यस्तपस्वी जटी मुण्डों नग्नो वा चीवरावृतः।
सोऽप्यसत्यं यदि ब्रूते निन्द्याः स्यादन्त्यजादपि॥
जो तपस्वी वस्त्रधारी, सिर मुँडायें हुये, वस्त्र हीन अथवा वस्त्रधारी होते हुये भी असत्य बोलता है, वह चाँडाल से भी बुरा है।
तक्षकस्य विषं दन्ते मक्षिकाया विषं शिरः।
वृश्चिकस्य विषं पुच्छे सर्वांगे दुर्जनो विषम॥
साँप के दाँत में विष होता है और मक्खी के सिर में विष होता है। बिच्छू की पूँछ में विष होता है किन्तु दुर्जन के तो सम्पूर्ण अंगों में विष रहता है।
आत्मार्थं जीव लोकेऽस्मिन्को न जीवति मानवः।
परं परोपकार्रा यो जीविति स जीविति॥
अपने आपके लिए इस जीव लोक में कौन मनुष्य नहीं जीवित रहता है। पर सच्चा जीवन उसी का है जो परोपकारार्थ जीता है।