निर्धनता मनुष्य को कई तरह से परेशान करती है इसमें कुछ भी सन्देह की बात नहीं है। धन से ही मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। धन न हुआ तो जरूरी है कि कठिन समस्यायें सामने आयें। पर यदि मनुष्य निर्धन होकर भी कर्जदार है तो वह सबसे बड़े दुःख का कारण हैं। गरीबी स्वयं एक बड़ा बोझ है, कर्ज और बढ़ जाता है तो जीवन व्यवस्था की रीढ़ ही झुक जाती है। मनुष्य का सारा उल्लास समाप्त हो जाता है।
धन-हीन होने पर भी स्वच्छन्द मन के आध्यात्मिक पुरुषों के जीवन में एक प्रकार का आनन्द बना रहता है। पारिवारिक संगठन, प्रेम, साहस और शक्ति का स्वभाव हो तो मनुष्य थोड़े से धन के द्वारा भी सुखमय जीवन की आनन्द प्राप्त कर लेते हैं। किन्तु कर्ज लेकर सुखोपभोग का सामग्री उपलब्ध करना एक प्रकार से भावी जीवन के सुख शान्ति को ही दाव पर चढ़ा देना है। ऋणी होकर मनुष्य कभी सुखी नहीं रह सकता। डॉ. रसर का यह कथन कि “मनुष्य ऋण लेने नहीं जाता, दुख खरीदने जाता है” सत्य ही है। कर्ज लेकर सुख की कल्पना सचमुच भ्रामक है।
विश्व कवि शेक्सपियर ने लिखा है-”न हो ऋणी, न हो महाजन, क्योंकि ऋण लिया हुआ धन अपने को भी खो देता है और देने वाले मित्रों को भी। ऋण लेने की आदत मितव्ययिता की धार को मोटी कर देती है।” उचित रीति से धन खर्च करने की बुद्धि मनुष्य में तब आती है जब वह धन ईमानदारी और परिश्रम से कमाया गया हो। मेहनत से कमाया एक पैसा भी खर्च करते हुये दर्द पैदा करता है। उससे वही करम लेना उपयुक्त समझते हैं जिससे किसी तरह का पारिवारिक उत्तरदायित्व पूर्ण होता है। जो धन बिना परिश्रम के प्राप्त हो जाता है उससे किसी प्रकार का मोह नहीं होता, इसलिये उसका अधिकाँश उपयोग भी उड़ाने-खाने या झूठी शान-शौकत दिखाने में चला जाता है।
प्रमुख बात यह है कि हर मनुष्य में इतनी शक्ति और सामर्थ्य होती है कि वह अपनी शारीरिक, पारिवारिक जिम्मेदारियों का पालन ठीक तरह से कर ले। कर्ज की आवश्यकता उन्हीं को होती है जिन्हें अपना पारिवारिक खर्च ठीक प्रकार चलाना नहीं आता या जो श्रम-चोर होते हैं। उन्हें भी मिलता तो कुछ है नहीं और फालतू के व्यसन और पाल लेते हैं, सो उनकी पूर्ति के लिये कहीं से पैसा आना चाहिए। दुस्साहसी पुरुष चोरी छल आदि का आश्रय ले लेते हैं आलसी और अकर्मण्य इसके लिये दूसरों के आगे हाथ फैलाते हैं। कर्ज ले आना तो आसान बात है। चिकनी चुपड़ी बातें बनाकर या मित्रता का ढोंग बना कर किसी से उधार ले तो सकते हैं किन्तु जब अदायगी का समय आता है तो यह बोझ सारे परिवार की अर्थ व्यवस्था पर पड़ता है। फलस्वरूप परिवारों का सौमनस्य समाप्त हो जाता है। क्लेश, कलह और कटुता बढ़ जाती है। इसमें समय भी नष्ट होता है और सदस्यों की योग्यता भी व्यर्थ चली जाती है। कर्ज एक प्रकार से गृहस्थी को चौपट करने वाला होता है।
जिन लोगों की आमदनी बहुत थोड़ी होती है और खर्च अधिक होता है वे लोग कर्ज लेकर अपने को लंगड़ा-लूला जैसा ही अनुभव करते हैं। थोड़ी देर तक के लिये भले ही पूर्ति अनुभव हो किन्तु यह बोझ बढ़ जाता है तो बस मनुष्य का सारा जीवन कर्ज को निबटाने में ही चला जाता है। ऐसे लोग देखे जा सकते हैं जो ब्याज की एवज में साहूकार का ही जीवन भर काम करते रहते हैं उनका कर्ज फिर भी अदा नहीं हो पाता तो वह बोझ उठाकर उनके निरीह बच्चों पर डाल दिया जाता है और फिर एक पैतृक समस्या बन जाती है।
कर्ज एक तरह का सामाजिक कलंक है। लेने वाले के लिये ही वह कठिन अपराध और भारस्वरूप नहीं होते वरन् देने वाले की भी परेशानियाँ कम नहीं होतीं। महात्मा टॉलस्टाय ने लिखा है “कर्ज देना मानों किसी चीज पहाड़ की चोटी से गिराना है और फिर उसे वसूल करना उतना ही कठिन होता है जितना किसी वजनदार चीज को पहाड़ की चोटी पर ले जाना। कर्ज मनुष्य की सबसे बड़ी और दूसरे को देने की गरीबी है।”
उधार लेते समय प्रायः सभी यह सोचते हैं कि फसल की अच्छी कमाई होगी, बीमा पॉलिसी मिलेगी, मकान का किराया आवेगा या प्राविडेण्ट फण्ड का पैसा मिलेगा तब आसानी से इसे अदा कर देंगे। यह सोचकर लोग शादी-विवाह, मृतक संस्कार, भोज या अन्य किसी आवश्यकता के लिये कर्ज ले लेते हैं। अदायगी के समय तक सूद ही बहुत बढ़ जाता है, फिर उस समय भी तो खर्चे बने रहते हैं अतः. देने में बड़ी कठिनाई आती है। इस तरह ऋणी और साहूकार के आपसी सम्बन्ध भी खराब होते हैं, और देने वालों की कमाई का वह भाग व्यर्थ ही चला जाता है जिससे परिवार के अन्य सदस्यों के विकास में सहायता मिल सकती थी।
सूद के रूप में दिया जाने वाला पैसा एक तरह का अपने परिजनों की प्रगति पर आघात है। जेवर या जमीन रखकर लिया गया पैसा भी अपराध ही है क्योंकि इनके बदले में ली गई मूल रकम तो चुकानी ही पड़ती है, ब्याज भी देना पड़ता है और इन वस्तुओं का उपयोग भी कुछ नहीं हो पाता। कुछ दिन कठिनाइयों को सहन कर लेना या जेवर बेच देना कर्ज लेन से कहीं अधिक अच्छा है क्यों कि इससे हमारा नैतिक साहस ऊँचा उठा रहता है और सूद पर अकारण जाने वाला धन भी बच जाता है।
ऋण मनुष्य की खर्चीली प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देता है। चोरी, बेईमानी, जुआ, सट्टा आदि से ग्रसित लोगों को प्रायः ऋणी देखा जाता है क्योंकि इन लोगों को धन बेरोक टोक खर्च करने का स्वभाव हो जाता है। इससे विलासिता बढ़ती है और लोग पूर्व संचित संपत्ति भी गँवा देते है। ऋण के फेर में फँस कर धनी, सेठ, साहूकार तक अपनी बड़ी-बड़ी दुकानें, मकान आदि गँवा कर निर्धन हो जाते हैं। उदारता वश किसी की सहायता करके उसे आर्थिक धन्धा दे देना दूसरी बात है किन्तु ऋण लेने देने की आदत को व्यवसायिक रूप देना सदैव ही घातक होता है। अधिकाँश मध्यम वर्ग के लोगों में यह बुरी लत पड़ जाती है। अपने को ऊँचा करने के लिए सीमित साधनों से आगे बढ़ने का प्रयत्न करना ही कर्ज का कारण बन जाता है। लोग यह समझते हैं कि अमुक कार्य इस ढंग का नहीं होगा तो दूसरे व्यक्ति अपमानित करेंगे, छोटा समझेंगे। अपनी हेठी न हो इसी कायरता के कारण लोग आर्थिक परतन्त्रता स्वीकार कर लेते हैं। किन्तु यह एक मामूली सी समस्या है, लोग अपनी औकात के अनुसार खर्च की मर्यादा बनाये रहें तो ऋण लेने की समस्या कभी भी सामने न आये।
अपने रुके हुये काम को आगे बढ़ाने के या कोई आर्थिक धन्धा चलाने के लिये थोड़े समय के लिए किसी आत्मीय जन से सहायता लेकर थोड़े ही दिनों में उसे लौटा देना अनुचित भले ही न कहा जाय, पर जिन्होंने कर्ज को एक तरह का पेशा ही समझ लिया हो, उनको चाहिए कि वे समाज में वैमनस्यता उत्पन्न करने के अपराध से बचें। कर्ज से चिन्ता बढ़ती है और कार्य क्षमता घटती है। इससे राष्ट्रीय संपत्ति का नाश होता है इस लिये ऋणी होना अनागरिक कर्म की कहा जायगा। इससे बचने में ही मनुष्य का कल्याण है।
आध्यात्मिक दृष्टि से तो ऋणी होना और भी अपराध है। धर्म-ग्रन्थों में तो यहाँ तक कहा जाता है कि जो इस जीवन में ऋण नहीं चुका पाते उन्हें निम्न-योनियों में जन्म लेकर इसका भुगतान करना पड़ता है। इस पर भले ही लोग विश्वास न करें पर यह बात सभी समझ सकते हैं चरित्र और नैतिक साहस को गिराने में ऋण बहुत बड़ा सहायक है। इससे अकर्मण्यता और फिजूलखर्ची को पोषण मिलता है, कटुता बढ़ती है और सामाजिक सन्तुलन बिगड़ता है।
मनुष्य को परमात्मा ने बड़ी शक्ति असीम साधन और अतुलित पौरुष प्रदान किया है। इन्हीं के सहारे वह अपनी प्रगति कर सकता है। ऋणी होना न तो विकास ही दृष्टि से उचित है और न आध्यात्मिक दृष्टि से ही। इससे तो छुटकारा पाना ही ठीक है। कोई अकस्मात दुर्घटना जीवन संकट जैसे अवसर उपस्थित हों, और अपने साधन उस स्थिति का मुकाबला करने में असमर्थ हो रहे हों तो कर्ज लेना दूसरी बात है, पर आलस से दिन काटते हुये शरीर मौज के लिए तो कदापि कर्ज नहीं लिया जाना चाहिये। और न ऐसे लोगों को कर्ज देना ही चाहिये। इस्लाम धर्म में ब्याज को हराम, इसलिये कहा गया है कि ऋण का व्यवसाय अन्तः जगत के लिये हर समय ही हानिकारक सिद्ध होता है।