सुनसान के सहचर

February 1961

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(‘कोई एक’)

इस झोंपड़ी के चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ है। प्रकृति स्तब्ध। सुनसान का सूनापन अखर रहा था दिन बीता, रात आईं अनभ्यस्त वातावरण के कारण नींद नहीं आ रही थी। हिंस्र पशु, चोर, साँप, भूत आदि तो नहीं पर अकेलापन डरा रहा था। शरीर के लिए करवटें बदलने के अतिरिक्त कुछ काम न था। मस्तिष्क खाली था, चिन्तन की पुरानी आदत सक्रिय हो उठीं सोचने लगा - अकेलेपन का डर क्यों लगता है?

भीतर से समाधान उपजा - मनुष्य समष्टि का अंग है। उसका पोषण समष्टि द्वारा ही हुआ है। जल तत्व से ओत-प्रोत मछली का शरीर जैसे जल में ही जीवित रहता है वैसे ही समष्टि का एक अंग, समाज का एक घटक, व्यापक चेतना का एक स्फुल्लिंग होने के कारण उसे समूह में ही आनन्द आता है। अकेलेपन में उस व्यापक समूह चेतना से असंबद्ध हो जाने के कारण आन्तरिक पोषण बन्द हो जाता है, इस अभाव की बेचैनी ही सूनेपन का डर हो सकता है।

कल्पना ने और आगे दौड़ लगाई। स्थापित मान्यता की पुष्टि में उसने जीवन के अनेक संस्मरण ढूँढ़ निकाले। सूनेपन के अकेले विचरण करने के अनेक प्रसंग याद आये, उनमें आनन्द नहीं था, समय ही काटा गया था। स्वाधीनता संग्राम में जल यात्रा के उन दिनों की याद आई जब काल कोठरी में बन्द रहना पड़ा था। वैसे उस कोठरी में कोई कष्ट न था पर सूनेपन का मानसिक दबाव बहुत पड़ा था। एक महीने बाद जब कोठरी से छुटकारा मिला तो शरीर पके आम की तरह पीला पड़ गया था। खड़े होने में आँखों तले अँधेरा आता था।

चूँकि सूनापन बुरा लग रहा था, इसलिए मस्तिष्क के सारे कलपुर्जे उसकी बुराई साबित करने में जी जीन से लगे हुये थे। मस्तिष्क एक जानदार नौकर के समान ही तो ठहरा। अन्तस् की भावना और मान्यता जैसी होती है उसी के अनुरूप वह विचारों का, तर्कों, प्रमाणों, कारणों और उदाहरणों का पहाड़ जमा कर देता है। बात सही है या गलत यह निर्णय करना विवेक बुद्धि का काम है। मस्तिष्क की जिम्मेदारी तो इतनी भर है कि अभिरुचि जिधर भी चले उसके समर्थन के लिए, औचित्य सिद्ध करने के लिए आवश्यक विचार सामग्री उपस्थित कर दें अपना मन भी इस समय वही कर रहा था।

मस्तिष्क ने अब दार्शनिक ढंग से सोचना आरम्भ कर किया - स्वार्थी लोग अपने आपको अकेला मानते हैं, अकेले के लाभ हानि की ही बात सोचते हैं, उन्हें अपना कोई नहीं दीखता, इसलिए वे सामूहिकता के आनन्द को वंचित रहते हैं। उनका अन्तस् सूने मरघट की तरह साँय - साँय करता रहता है। ऐसे अनेकों परिचित व्यक्तियों के जीवन चित्र सामने आ खड़े हुये जिन्हें धन वैभव की, श्री समृद्धि की कमी नहीं, पर स्वार्थ सीमित होने के कारण सभी उन्हें पराये लगते हैं, सभी की उन्हें शिकायत और कष्ट है।

विचार प्रवाह अपनी दिशा में तीव्र गति से दौड़ा चला जा रहा था। लगता था वह सूनेपन को अनुपयुक्त ही नहीं हानिकर और कष्टदायक भी सिद्ध करके छोड़ेगा। तब अभिरुचि अपना प्रस्ताव उपस्थित करेगी - इस मूर्खता में पड़े रहने से क्या लाभ? अकेले में रहने की अपेक्षा जन-समूह में रह कर ही जो काम्य है, वह सब क्यों न प्राप्त किया जाय?

विवेक ने मन की गलत दौड़ को पहिचाना और कहा - यदि सूनापन ऐसा ही अनुपयुक्त होता तो ऋषि और मुनि, साधक और सिद्ध, विचारक और वैज्ञानिक क्यों उसे खोजते? क्यों उस वातावरण में रहते? यदि एकान्त में कोई महत्व न होता, तो समाधि-सुख और आत्म-दर्शन के लिये उसकी तलाश क्यों होती? स्वाध्याय और चिन्तन के लिए, तप और ध्यान के लिये क्यों सूनापन ढूँढा़ जाता? दूरदर्शी महापुरूषों का मूल्यवान समय क्यों उस असुखकर श्रकेज्ञेपन में व्यतीत होता?

लगाम खिंचने पर जैसे घोडा़ रूक जाता है उसी प्रकार वह सूनेपन को कष्टकर सिद्ध करने वाला चिचार प्रवाह भी रूक गया। निष्ठा ने कहाएकान्त साधना की आत्म-प्रेरणा असन नहीं हो सकती। निष्ठा ने कहा- जो शक्ति इस मार्ग पर खींच लाई है वह गलत मार्ग-दर्शन नहीं कर सकती। भावना ने कहा जीव अकेला आता है, अकेला जाता है, अकेला ही अपनी शरीर रूपी कोठरी में बैठा रहता है, क्या इस निर्धारित एकान्त विधान में उसे कुछ असुखकर प्रतीत होता है? सूर्य अकेला चलता है, चन्द्रमा अकेला उदय होता है, वायु अकेला बहता है। इसमें उन्हें कुछ कष्ट है?

विचार से विचार कटते हैं, इस मनः शास्त्र के सिद्धान्त ने अपना पूरा काम लिया। आधी घडी़ पूर्व जो विचार अपनी पूर्णता अनुभव कर रहे थे। अब वे कटे वृक्ष की तरह गिर पडे़। प्रतिरोधी विचारों ने उन्हिं परास्त कर दिया। आत्मवेत्ता इसी लिए अशुभ विचारों को शुभ विचारों से काटने का महत्व बताते हैं। बुरे से बुरे विचार चाहे वे कितने प्रबल क्यों न हों, उत्तम प्रतिपक्षी विचारों से काटे जा सकते हैं। अशुद्ध मान्यताओं को शुद्ध मान्यताओं के अनुरूप कैसे बनाया जा सकता है, यह उस सूनी रात में करवतें बदलते हुये मैने प्रत्यक्ष देखा। अब मस्तिष्क एकांत की उपयोगिता, आवश्यकता और महत्त पर विचार करने लगा।

* * * *

रात धीरे-धीरे बितने लगी। अनिद्रा से ऊठकर कुटिया से बाहर निकला तो देखा कि गङ्गा की धारा अपने प्रियतम की भाँति तीव्र गति से दौडी़ चली जा रही थी। रास्ते में पडे़ हुए पत्थर उसका मार्ग अवरूद्ध करने का भव्य करते पर वह उनके रोके रूक नहीं पा रही थी। अनेकों पाषाण खण्डों की चोट मे उसके अङ्गप्रत्यङ्ग चायल हो रहे थे तो भी वह न किसी की शिकायत करती थी और न निराश होती थी। इनबचाओं का उसे ध्यान भी नथा, अँधेरे का सुनसन का उसे भय न था। अपने हृदयेश्वर के मिलनकी व्याकुलता उसे इन सब बातों का ध्यान भी न आने देती थी। प्रिय के ध्यान मंन निमग्न 'हर-हर फल-फल' का तिलांजलि दे कर चलने से ही लौ लगाए हुए थी।

चन्द्रमा सिर के ऊपर आ पहुँचा था। गङ्गा की लहरों में उसके अनेकों प्रतिबिम्ब चमक रहे थे। मानों एक ही ब्रह्म अनेक शरीरों में प्रविष्ट होकर एक से अनेक होने की अपनी माया दृष्य रूप से समझ रहा हो। दृश्य बडा़ सुहावना था। कुटिया से निकल कर गङ्गातट के एक बडे़ शिलाखण्ड पर जा बैठा और निर्निमेष होकर उस सुन्दर दृश्य को देखने लगा।थोडी़ देर में झपकी लगी और उस शीतल शिला खण्ड पर ही नींद आ गई।

लगा कि वह जल धारा कमल पुष्प सी सुन्दर एक देव कन्या के रूप मे परिणित होती है। वह अलौकिक शांति, समुद्र सी सौम्य मुद्रा में ऐसी लगती थी मानो इस पृथ्वी की सारी पवित्रता एकत्रित होकर मानुषी शरीर में अवतरित हो रही हो। वह रूकी नहीं, समीप ही उस शिलाखण्ड पर आ कर विराजमान हो गई। लगा-मानो जागृत अवस्था में ही यह सब देखा जा रहा हो।

उस देव कन्या ने धीरे-धीरे अत्यन्त शांत भाव से मधुरवाणी में कुछ कहना आरम्भ किया। मैं मन्त्र मोहित की तरह एकचित्त होकर सुनने लगा। वह बोली-नर तनु धारी आत्मा, तू अपने को इस निर्जन वन में अकेला मत मान। दृष्टि पसार कर देख चारों ओर तू ही तू बिखरा पडा़ है। मनुष्य तक अपने को सीमित मत मान। इस विशाल सृष्टि में मनुष्य भी एक छोटा-सा प्राणी है। उसका भी एक स्थान है, पर सब कुछ वही नहीं है। जहाँ मनुष्य नहीं वहाँ सूना है ऐसा क्यों माना जाय? अन्य जड़ चेतन माने जाने वाले जीव भी विश्वात्मा के वैसे ही प्रिय पुत्र हैं जैसा मनुष्य। तू उन्हें क्या अपना सहोदर नहीं मानता? उनमें क्यों अपनी आत्मा नहीं देखता? उन्हें क्यों अपना सहचर नहीं समझता? इस निर्जन में मनुष्य नहीं है, पर अन्य अगणित जीवधारी मौजूद हैं। पशु- पक्षियों की, कीट-पतंगों की, वृक्ष वनस्पतियों की अनेक योनियाँ इस गिरि कानन में निवास करती हैं। सभी में आत्मा है सभी में भावना है। यदि तू इन अचेतन समझे जाने वाले चेतनों की आत्मा से अपनी आत्मा को मिला सके तो ऐ पथिक! तू अपनी खंड-आत्मा को समग्र-आत्मा के रूप में देख सकेगा”

धरती पर अवतरित हुई वह दिव्य सौंदर्य की अद्भुत प्रतिमा देव कन्या बिना रुके कहती ही जा रही थी - “मनुष्य को भगवान ने बुद्धि दी, पर वह अभागा उसका सुख कहाँ ले सका? तृष्णा और वासना में उसने इस दैवी वरदान का दुरुपयोग किया और जो आनन्द मिल सकता था। उससे वंचित हो गया। वह प्रशंसा के योग्य प्राणी, करुणा का पात्र है। पर सृष्टि के अन्य जीव इस प्रकार की मूर्खता नहीं करते। उनमें चेतन की मात्रा न्यून भले ही हो पर भावना की न्यूनता नहीं है। तू अपनी भावना को उनकी भावना के साथ मिला कर तो देख। अकेलापन यहाँ कहाँ है, सभी ही तेरे सहचर हैं। सभी तो तेरे बन्धु बान्धव हैं।”

करवट बदलते ही नींद की झपकी खुल गई। हड़बड़ा कर उठ बैठा। चारों ओर दृष्टि दौड़ाई तो वह अमृत-पी सुन्दर सन्देश सुनाने वाली देव कन्या वहाँ न थी। लगा मानों वह इसी सरिता में समा गई हो। मानुषी रूप छोड़कर जलधारा में परिणत हो गई हो। वे मनुष्य की भाषा में कहे गये शब्द सुनाई नहीं पड़ते थे, पर हर - हर कल-कल की ध्वनि में भाव वे ही गूँज रहे थे, संदेश वहीं मौजूद था। ये चमड़े वाले कान उसे सुन तो नहीं पा रहे थे पर कानों की आत्मा उसे अब भी समझ रही थी, ग्रहण कर रही थी।

यह जागृत था या स्वप्न? सत्य था या भ्रम? मेरे अपने विचार थे या दिव्य संदेश? कुछ समझ नहीं पा रहा था। आँखें मलीं सिर पर हाथ फिराया। जो सुना, देखा था, उसे ढूँढ़ने का पुनः प्रयत्न किया पर कुछ मिल नहीं पा रहा था, कुछ समाधान हो नहीं पा रहा था।

इतने में देखा कि उछलती हुई लहरों पर थिरकते हुये अनेक चन्द्र प्रतिबिम्ब एक रूप होकर चारों ओर से इकट्ठे हो रहे हैं और मुस्कराते हुए कुछ कह रहे हैं। इनकी बात सुनने की चेष्टा की तो नन्हे बालकों जैसे वे प्रतिबिम्ब कहने लगे - हम इतने चन्द्र तुम्हारे साथ खेलने के लिए, हँसने-मुस्कराने के लिए मौजूद हैं। क्या तुम हमें अपना सहचर न मानोगे? क्या हम अच्छे साथी नहीं हैं? मनुष्य! तुम अपनी स्वार्थी दुनियाँ में से आये हो, जहाँ जिससे जिसकी ममता होती है, जिससे जिसका स्वार्थ सधता है वही उसको प्रिय लगता है। जिससे स्वार्थ सधा वह प्रिय, वह अपना। जिससे स्वार्थ न सधा वह पराया, वह बिराना। यही तुम्हारी दुनियाँ का दस्तूर है न! उसे छोड़ो हमारी दुनियाँ का दस्तूर सीखो। यहाँ संकीर्णता नहीं, यहाँ ममता नहीं, यहाँ स्वार्थ नहीं, यहाँ सभी अपने हैं। सब में अपनी ही आत्मा है ऐसा सोचा जाता है। तुम भी इसी प्रकार सोचो। फिर हम इतने चन्द्र बिम्बों के सहचर रहते तुम्हें सूनापन प्रतीत ही न होगा।

तुम तो यहाँ कुछ साधन करने आये हो न! साधना करने वाली इस गंगा को देखते नहीं, प्रियतम के प्रेम में तल्लीन होकर उससे मिलने के लिए कितनी तल्लीनता और आतुरता से चली जा रही है। रास्ते के विघ्न उसे कहाँ रोक पाते हैं? अन्धकार और अकेलेपन को वह कहाँ देखती हैं? लक्ष की यात्रा से एक क्षण के लिए भी उसका मन कहाँ विरत होता है? यह साधना का पथ अपनाना है तो तुम्हें भी यही आदर्श अपनाना होगा जब विषयम को पाने के लिए तुम्हारी आत्मा भी गंगा की धारा की तरह द्रघगामी होगी तो कहाँ भीड़ में आकर्षण लगेगा और कहाँ सूनेपन में भय लगेगा? गङ्गा तट पर निवास करना है तो गङ्गा की प्रेम साधना भी सीखो साधक!

शीतल लहरों के साथ अनेक चन्द्र बालक नाच रहे थे। मानों अपनी मथुरा में कभी हुआरास, नृत्य प्रत्यक्ष हो रहा हो। लहरे गोपियाँ घनीं, चन्द्र ने कृष्ण का रूप धारण किया, हर गोपी के साथ एक कृष्ण! कैसा अदभुत रास-नृत्य यह आँखें देख रही थी। मन आनन्द से विभोर हो रहा था। ऋतम्भरा कह रही थी। देख, देख अपने प्रियतम की मांफी देख। हर काया में एक आत्मा उसी तरहनाच रही है जैसे गङ्गा की शुभ लहरों के साथ एकडी़ चन्द्रमा के अनेक बिम्ब नृत्य कर रहे हैं।

सारी रात बीत गई। ऊषा की अरूणिमा प्राचि से प्रकट होने लगी। जो देखा वह अदभुत था। सूनेपन का भय चला गया। कुटी की ओर पैर धीरे-धीरे लौट रहे थे। सूनेपन का प्रश्न अब भी मस्तिष्क में मौजूद था।


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