन तक पहुँचाया जाना है। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए वाणी का माध्यम अनिवार्य रूप से आवश्यक है। हम धर्म का माध्यम लेकर चले हैं। जनता को धार्मिक बनाना है। अतएव वाणी द्वारा जन-जागरण करने करने का व्रत लेने वालों को धर्म प्रचारक या धर्म सैनिक ही कहा जायगा।

योजना के तृतीय वर्ष में एक हजार धर्म प्रचारकों को मोर्चे पर अड़ा देने का लक्ष्य बनाया गया है। जिसका प्रारम्भ जेष्ठ के 15 दिवसीय शिविर से किया जा रहा है। ता0 15 मई से 30 मई तक का शिविर इसी का शुभारम्भ हैं। सब को विदित है कि गायत्री तपोभूमि में स्थान सम्बन्धी तथा अन्य प्रकार की साधन सुविधा कम है। इसलिए उपरोक्त 15 दिवसीय शिविर में 100 से कम ही प्रशिक्षार्थी लिये जा सकेंगे। पर आगे यह प्रयत्न करेंगे कि शिविरों की यह शृंखला आगे बढ़ाई जाय और एक हजार धर्म प्रचारक कार्यक्षेत्र में उतार दिए जायें।

पिछले अंक में बताया जा चुका है कि (1) भागवत सप्ताहों की तरह गीता सप्ताहों के धर्मानुष्ठानों की व्यापक शृंखला फैलाई जानी है। (2) षोडश संस्कारों के माध्यम से व्यक्ति निर्माण तथा परिवार निर्माण का कार्यक्रम चलता है। (3) त्यौहारों को प्रेरणाप्रद ढंग से मनाकर समाज निर्माण की पृष्ठ-भूमि तैयार करनी है। (4) सत्य नारायण कथा द्वारा धर्म, अध्यात्म, सदाचार और नीति का स्वरूप जन-मानस में प्रतिष्ठापित करना है। (5) छोटे सस्ते सामूहिक गायत्री यज्ञों के द्वारा एकत्रित की गई कोटि-कोटि जनता तक नवयुग की प्रकाश किरणें पहुँचानी है। धर्म चेतना उत्पन्न करने के लिए यह पाँचों माध्यम एक से एक बढ़कर प्रभावशाली हैं। इस कार्य पद्धति को मूर्त रूप देने के लिए आवश्यक साहित्य अब छप चुका है। उसका व्यवहारिक प्रशिक्षण 31 मई से 14 जून तक होगा। सुयोग्य व्यक्ति 15 दिन के स्वल्प समय में भी जो कुछ सुनेंगे या देखेंगे उसके आधार पर इस योग्य बन सकेंगे कि वे नवयुग के अग्रदूत बनकर कोटि-कोटि जनता तक उदीयमान ऊषा की आभा का परिचय दे सकें।

धर्म प्रचारकों को क्या करना है, इसकी रूपरेखा पन्द्रह दिन में देखी या सुनी ही जा सकेगी। उसका अभ्यास करने में समय लगेगा। भाषण कैसे दिया जाय यह सीख सुन लेने के लिए 15 दिन पर्याप्त है। पर उसका अभ्यास तो समय साध्य ही है। इसके लिए न्यूनतम छः महीने का समय चाहिए। जिन्हें इस दिशा में कुछ अधिक ठोस काम करना हो, उन्हें मथुरा छः महीने रहने का अवकाश भी निकालना ही पड़ेगा। इतनी अवधि में ही वे पूर्वोक्त पाँच कार्यक्रमों को भली प्रकार सम्पन्न कर सकने में निष्ठगत बन सकेंगे। फिर इन्हीं छः महीनों में ही उन्हें संगीत का, हारमोनियम आदि बजाने का अभ्यास भी तो करना है। अपना कार्यक्षेत्र भारत की देहातें हैं। जहाँ अभी मानसिक विकास भाषणों के नहीं संगीत के अधिक उपयुक्त हैं। धर्म प्रचार के लिए सदा से ही संगीत प्रधान माध्यम रहा है। अभी भी और आगे भी उसी की प्रमुखता रहने वाली है। कीर्तन, भजन तो हर धार्मिक आयोजन के प्रधान अंग होते हैं। इसलिए छः महीने के प्रशिक्षण में संगीत को भी जोड़ दिया गया है। धर्म प्रचारक को संगीत भी जानना ही चाहिए।

(1) 15 जून से 15 दिसम्बर तक और (2) 15 दिसम्बर से 15 जून तक, 6-6 महीने के दो सत्र चलाए जाते रहने की घोषणा की जा चुकी है। यह सत्र इसी समय से आरम्भ हो जायेंगे। लेखनी और वाणी दोनों ही माध्यमों से शिक्षा लेने वालों के सत्र इसी 15 जून से चल पड़ेंगे। यों दोनों की शिक्षा विधि स्वतन्त्र है। फिर भी समीप रहने के कारण शिक्षार्थी दूसरी कक्षाओं में पढ़ाये जाने वाले विषयों को भी बहुत कुछ सीख ही सकेंगे। लेखन कक्षा वालों को भाषण की और भाषण वालों को लेखन का भी कुछ तो अनुभव आभास हो ही जायगा। इस प्रकार दोनों कक्षाएं अपने निर्धारित शिक्षण के अतिरिक्त दूसरा प्रशिक्षण भी एक सीमा तक ले ही सकेंगी।

धर्म प्रचार के लिए निर्वाह व्यवस्था का सहज हल मौजूद है भागवत सप्ताह की तरह गीता सप्ताह कहने पर सात दिन की आजीविका साधारणतया 50) मिल जानी चाहिए। महीने के दो आयोजन भी कर लिए जायें तो 100) बच्चों का निर्वाह मिल सकता है। इसमें कोई संतोषी व्यक्ति किसी प्रकार गरीबी के साथ गुजर चला सकते हैं। संस्कार, त्यौहार, सत्यनारायण कथा आदि आयोजनों से भी आजीविका मिलती रहती है। यों यह कार्य शाखा संगठनों के जिम्मे छोड़ा गया है कि वे प्रचारक की नियत व्यवस्था करें ताकि उसे व्यक्तिगत रूप से प्रयत्न न करना पड़े और न्यूनाधिक मिलने की अनिश्चित स्थिति भी न रहे। परन्तु जो स्वतन्त्र रूप से पौरोहित्य कर्म करते हैं या करना चाहते हैं वे उस तरह भी अपनी आजीविका चला सकते हैं जिस तरह कि वर्तमान पंडित, पुरोहित चलाते हैं। यह योजना उन सबके लिए भी अतीव उपयोगी है जो अवैतनिक रूप से धर्म प्रचार करना चाहते हैं। जिनके पास अपनी निज की आजीविका मौजूद है जो नौकरी आदि से लगे हैं। अवकाश का थोड़ा समय धर्म प्रचार में लगाना चाहते हैं। ऐसे लोग उतने थोड़े समय में भी अपने क्षेत्र को जागृत करने में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।

3- सामाजिक क्रान्ति-अभियान- जेष्ठ के 15-15 दिवसीय लेखनी, वाणी के दोनों शिविर समाप्त होते ही उसके दो दिन बाद सामाजिक क्रान्ति सम्मेलन रखा गया है। 17,18,19 जून को तीन दिन के लिए उन सभी विचारशील एवं देश, धर्म, समाज, संस्कृति के लिए दर्द रखने वालों को बुलाया गया है जो नये समाज की नई रचना में अभिरुचि लेते हैं तथा कुछ करने के लिए इच्छुक हैं।

लेखनी और वाणी का प्रभाव मस्तिष्क पर तो पड़ता है पर आन्दोलन तब खड़े होते है जब उनका कोई दृश्य रूप सामने आये। स्वाधीनता प्राप्त करने की आकांक्षा को सत्याग्रह संग्राम का मूर्त रूप देने देने के लिए गान्धी जी को नमक सत्याग्रह का दृश्य कार्यक्रम बनाना पड़ा है। पुराने खंडहरों की सफाई और माता भारती का भव्य-भवन बनाने की प्रक्रिया का कुछ मूर्त रूप तो होना ही चाहिए, कुछ संघर्षात्मक क्रम भी चलना चाहिए ताकि आवश्यक उत्साह पैदा हो सके। शूर सैनिकों को कुछ कर गुजरने का अपना साहस पुरुषार्थ दिखाने का अवसर मिल सके। युग निर्माण योजना ऐसे एक सौ रचनात्मक कार्यक्रम लेकर चल रही है। हर स्थिति का व्यक्ति अपने ढंग में कुछ न कुछ रचनात्मक कार्य स्वतन्त्र रूप से भी कर सकता है। पर अभी जो प्रधान कार्यक्रम हाथ में लिया जा रहा है वह है विवाहों के नाम पर चल रहे ‘अन्धेर’ का उन्मूलन। नये समाज का नया निर्माण विवाह से आरम्भ होता है। वर-वधु मिलकर एक स्वतन्त्र सृष्टि का आरम्भ करते हैं। यदि मूल में ही गड़बड़ी होगी तो अन्त तक उसका बुरा प्रतिफल ही निकलेगा। विवाह अत्यन्त ही धार्मिक एवं सात्विक वातावरण में-आदर्शवादिता से ओत-प्रोत होने चाहिए ताकि वह शुभारम्भ पति-पत्नी के जीवन को धार्मिक बना सकने में, धार्मिक सन्तान उत्पन्न कर सकने में सफल हो सके। धर्म-युग का सूत्रपात यहीं से तो होना है।

कहना न होगा कि आज विवाहों के नाम पर कितना अन्धेर चल रहा है। दहेज की माँग कितनी घातक एवं कितनी अनैतिक है इसे हर विचारशील अनुभव करता है पर यह कुप्रथा अपना वीभत्स रूप दिन-दिन विकराल ही बनाती चली जा रही है। घटने के स्थान पर सुरसा के मुँह की तरह बढ़ती ही जा रही है। औसत हिन्दू को अपनी आमदनी का एक तिहाई भाग इन्हीं अपव्ययों में बर्बाद करना पड़ता है। उसकी पूर्ति के लिए बेईमानी करने को विवश होना पड़ता है। हिन्दू समाज को इन कुरीतियों ने ही बेईमान बनने के लिए विवश किया है। इसलिए इन्हें अगणित पापों की जननी ही कहना चाहिए। बेईमानी का मार्ग सब नहीं अपना पाते। थोड़ी बेईमानी से भी काम नहीं चलता, क्योंकि जिसके घर कई बच्चे हैं उसे उनके विवाह में इतना धन चाहिए जितना उसकी सामर्थ्य से बाहर है। ऐसी दशा में सामान्य स्तर के हिन्दू को अपने परिवार की सारी महत्वाकाँक्षाएँ समाप्त करके बच्चों के विवाह को ही परम पुरुषार्थ मानकर सन्तुष्ट रहना पड़ता है। इस दबाव से कई बार तो लोग इस बुरी तरह कुचल जाते हैं कि जीवन-भर कराहते-कराहते ही उन्हें मरना पड़ता है।

समय आ पहुँचा है कि हम अपने समाज में फैली हुई कुरीतियों और अनीतियों के विरुद्ध बगावत खड़ी करें। इतना साहस किये बिना व्यापक जड़ता का उन्मूलन कभी भी न हो सकेगा। आदर्श विवाहों का जिनमें न्यूनतम नाम मात्र का खर्च पड़े हमें प्रचलन करना ही चाहिए। अखण्ड-ज्योति परिवार का विशाल संगठन इस दिशा में पहल कर सकता है और उसे करनी भी चाहिए। सामाजिक क्रान्ति के लिए भी हम व्रत ले चुके हैं। उसे साहसपूर्वक पूरा करना चाहिए। यों अभी अगणित मोर्चों पर हमें लड़ना है और नये समाज की नई रचना के लिए बहुत आगे तक चढ़ना है, पर प्रारम्भिक मोर्चा, वहीं से खड़ा किया जाय जो सबसे अधिक कष्टकारक है, सबसे अधिक घृणित हैं। हमें विवाहों की धूमधाम मिटा ही देनी चाहिए और उसे एक परम पवित्र धर्मानुष्ठान के रूप में प्रचलित करना चाहिए।

17, 18, 19 जून का सम्मेलन इसी प्रयोजन के लिए बुलाया गया है। इस आन्दोलन को किस प्रकार कारगर रीति से आगे बढ़ाया जाय। इस पर गम्भीर मंत्रणा करने की आवश्यकता है, ताकि अधिक ठोस, अधिक मजबूत, अधिक कारगर कदम उठाये जा सकें और सफलतापूर्वक लड़ाई लड़ी जा सके। इस सम्बन्ध में उपयुक्त जोड़े मिलाने के लिए ऐसी एजेन्सियाँ भी कायम करनी पड़ेगी जो उपयुक्त जोड़े ढूँढ़ने में सहायता कर सकें। क्योंकि एक पक्ष सुधारवादी हो दूसरा वैसा न मिला तो सुधार कार्यान्वित नहीं हो पाता। उपर्युक्त एजेन्सियों को प्रगतिशील जातीय सुधार सभाएँ भी कह सकते हैं। चूँकि विवाह अपनी जातियों में ही होते हैं और हर जाति की अपनी-अपनी अलग कुरीतियाँ एवं व्यवस्थाएँ हैं, उन्हें सुधारने के लिए उस जाति के लोगों में अलग-अलग काम करना पड़ेगा। आदर्श विवाहों के लिए अधिक लोगों को सहमत करना, जोड़े मिलाना तथा प्रभावोत्पादक ढंग से ऐसे विवाहों का सम्मिलित आयोजन करना इन जातीय एजेन्सियों का ही कार्य है। वे उस समाज में प्रचलित अन्य अनेक कुरीतियों को भी सुधारने का प्रयत्न करती रहेंगी। जून के सम्मेलन में हर जाति की ऐसी एजेन्सियाँ, सुधार समितियाँ भी गठित कर देने का हमारा विचार है जो उपरोक्त प्रयोजनों की पूर्ति में उत्साहपूर्वक संलग्न हो सकें।

सामाजिक क्रान्ति में विश्वास रखने वाले उसके श्रीगणेश में अग्रगामी सत्साहसी लोगों को इस आयोजन में अनुरोधपूर्वक आमंत्रित किया गया है। यद्यपि जून में गर्मी अधिक पड़ती है और बड़े सम्मेलनों के लिए पंडाल आदि नहीं बन सकते। पर अच्छी ऋतु आने तक के लिए ठहरा भी तो नहीं जा सकता। योजना का तीसरा वर्ष आरम्भ होते ही हमें आदर्श विवाहों के प्रचलन की सामाजिक क्रान्ति आरम्भ करनी है। अगले वर्ष एक लाख सुशिक्षित युवकों से दहेज स्वीकार न करने के प्रतिज्ञा पत्र भरवाने हैं, ताकि ऐसे अगणित विवाह सामूहिक रूप से कराने हैं। संभवतः कुछ आदर्श विवाह तो गायत्री तपोभूमि में भी होंगे। उत्तर भारत में 600 से अधिक जातिभुमि में भी होंगे। उनमें से 100 प्रगतिशील जातीय सुधार सभाएँ तो हमें आगे बना ही लेनी होंगी। यह कार्य उपरोक्त सम्मेलन से ही आरम्भ होगा। इसलिए अधिक गर्मी रहते हुए भी अग्रगामी लोगों को आना ही होगा। यों इस सम्बन्ध में बड़ा सम्मेलन आगामी दिसम्बर में उन दिनों करेंगे जब कि शीत कालीन छुट्टियां होती हैं।

पहले विचार यह था कि जून का सम्मेलन ‘सनाढ्य’ ब्राह्मणों का हो और शेष जातियों के प्रतिनिधि उसमें प्रेक्षक की तरह सम्मिलित हों। पर इस सम्बन्ध में अखण्ड-ज्योति परिवार की सभी जातियों ने समान रूप से उत्सुकता दिखाई है और एक-एक जाति का अलग-अलग सम्मेलन करके बहुत समय लगाने की अपेक्षा एक साथ ही सब जातियों का सम्मेलन बुलाने का सुझाव दिया है। हमें भी यह ठीक लगा। इसलिए अब सामाजिक क्रान्ति सम्मेलन सभी जातियों का सम्मिलित कर दिया गया है। उसमें सभी लोग समान रूप से भाग लेंगे। हाँ, तीन दिनों में प्रथम दिन ब्राह्मण, द्वितीय दिन क्षत्रिय, तृतीय दिन वैश्य जातियों की संगठन व्यवस्था बनाने के कामकाजी कार्यक्रम के लिए अलग समय सुरक्षित रखकर बाकी खुला अधिवेशन एवं विचार-विनिमय सामूहिक रूप से ही होगा। आशा करनी चाहिए कि इस सम्मेलन के बाद देश में एक नई चेतना उत्पन्न होगी। एक ऐसी चिनगारी जलेगी जो कुरीतियों की होली को जलाकर भस्म कर देगी और विवेक का प्रहलाद हँसते-खेलते विजय ध्वजा फहराता हुआ बाहर निकलेगा।

4-चान्द्रायण व्रत तपश्चर्या- गत दो वर्षों से सैंकड़ों व्यक्तियों ने हमारी देख-रेख में चान्द्रायण व्रत किया है। उससे उनकी शारीरिक-विशेषतया पेट की बीमारियों के सुधार में आशातीत सफलता मिली है। मानसिक विकारों, दोष, दुर्गुणों के सुधार में भी इस व्रत का आश्चर्यजनक परिणाम देखा गया है। शास्त्रों में पापों के प्रायश्चित के लिए इस तपश्चर्या को अद्वितीय बताया गया है। गायत्री मन्त्र के सवा लाख पुरश्चरण के साथ चान्द्रायण व्रत सोना और सुगन्ध के मिलने जैसा उदाहरण प्रस्तुत करता है। जिन लोगों ने इन गत दो वर्षों में भाग लिया है उनमें से प्रायः सभी ने इससे उपलब्ध सत्परिणामों की दूर-दूर तक चर्चा की है, फलस्वरूप हर बार यह व्रत करने के लिये मथुरा आने वालों की संख्या बढ़ती ही गई है।

इस बार जेष्ठ में यद्यपि युग निर्माण योजना के महान् अभियान से सम्बन्धित 15-15 दिन के दो शिविर हैं और साथ ही सामाजिक कान्ति सम्मेलन भी हैं फिर भी चान्द्रायण व्रत करने वालों को निराश नहीं किया गया है। जिन्हें यह तपश्चर्या करनी हो वे 15 मई की शाम तक मथुरा आ जावें और 15 से अपना व्रत आरम्भ कर दें। दोनों शिक्षण शिविरों में सम्मिलित रहने का लाभ उन्हें अनायास ही मिल जावेगा।

5-ज्योति अवतरण साधना- विगत बसन्त पंचमी से ‘ज्योति अवतरण’ की साधना क्रम जिन लोगों ने आरम्भ किया है उन्हें इस थोड़ी ही अवधि में आशाजनक मनोबल प्राप्त हुआ है। यह ध्यान अतीव प्रेरणाप्रद है। प्रायः सूर्योदय से पूर्व का कुछ समय हममें से प्रत्येक को इस ध्यान धारणा के लिए निकालना चाहिए। समयाभाव हो तो जप संख्या में कुछ कमी की जा सकती है। पर उसे सूर्योदय के बाद भी किया जा सकता है। पर ध्यान नियत समय पर ही कर लेना चाहिए। सूर्योदय से पूर्वं कुछ समय यदि ‘ज्योति अवतरण’ ध्यान में लगाते रहा जाय तो उसका उत्साहवर्धक परिणाम सहज ही दृष्टिगोचर होने लगेगा। जिनने अभी तक उसे आरम्भ न किया हो वे अब आरम्भ कर दें।

6-प्रतिनिधि एवं उत्तराधिकारी- जहाँ कहीं भी अखण्ड-ज्योति पहुँचती है वहाँ हमने अपने प्रतिनिधि एवं उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिए हैं। हमारा कार्यक्रम घटता चला जा रहा है। हमारे स्थान की पूर्ति इन्हीं उत्तराधिकारियों को करनी होगी। अतएव उन्हें अभी से जिम्मेदारियों को अपने कन्धों पर उठाना आरम्भ कर देना चाहिए। जहाँ अखण्ड-ज्योति पहुँचती है पर नियुक्तियाँ नहीं हुई हैं वहाँ के परिजन जनवरी अंक में संलग्न फार्म को भरकर अविलम्ब भेज दें। कोई स्थान ऐसा नहीं रहना चाहिए जहाँ अखण्ड-ज्योति तो पहुँचती हो पर प्रतिनिधि मंडल कर्मयुक्त न हुआ हो।

जहाँ जितने अखण्ड-ज्योति सदस्य हैं, उन सब को एक संगठन के अंतर्गत आबद्ध हो जाना चाहिए। शाखा कार्यालय का दफ्तर स्थापित कर लिया जाय। वहाँ एक सामूहिक पुस्तकालय हो जहाँ से अन्य सदस्य जीवन निर्माण का प्रेरणाप्रद साहित्य पढ़ने के लिये प्राप्त करते रह सकें। नियुक्त प्रतिनिधियों को नियमित रूप से ज्ञान-यज्ञ के लिये कुछ समय दान करना आरम्भ कर देना चाहिए।

अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्यों की जन्म तिथियाँ शाखा कार्यालय में नोट करनी चाहिए और ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए कि जिस दिन जिसका जन्म दिन हो उस दिन उसके यहाँ छोटा गायत्री हवन, कीर्तन, भजन, प्रवचन आदि का सामूहिक आयोजन हो। अन्य सदस्य शुभ कामना के पुष्प भेंट करें। स्वागत में सौंफ जैसी सस्ती चीजें ही रहें ताकि दूसरों को उसका अनुकरण करने में किसी प्रकार की कठिनाई न हो। जिसका जन्म दिन हो उसे अपना जीवन अधिक प्रगतिशील एवं अधिक सेवामय बनाने की प्रेरणा दी जाय। इस प्रकार संगठन सुदृढ़ होगा और शाखा का क्रम ठीक तरह चलने लगेगा। संगठित शाखाएँ ही अगले रचनात्मक कार्यक्रमों को सुचारु रूप से चलाने में समर्थ हो सकती हैं।

7-’युग निर्माण योजना’ पाक्षिक- अपने परिवार की जो रचनात्मक गतिविधियाँ सारे देश में चल रही हैं, उसकी जानकारी हममें से सबको परस्पर रहनी चाहिए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ‘युग निर्माण योजना’ पाक्षिक निकाला गया है। योजना की गतिविधियों की जानकारी उसी से मिलती है और आन्दोलन के लिए आवश्यक वातावरण समाचारों से ही बनता है। अखण्ड-ज्योति में समाचार नहीं छपते, यह आवश्यकता पाक्षिक से पूरी होती है। अतएव उसे पढ़ना अखण्ड-ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिए आवश्यक है। जहाँ अभी तक पाक्षिक न मँगाया जाता हो वहाँ वैयक्तिक या सामूहिक रूप से 6) चन्दा भेजकर उसे तुरन्त आरंभ कर लिया जाय। आन्दोलन की गतिविधियों से हर सदस्य को परिचित रहना ही चाहिए। इसलिए ‘युग निर्माण’ पाक्षिक को मँगाने का भी हर जगह प्रबन्ध कर लिया जाना चाहिए।

8-वानप्रस्थ व्रत- जिनके बच्चे कमाने योग्य हो गये हैं, परिवार की आर्थिक जिम्मेदारियाँ जिनके ऊपर से हलकी हो गई हैं, उन विचारशील स्वजनों को “वानप्रस्थ” की तैयारी करनी चाहिए। जीवन का एक चौथाई भाग समाज सेवा के लिए शास्त्रकारों ने निश्चित रखा है। जो उस समय को भी अपने लोभ, मोह में खर्च कर डालते हैं उन्हें समाज की अमानत चुराने वाले पापी कहा गया है। हमें शास्त्र मर्यादाओं के अनुसार अपना धर्म, कर्त्तव्य पालन करना चाहिए। प्राचीन भारत का गौरव यदि पुनः उपलब्ध कराना हो तो समाज सेवा का व्रत लेने वाली वानप्रस्थ परम्परा को पुनर्जीवित करना ही पड़ेगा। इसके बिना निस्वार्थ अनुभवी और ऊँचे-ऊँचे लोक सेवियों का अभाव ही बना रहेगा।

प्रसन्नता की बात है कि गत माघ के शिविर में 10 प्रबुद्ध लोगों ने वानप्रस्थ व्रत लेकर भावी जीवन समाज हित के लिए समर्पित कर देने का साहस दिखाया। यही साहस उन सब को भी दिखाना चाहिये जिनकी स्थिति अनुकूल हो। घर के ही एक कमरे में, या समीप अकेले रहने की व्यवस्था करके उस निवास स्थान को छोटा तपोवन बनाया जा सकता है। ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में अधिकाधिक कठोरता रखने का प्रयत्न किया जा सकता है। अनिवार्य इसलिए नहीं रखा गया है कि यह न सध सकने से लोग समाज सेवा के महान कर्त्तव्य से भी वंचित रह जाते हैं।

जिनको कमाने की चिन्ता नहीं है उन्हें वानप्रस्थ लेकर समाज सेवा का कार्यारम्भ करना चाहिये। जो इस स्थिति में हैं पर मोह वश साहस नहीं कर पाते उन्हें दूसरे लोग प्रोत्साहित करें यही उचित है। अखण्ड-ज्योति परिवार को बड़ी संख्या में वानप्रस्थ निकाल कर समाज को अर्पित करने हैं। इसके लिये हममें से प्रत्येक को साहस एकत्रित करना चाहिए ताकि उपयुक्त समय आते ही यह व्रत ग्रहण करने का सत्साहस दिखा सकें। जेष्ठ के शिविरों में भी ऐसा व्रत धारण करने की व्यवस्था रहेगी।

9-शिविर में आने से पूर्व- तपोभूमि में ठहरने का स्थान कम और आने के इच्छुकों की संख्या अधिक रहती है इसलिये यही नियम है कि स्वीकृति प्राप्त करके ही आना चाहिये। उपरोक्त किसी शिविर में जिन्हें सम्मिलित होना हो उन्हें अप्रैल मास से ही स्वीकृति प्राप्त कर लेनी चाहिये। जिन्हें स्वीकृति न मिले वह सम्मिलित न हो सकेंगे। जिनकी गोदी में बहुत छोटे बच्चे नहीं हों वे महिलायें भी आ सकेंगी।

भोजन व्यय सभी को अपना करना होगा। आमतौर से मिल-जुलकर दो-दो, चार-चार की इकाइयों में लोग अपना बना लेते हैं। इससे सस्ता भी पड़ता है और रुचिकर भी रहता है। तीन दिन के सम्मेलन में भोजन की दुकानें तपोभूमि के समीप ही रखने की व्यवस्था की गई है।


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