सच्चे ज्ञान के पिपासुओं और मानव सेवियों के लिए न कोई धर्म पराया होता हैं और न कोई देश, विदेश। उनकी ज्ञान-पिपासा की तृप्ति जिन धार्मिक सिद्धान्तों से होती है वही उनका धर्म और जहाँ उनकी सेवाओं की आवश्यकता होती है वही उनका देश होता है।
जिस प्रकार अनेक अन्य महापुरुषों ने एक देश में जन्म लेकर दूसरे देश को अपनी सेवाएँ समर्पित कीं, उसी प्रकार मिस मार्गारेट एलिजाबेथ नोवल ने आयरलैंड में जन्म लेकर भारत की सेवा की।
इनके पिता सेम्युएल स्वीमण्ड एक पादरी और माता मेरी इजावेल हैमिल्टन ईसाई धर्म की कट्टर अनुयायिनी थीं। स्वाभाविक था कि परिवार के धार्मिक वातावरण की छाप मिस नोवल के संस्कारों पर पड़ती। वे नियमित रूप से माता-पिता के साथ गिरजा घर जातीं और घर पर धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन करतीं। यह कार्यक्रम उनका लगभग अठारह वर्षों तक चला।
किन्तु अठारह वर्षों की इस अवधि में भी जब उनकी आत्मा की कोई तृप्ति न हुई तो उन्होंने ईसाई धर्म को तर्क की कसौटी पर कसना और विवेक की आँख से देखना शुरू कर दिया। तर्क की कसौटी पर ईसाई धर्म के सिद्धान्त उन्होंने बड़े ही कमजोर और संदिग्ध पाये, जिसके लिए उन्होंने एक स्थान पर स्वयं कहा है-
“अठारह वर्ष की आयु के पश्चात् ईसाई धर्म के सिद्धान्तों के प्रति मेरे मन में तरह-तरह की शंकाएँ उठने लगीं। उनमें से बहुत से सिद्धान्त तो मुझे सर्वथा असत्य और निःसार विदित हुए। मैंने बहुत कुछ चाहा, किन्तु अन्धविश्वास के बल पर ईसाई धर्म के प्रति अपनी आस्था को मैं डगमगाने से बचा न सकी। सात वर्षों के द्वन्द्वात्मक संघर्ष के बाद आखिर मेरे अन्तःकरण ने ईसाई धर्म को बिल्कुल अस्वीकार कर दिया और मैंने चर्च जाना छोड़ दिया।”
इस प्रकार ईसाई धर्म छोड़ देने मात्र से तो ज्ञानालोक की प्राप्ति सम्भव न थी। उसके लिए तो एक ऐसे धर्माकाश की आवश्यकता थी जिस के सत्य एवं शाश्वत सिद्धान्त सूर्य के समान ही असमान हों। निदान उसकी खोज में वे विभिन्न धर्मों की सिद्धान्त वीथियों में भटकती फिरीं। किंतु उनको वह उज्ज्वल प्रकाश कहीं न मिल सका जो उनके विवेक को संतुष्ट करके अन्तःकरण को प्रसन्न कर सकता। दिन-दिन उनकी ज्ञान पिपासा बलवती और अशान्ति बढ़ती गई। किन्तु वे ज्ञान की खोज में निराश होकर उदासीन न हुईं। उन्हें विश्वास था कि जिस वस्तु की प्राप्ति के लिए मेरे मन में एक सच्ची लगन लगी हुई है उसके न मिलने का कोई कारण नहीं है।
अपनी खोज के सिलसिले में एक बार उन्हें अपनी एक सहेली के घर स्वामी विवेकानन्द के दर्शनों और उनका प्रवचन सुनने का अवसर प्राप्त हुआ। बड़े ध्यान से उनका तर्क संगत प्रवचन सुनते-सुनते उन्हें ऐसा लगा जैसे जिस ज्ञान की खोज उन्हें थी उसका उद्गम मिल गया। बस फिर क्या था सच्ची जिज्ञासु कुमारी नोवल हिन्दू धर्म के अध्ययन में संलग्न हो गईं।
वह ज्यों ज्यों उसकी गहराई में उतरती गईं त्यों-त्यों उच्चतर ज्ञान के स्तर उनके सामने उघरते चले गये। जिसके फलस्वरूप उन्हें न केवल हिन्दू धर्म पर ही आस्था हुई, अपितु उसकी जन्मभूमि भारत भूमि से भी अगाध प्रेम हो गया। उन्होंने हिन्दू धर्म में दीक्षित होने और स्वामी विवेकानन्द को अपना धर्म गुरु बनाने का संकल्प कर लिया। अपने इस मन्तव्य को प्रकट करते हुए उन्होंने स्वामीजी को अपने को शरण में ले लेने के लिए पत्र लिख कर प्रार्थना की। स्वीकृति मिलने पर वे तत्काल भारत की ओर रवाना हो पड़ी। ध्येय की पक्की और लगन की पूरी उन मिस नोवल को न देश की संकीर्ण सीमायें रोक सकीं और न परिवार तथा परिचितों का मोह बाँध पाया।
भारत में उनका स्वागत करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने उनकी निष्ठा की परीक्षा लेते हुए कहा-’मिस नोवल!
भारतीय भूमि पर तुम्हारा स्वागत करता हूँ और जानता हूँ कि भारत को आज ऐसी नारियों की आवश्यकता है। किन्तु फिर भी मैं तुम से स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि तुम एक योरोपीय महिला हो, भारतीय जलवायु तुम्हारे अनुकूल हुआ न हुआ तो ? सम्भव है धर्म के कठोर नियम संयमों का पालन तुम्हारी प्रकृति के विपरीत पड़े। वेदान्त की असिधारा पर तुम्हारी प्रकृति अनभ्यस्त बुद्धि चल सकी या न चल सकी ? सम्भव है तुम्हारे मौलिक संस्कार अनागत संस्कारों का विरोध करें। इसलिए तुम अभी खूब अच्छी प्रकार सोच लो, विचार कर लो, क्योंकि एक बार इस मार्ग पर चल पड़ने के बाद फिर छोड़ भागना हमारे और तुम्हारे दोनों के लिए लज्जा का विषय होगा। क्योंकि मनुष्य का संकल्प एक होता है बार-बार बदलता नहीं। जिस प्रकार हाथी के दाँत बाहर निकल आने पर फिर दुबारा वापस नहीं होते उसी प्रकार मनुष्य का ध्येय पथ पर बढ़ा हुआ चरण पीछे नहीं हटता।”
कुमारी नोवल ने इसका केवल एक छोटा-सा उत्तर दिया-”भगवन्! मैं। भारतीय हूँ, आप केवल जन्म के कारण मुझे योरोपियन न समझिये। मेरा बाह्य आकार प्रकार अवश्य योरोपियन है किन्तु मेरी आत्मा विशुद्ध भारतीय है। मुझे निराश न करिए। अपनी शरण देकर मेरी अपनी आत्मभूमि की सेवा करने का अवसर दीजिए।”
स्वामी विवेकानन्द जी उनकी इस महान निष्ठा से बहुत प्रसन्न हुए और दीक्षित कर अपनी शिष्या बना लिया। दीक्षित हो जाने के बाद उन्होंने पाश्चात्य जीवन प्रणाली को त्याग कर भारतीय जीवन प्रणाली अपनाई।
स्थित हो जाने के बाद उन्होंने अपने गुरु से अपने कार्यक्रम का रूप रेखा का निर्देश माँगा। स्वामीजी ने उन्हें बड़े सरल शब्दों में बताया कि मानव का सबसे महान कार्य है अज्ञानान्धकार में भूले-भटके मनुष्यों को प्रकाश देना और दीन दुखियों की सेवा करना। जाओ, भारत की सेवा करो।
अपने गुरु से निर्देश पाकर मिस नोवल तत्काल काम में जुट गईं। उन्होंने नगर के विभिन्न भागों में घूम-घूम कर दुःखी जनों की सेवा करना प्रारम्भ कर दी और साथ ही बंगला तथा संस्कृत का अध्ययन भी।
वे उन्हें रहन सहन का तरीका बतातीं और स्वच्छता का सक्रिय उपदेश करतीं। बच्चों को प्यार करतीं और रोगियों की सुश्रूषा। यद्यपि भाषा की कठिनाई से उन्हें समझाने और समझने में असुविधा होती थी तथापि वे किसी प्रकार अपना काम चलाती रहीं। उन्होंने भाषा का बहाना लेकर उसके अध्ययन तक बैठे रहने की नहीं सोची, अपितु, जो कुछ जितना और जिस तरह हो जनसेवा ही करना ठीक समझा।
अपने महान अध्यवसाय से उन्होंने कुछ समय में ही बंगला और संस्कृत का ज्ञान प्राप्त कर लिया। वे अब उत्साह से सेवा कार्यों में जुट गईं। अब वे सेवा-सुश्रूषा भी करतीं और उन्हें और उनके बच्चों को पढ़ातीं भी।
इस प्रकार मिस नोवल दिन-दिन सर्व साधारण में लोकप्रिय होती गईं और इधर संभ्रान्त परिवारों में उनकी आलोचना प्रारम्भ हो गई। किन्तु उनके काम में इससे कोई शिथिलता न आई और उन्होंने आलोचना का उत्तर व्यर्थ वाद विवाद से न देकर और अधिक उत्साह पूर्ण सक्रियता से दिया।
अल्पकाल ही में उन्होंने नारी समाज में शिक्षा की भावना का उदय कर दिया और उसको स्थायित्व एवं विकास देने के लिए कलकत्ता की बोस पारा नामक गली में एक प्राथमिक कन्या पाठशाला प्रारम्भ की। नारी शिक्षा की दिशा में अपने विचारों को मूर्त रूप देते ही उन्हें रूढ़िवादी एवं अन्ध धार्मिकों की तीव्र आलोचना का सामना करना पड़ा। उस समय का रूढ़िवादी वर्ग, जिसका कि समाज पर प्रभाव भी बहुत था नारी शिक्षा को अधर्म मानता था और विरोध करता था। उसने एड़ी चोटी का जोर लगाकर मिस नोवल को अपने उद्देश्य में असफल करने और जनसाधारण में उन्हें अप्रिय बनाने का घोर परिश्रम किया। पहले तो वह अपने मन्तव्य में कुछ सफल हुआ और लोग मिस नोवल पर अविश्वास करने लगे। किन्तु कुछ ही समय बाद उनकी सच्ची लगन के सामने रूढ़िवादियों का प्रभाव ठहर न सका और उनकी पाठशाला धीरे-धीरे चल निकली। अब पाठशाला चलाने के लिए पैसे और कार्यकर्त्ताओं की कठिनाई जनसाधारण से माँग-माँग कर और कार्यकर्त्ताओं की कमी स्वयं अपने परिश्रम से हल कर ली।
उनकी तपस्या से वह प्रारम्भिक पाठशाला कुछ ही दिनों में एक विशाल विद्यालय बन गई और उनकी ओर सर जगदीशचन्द्र बोस और रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे महान पुरुषों और सरला घोषाल जैसी विदुषी नारियों का ध्यान आकृष्ट हुआ, जिससे उनके संपर्क में बहुत से बड़े-बड़े लोग आने लगे और उनका परिचय क्षेत्र निम्नकोटि से लेकर उच्चकोटि के क्षेत्र तक पहुँच गया। अब कुमारी नोवल के साधारण काम असाधारण कार्यों में बदलने लगें।
भारत की सेवा में अपना जीवन संपूर्ण रूप से निवेदित कर देने के कारण उनके गुरु स्वामी विवेकानन्द ने उनका नाम मिस नोवल से बदल कर ‘कुमारी निवेदिता’ कर दिया और वे परिचितों के बीच बहिन निवेदिता के संबोधन से प्रसिद्ध हो गईं।
पाठशाला के अतिरिक्त उन्होंने साहित्य क्षेत्र में पदार्पण किया और हिन्दू धर्म तथा समाज पर लगभग डेढ़ दर्जन बड़ी ही गम्भीर गवेषणा पूर्ण पुस्तकें लिखीं, जिनने पाश्चात्य जगत में एक हलचल मचा दी, और यूरोप में हिन्दू धर्म के प्रति ईसाई मिशनरियों की फैलाई भ्राँतियों में एक भूकम्प आ गया। वहाँ के लोग हिन्दू धर्म के महत्व और तत्व को समझने लगे। इसके विरोध में पुनः ईसाई मिशनरियों की अनर्गल बकवास और उनकी पुस्तकों के ऐसे मुँहतोड़ उत्तर उन्होंने दिए कि उनकी जबान बंद हो गई।
उन्होंने पुस्तकों की रचना के साथ-साथ ‘प्रबुद्ध भारत’, ‘कर्मयोगी’, ‘द हिन्दू कर्मयोगी’, ‘युगान्तर’, ‘स्टेट्समैन’, ‘मार्डन रिव्यू’ और ‘अमृत बाजार पत्रिका आदि आधे दर्जन से अधिक तत्कालीन आध्यात्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन एवं लेखन किया। उन्होंने सर जगदीश चन्द्र बोस को वैज्ञानिक क्षेत्र और रवीन्द्र नाथ टैगोर को साहित्य के क्षेत्र में सहायता एवं सहयोग किया।
जन क्षेत्र में उतरकर उन्होंने 1906 में आई बाढ़ के समय पीड़ितों की जो सेवा की, उसका उदाहरण संसार में मिलना मुश्किल है। वे बिना किसी साधन और साथी की अपेक्षा किये अकेली गाँव-गाँव घूमतीं, कमर तक पानी में घुसतीं, खेतों खलिहानों और झाड़-झंखाड़ों में जाकर बाढ़ पीड़ितों की सहायता करतीं। इससे उन दुःखी ग्राम वासियों को इतना प्रेम हो गया कि वे झुण्ड के झुण्ड अपनी निवेदिता भगनी को गाँव के बाहर तक पहुँचाने आते और रो-रो कर उन्हें विदा करते।
समाज सेवा के अनेक महान कार्य करने के बाद बहन निवेदिता ने राजनीति में पदार्पण किया। क्योंकि वे अपनी मातृभूमि भारत को पराधीन नहीं देख सकती थीं? वे जानती थीं कि देश की सर्वांगीण सेवा पराधीन रहते हुए नहीं की जा सकती। लेखों और भाषणों से कदम बढ़ा कर वे सक्रिय आँदोलनों तक पहुँचीं और साधारण स्वयं सेविका से उठ कर गोखले, तिलक, विपिनचन्द्र और अरविंद जैसे तत्कालीन शिखरस्थ नेताओं के समकक्ष ही नहीं पहुँचीं अपितु उनकी निर्देशिका तक बनीं।
अपने गुरु का आदेश पूरा करने में निवेदिता ने अपना सर्वस्व लगा दिया। वे आजीवन मानवता की सेवा करती-करती पैंतालीस वर्ष की आयु में ही 13 अक्टूबर 1912 को एक अलौकिक तेज पुँज की भाँति अस्त हो गईं।
किन्तु, उनका साहित्य उन्हें विश्व के और उनकी सेवा उन्हें भारत के इतिहास में युगों-युगों तक अमर रखेगी। उनकी प्रारम्भिक कन्याशाला आज “रामकृष्ण मिशन भगिनी निवेदिता कन्याशाला”, नाम से एक विशाल शिक्षा संस्था के रूप में उनका नाम आलोकित कर रही है।
उनकी मृत्यु से भारत को महान क्षति हुई किन्तु उनके कार्यों से भारत की आगामी पीढ़ियाँ सदैव लाभान्वित होती रहेंगी।
यह उनकी लगन, परिश्रम और सत्य धर्म निष्ठा का फल है कि विदेश में जन्म लेकर भी वे भारत की सच्ची संतान और भारतीय जनता की श्रद्धा पात्र बनीं। उनकी समाधि पर आज भी लिखा है-”यहाँ विश्राम कर रही हैं वह भगिनी निवेदिता जिसने भारत के लिये अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया।”