काम में लगन भी हो और भावना भी

April 1965

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मनुष्य की आन्तरिक अभिव्यक्ति उसके काम करने की लगन और भावना से ही परखी जा सकती है। यह जानने के लिये कि यह कार्य उसे पसन्द है कि नहीं, उसकी गतिविधियों पर एक निरीक्षण दृष्टि डालिए। उत्साहपूर्वक किया हुआ कर्म यह व्यक्त करता है कि उस व्यक्ति की अभिरुचि उसमें है। अनुत्साह और शिथिलता, कर्म के प्रति अरुचि का भाव परिलक्षित करते हैं। जिस कार्य से हमें प्यार होता है उसका परिणाम शीघ्र पाने के लिए वैसे ही तत्परता भी होती है। उतनी ही फुर्ती, अभिमान और उत्साह भी होता है, जी करता है कितनी जल्दी इसे समाप्त करें और इसका सुखद परिणाम प्राप्त करें। कर्म का सुख वस्तुतः उसकी लगन, भावना और निष्ठा में ही है। इस तरह सम्पन्न किये गए कर्म प्रफुल्लता दे जाते हैं किन्तु अनुत्साहपूर्वक काम करने से निराशा, क्षोभ और असफलता ही हाथ लगती है।

जिस काम को बोझ समझ कर करेंगे उसमें मानसिक चेष्टायें पूरी तरह से प्रवृत्त न होंगी। शारीरिक शक्ति भी जिस अनुपात से लगनी चाहिए थी वह न लगेगी, तब फिर कार्य के शुभ परिणाम की आशा भी धूमिल ही बनी रहेगी। प्रसिद्ध विचारक स्वेट मार्डेन ने लिखा है-”मनुष्य की असफलतायें परमात्मा की देन नहीं उसकी निजी पैदाइश होती हैं।” यह बात अक्षरशः सत्य प्रतीत होती है। संभव है किन्हीं कार्यों के अनुरूप अपनी शक्ति व योग्यता न हो तो उनकी असफलता को तो एक संयोग कह सकते हैं किन्तु जो कार्य हम कर सकते हैं, जो हमारी शक्ति और सामर्थ्य की सीमा में ही है वह कार्य भी यदि अपूर्ण रहता है तो यह मानना पड़ता है कि इस काम को लगन और उत्साह-पूर्वक नहीं किया गया।

काम करने की एक भावना होनी चाहिए-उत्कृष्ट और विशाल भावना। आपका विश्वास यह कहता हो कि हम इस कार्य को करके ही छोड़ेंगे, इसमें आत्महित है और पुरुषार्थ है तो आप सच मानिए उस कार्य में आपको असीम आनन्द आयेगा।

कमाई करते हुए जब यह भावना होती है कि इस धन से हमारे बच्चे विकसित होंगे, परिवार, राज्य और राष्ट्र समृद्ध बनेगा तो अन्तःकरण में अपूर्व शक्ति जागृत होती है, स्वाभिमान उठता है, और प्रसन्नता से अन्तःकरण भर जाता है। जब तक यह अनुभव नहीं करेंगे कि इस उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य का श्रेय उसे भी है तब तक कर्म का सात्विक आनन्द कैसे मिलेगा ? जो व्यक्ति इस सिद्धान्त में हितकारक उद्देश्य और ऊँची आवश्यकता नहीं देखता कि यह कार्य जन-जन का है, इसमें अपना भी कर्त्तव्य है वह अपने गलत और भ्रमपूर्ण दृष्टिकोण के कारण छोटा, ही बना रहता है, उसे कोई अच्छे परिणाम भी नहीं मिल पाते।

मनुष्य का जीवन एक आदर्श कर्म-विद्यालय है। इसमें नैष्ठिक स्नातक वे समझे जाते हैं जो कर्म को जीवन ध्येय मानकर उसे कुशलतापूर्वक निभाते हैं। विद्यार्थी अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण होने का लाभ तब पाता है जब वह लगनपूर्वक, भावनापूर्वक अध्ययन कार्यों में लगा रहता है। जिस तरह स्वाध्याय की चमक यह व्यक्त करती है कि विद्यार्थी का भविष्य उज्ज्वल है उसी प्रकार कर्म की उत्कट भावना यह बताती है इस मनुष्य का हृदय उत्कृष्ट और विशाल है। इन गुणों के कारण ही उसका व्यक्तित्व निखरता, समुन्नत होता, और श्रेय प्राप्त करता है।

आलस्यपूर्वक कार्य करने से तो यही अच्छा है कि चुपचाप बैठे रहें। शरीर को शिथिल और निराश बनाने की अपेक्षा उसे कुछ देर विश्राम दे लेना अच्छा है। अनुत्साह मनुष्य की अयोग्यता का चिन्ह है, इससे मनुष्य की जो नैसर्गिक दिव्यता है उसका लोप होता है। आकाँक्षाओं की पूर्ति के लिए संघर्ष द्वारा अपनी शक्तियों को व्यक्त करना ही मनुष्य का सच्चा पुरुषार्थ है। जिसने जीवन में संघर्ष न किया, परिस्थितियों से टकराकर मानव जीवन की दिव्यता न हासिल की, भला वह भी कोई आदमी है ? मनुष्य वह है जो कठिनाइयों को हँस-हँस कर गले लगाता है। परेशानियों के तूफान को उज्ज्वल भविष्य का प्रतीक मानकर उनसे जूझ पड़ता है। इन वीर पुत्रों के लिए धरती माता का अंचल सदैव खुला है। वे जब चाहें सफलता का पय-पान कर सकते हैं।

आये दिन लोगों से यह शिकायतें आती हैं-हमारा काम नहीं बनता, नौकरी नहीं मिलती, आर्थिक अभाव है, गरीबी से परेशान हैं। इनके जवाब में चतुर व्यक्ति उनके संतोष के लिए भले ही यह कहें कि उनके पूर्व जन्मों के प्रारब्ध अच्छे नहीं हैं, बुरे ग्रहों का प्रभाव है, भाग्य अच्छा नहीं है। पर सच पूछा जाय तो यह उत्तर अबोध बालक को बहलाने के लिए खिलौने देना मात्र है, जिससे उसके अभावजन्य असन्तोष का कष्ट कुछ देर के लिए हलका किया जा सकता है। पर झूठे आत्मसन्तोष से ‘गम गलत’ कर लेने पर भी प्रयोजन कुछ सिद्ध नहीं होता। हम जो कार्य करते हैं उसकी सफलता का दोषी न तो हमारा भाग्य या प्रारब्ध है, न ही बेचारे शनि देव उसमें बाधा उत्पन्न करते हैं। सच्ची बाधा तो यह है कि हमारे अन्दर काम करने की रुचि ही नहीं है, हम अपनी आन्तरिक मलिनताओं के पर्दे में अपनी दुर्बलता छिपाना चाहते हैं। एक अनपढ़ कुली दिन-भर बोझा ढोकर शाम तक पाँच रुपये कभी लाता है तो क्या कारण है कि एक सुशिक्षित व्यक्ति दिन-भर में चार पैसे भी नहीं कमा पाता ? क्या परिस्थितियों को दोष दें ? नहीं, यह व्यक्ति की अयोग्यता का परिणाम है। काम कैसा भी क्यों न हो मनुष्य अपनी योग्यता के कारण उसे ऊँचा सिद्ध करता है। कार्य करने की भावना ही उसे कर्म को बड़ा और व्यक्ति को असामान्य बना देती है।

यह देखकर बड़ी करुणा उत्पन्न होती है कि परमात्मा का युवराज मनुष्य जिसे विरासत में सैकड़ों अनुदान परमात्मा ने दिए हैं वह भी दीनता का जीवनयापन करता है। मनुष्य अपना सिर राजाओं की तरह ऊँचा उठा सकता है, बशर्ते अपनी काम करने की शक्ति सूर्य की किरणों की तरह विकसित हों। कर्म से शक्तियाँ जागृत होती हैं। कर्म से व्यक्तित्व का निर्माण होता है। कर्म से मनुष्य ऊँचा उठता है। उस कर्म की पूजा ही परमात्मा की सच्ची उपासना है। इसे भी उसी लगन और भावना से करना चाहिए जिस तरह परमात्मा की उपासना श्रद्धा और विश्वासपूर्वक करते हैं।

जो शक्ति परिस्थितियों को अनुकूल बनाती है वह है काम करने की लगन और भावना। मानवीय गुणों में एक गुण यह भी है कि वह भिन्न-भिन्न अवस्थाओं के साथ भी आश्चर्यजनक ढंग से अपना मेल पैदा कर सकता है। मन की तन्मयता में वह शक्ति है जो एक ही लक्ष्य के हजार रास्ते खोलकर रख देती है। इनमें कोई भी मनुष्य अपनी रुचि, शक्ति और सामर्थ्य के अनुरूप अपना चुनाव कर सकता है।

किसी बात में नापसन्दगी है, उसे करने में जी नहीं करता तो यह प्रयत्न करें कि उसमें भी कहीं कोई शिक्षाप्रद आदर्श या मनोरंजन उपलब्ध हो सके। कई स्थानों पर विद्यार्थियों ने रिक्शे चलाकर अपने अध्ययन पूरे किए हैं। इससे समाज में उनकी प्रतिष्ठा ही हुई है, अपनी योग्यता बढ़ा लेने का जो महान् लाभ उन्हें मिला सो तो अलग है ही।

यह दुनिया वैसे ही बड़ी नीरस है। यहाँ का रहा-सहा आनन्द भी व्यवसाय की अरुचि में चला जाता है। बिना उद्देश्य और भावना से मशीन की तरह काम करने से इस जीवन के सारे आनन्द नष्ट हो जाते हैं। अतः आवश्यकता यह है कि मन और आत्म-विस्तार के लिए यह जीवन कलापूर्ण ढंग से जीने का अभ्यास डाला जाय। काम चाहे जैसा हो अपनी लगन के द्वारा उनमें सफलता की सम्भावनायें बढ़ाते हैं और भावनाओं के द्वारा इसमें सरसता उत्पन्न करते हैं। बस यही सर्वोत्तम जीवन जीने का गुरु-मन्त्र है। इसे अपने जीवन में विकसित कर सके, तो बस इस जीवन में सफलता ही सफलता और आनन्द ही आनन्द है। जिसने काम करने की ललित कला सीख ली उसे सुख प्राप्त करने के लिए अन्यत्र भटकने की क्या आवश्यकता है ? कर्म ही मनुष्य जीवन का सच्चा सुख है। हमें भी इसी में अपने आपको घुलाकर इस जीवन का श्रेय प्राप्त करना ही चाहिए।


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