आशा की नई किरणें

February 1961

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(डा. रामचरण महेन्द्र, एम. ए., पी. एच. डी.)

आप किसी व्यथा से पीड़ित हैं कोई दुख पूर्ण घटना, कोई भयंकर वेदना, कोई धन जन की हानि, कोई व्यापारिक नुकसान, कोई अशाँत द्वेषपूर्ण मनः स्थिति आपको उद्विग्न किये हुए है। आप चारों ओर से निराश, निरुपाय हो चुके हैं और घोर मानसिक अन्धकार में मार्ग टटोल रहे हैं।

आपके चारों ओर गहन अन्धकार छाया है, आपकी स्थिति उस अन्धे जैसी है जिसे हाथ से हाथ नहीं सूझता। कुछ भी मार्ग नहीं दिखाई देता। आप आँखें फाड़ फाड़कर मार्ग तलाश कर रहे हैं पर अँधेरे की निविड़ता में कुछ नजर नहीं आता। सर्वत्र निराश का अँधेरा है, गुप

और आप हैं एकदम अशाँत, बुरी तरह उद्विग्न और व्यथित।

इस घने अन्धकार में आपको डर लग रहा है आप भय, आशंका और चिन्ता से अभिभूत हैं निराशा की यह धुन्ध, बेबसी की यह कालिमा, असफलता का यह निविड़ अन्धकार, विरोध की ये भीमकाय काली घटाएँ अपने अंतराल में चिन्ता का तूफान छिपाये हैं।

प्रकाश की इन किरणों को पकड़िये

बस, आशा और आत्म विश्वास की असंख्य किरणें आपके गुप्त मन में भी छिपी पड़ी हैं इन प्रकाश की किरणों को मजबूती और पूरे आत्मविश्वास से पकड़िये। निराशा तो एक प्रकार की नास्तिकता है। एक मानसिक अपराध है, आशा और आत्म विश्वास के बढ़ते ही निराशा का अन्धकार कम हो जायेगा। आपका अशाँत चित्त स्थिर और संयत होगा। भय, चिन्ता और हानि की आशंका दूर हो जायेगी, नई आशा बँधेगी। निश्चय जानिये, इस आत्म-विश्वास को खोलकर आप स्वस्थ बनेंगे, संतुलित रहेंगे।

अन्धकार के साथ चित्त की व्याकुलता, भय, चिन्ता और आशंकाएँ जुड़ी हुई हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि मनुष्य की निराशा का अन्धकार भी ऐसा ही विषैला और हानिकारक है। निराशा के काले वातावरण में जब आशा की एक पतली सी रेखा चमकती है, तो मनुष्य के गुप्त मन में एक नया आत्मविश्वास एक नई हिम्मत आती है और नया रस उल्लास भर जाता है। आशा की नई किरणों के सहारे मनुष्य जीवन का एक नया आधार पाता है।

ये आत्म हत्याएँ

आज हमारे देश में प्रतिदिन आत्म-हत्याओं के दुःखद लोमहर्षक और हृदय विदारक समाचार छपते रहते हैं। आये दिन असंख्य व्यक्ति किसी न किसी साधारण से कारण से निराश होकर प्राणों का त्याग कर देते हैं, खुद अपने ही आपसे घृणा करने लगते हैं। मानसिक भार से चिन्तित हो उठते हैं। मानसिक उत्तेजना या गुप्त अंतर्द्वंद्वों में फँसकर नैतिक बुद्धि के प्रतिकूल कार्य कर बैठते हैं। उन्हें अकारण चिन्ताएँ और निराधार भय सताने लगते हैं। कुछ व्यक्ति पुराने पापों के लिए आत्म भर्त्सना करते रहते हैं। आज जो असंख्य व्यक्ति आत्म-हत्या करते हैं, उन सब की बुद्धि-चेतना की सतह के निचे निराशा की पिशाचिनी ही छिपी हुई है। उसी इकट्ठि हुई आन्तरिक कालिमा की दूषित प्रतिक्रिया आत्म-हत्या तथा मानसिक क्लेश के रूप में प्रकट होती है तथा बढ़ कर कमजोर संकल्प वाले मनुष्य के प्राण तक ले बैठती है।

आत्म-हत्या करने वालों में विद्यार्थी वर्ग बडी़ संख्या में है, क्या आप विद्यार्थी हैं और इम्तहान में फेल होकर आत्म-ह्त्या की बात सोचा करते हैं?

यह विचार सदा के लिये मन से निकाल दिजिए। इतने निराश क्यों होते है? आत्म-हत्या की बात क्यों सोचते हैं?

देश में प्रति वर्ष विभिन्न परिक्षाओं में असंख्य विद्यार्थी बैठते हैं और असफल होते हैं। न जाने कितने आधी परिक्षाओं में से उठ आते हैं, कितने ही अनुचित साधन इस्तेमाल करते हुए बीच से ही निकाल दिगे जाते हैं। पर सोच कर देखिये, क्या ये सब लोग आत्म-हत्या की बात ही सोचते हैं?

नहीं, ऐसा नहीं होता। ये दुबारा दुगुनी तैयारी से परिक्षा में बैठते है और दूसरी बात तो अवश्य ही पास होते हैं। विद्यार्थी जीवन में आवेश होता है। विवेक पर निराअशा का पर्दा छा जाता है। इसलिए कुछ आदूरदर्शी विद्यार्थी ही आत्महत्या कर बैठते हैं।

आपको यह डरपोक नीति नहीं अपनानि चाहिए। आप कायर नहीं है। इस बार, केवल एक बार अच्छी तरह फिर तैयारी किजिये। निश्चय जानिये इस बार आप अवश्य सफल हो जायेंगे, डिविजन में उत्तिर्ण होंगे। अनेक विद्यार्थी एक बार फेल होकर आगे बहुत चनके हैं।

* * * आप दुःख भरे स्वर में प्रायः कहा करते हैं - "मुझे मनोवाञ्छित सुन्दर पत्नी नहि मिली। मेरा विवाह तो मेरी प्रेमिका, जो अत्यन्त सुन्दरी है, से ही होना चाहिए था! उफ! मेरी प्रेमिका का विवाह किसी दूसरे व्यक्ति के साथ क्यों होगया? मैं बिन्न सुन्दरी पत्नी के जीवित नहीं रह सकूँगा मैं आत्म-हत्या कर लूँगा।" कैसी मूर्खता की बातें हैं आपकी। तनिक गहराई से सोच कर देखिये। क्या सुन्दरता ही दाम्पत्य जीवन की सफलता का आधार है? फिर तनिक सोच कर देखिये कि किसी स्त्री के साथ दो-बार साल व्यतीत किए बिना आप कैसे कह सकते हैं कि यही स्त्री आपके अनुकूल बैठेगी? हमने असंख्य प्रेम विवाहों को बुरी तरह तरह असफल होते देखा है। माँ-बाप का चुनाव आपके चुनाव से बेहतर रहत है। विवाह तो एक जुअ है, जिसमें सर्वत्र अनिश्चितता है। पति को पता नहीं पत्नी कैसी निकलेगी। इसी प्रकार पत्नी नहीं जानती कि पति के क्या गुण-अवगुण हैं? कितनी ही बार सुन्दर पत्नियाँ दुश्चरित्र, कट्टु, क्रूर, स्वार्थी और कामचोर निकल जाती हैं, पर दिखने में काली और कूरूप पत्नियाँ मृदु और सुशील निकलती हैं। अतः आपकी नीराशा बेकार है। सुन्दर और असुन्दर का भेद तो क्षणिक है। कुछ काल साथ रहने से सुन्दर भी साधारण ही लगने लगती है। विवाह से पूर्व प्रेम करना, जिस किसी आकर्षक युवती को देखा उसी पर, दिल फेंकना, उथले और क्षुद्र मनचले दुर्जनों की गन्दि आदत है। जिसे वे लोग प्रेम कहते हैं, वह केवल वासना और पशुता का ताण्डव मात्र है। यह वासना-रोग ऐसा घृणित रोग है कि आपको शिष्ट समाज में बुरी तरह तरह लज्जित करायेगा। इस तथाकथिक दुष्ट प्रेम-व्याधि से सावधान! मान लीजिये, आपको इस वर्ष व्यापार में बडी़ हानि हुई है। बाजार के भाव यकायक बहुत नीचे आ गये हैं। वर्षों की संचित पूँजी यकायक आपके हाथ से निकल गई है। बाजार में आपकी साख जाती रही है। कोई आप पर अब चार पैसे का भी विश्वास नहीं करता। उधर परिवार वाले उसी प्रकार अपने खर्चे बढ़ाये हुए हैं और आपकी आमदनी बिलकुल ठप्प है। आप सोचते हैं, इससे तो यही अच्छा है कि आप जीवन का अन्त कर दें।

बिलकुल थोथी दलीलें हैं आपकी।

मैं पूछता हूँ जब बच्चा संसार में जन्म लेता है, तो उस बेचारे के पास कौन सी पूँजी रहती है? वह अपनी मुट्ठियों में क्या दबा कर लाता है? कुछ भी नहीं। वह तो धीरे -धीरे शिक्षित होकर स्वयं ही इस संसार में पूँजी एकत्र करता है और फिर यहीं सब कुछ छोड़ जाता है। फिर आप व्यर्थ ही निराश क्यों होते हैं?

चिन्ताएँ व्यर्थ हैं

गुजराती के कविवर श्री महादेव देसाई की एक मार्मिक कविता है, जो चिन्तित रहने वालों की वैराग्य भावना दूर करने के लिए अमोघ शक्ति रखती है। इसकी विचारधारा इस प्रकार है -

“माना कि तुम्हारे अपने प्रियजन तुम्हें छोड़ कर चले जायेंगे, पर इसके लिए चिन्ता करने से तो काम नहीं चलेगा।”

“भले ही तुम्हारी आशा लता टूट पड़े, उससे फल तुम्हें भले ही न प्राप्त हों, लेकिन इसके लिए चिन्ता करने से तो काम नहीं चलेगा।”

“यह ठीक है कि तुम्हारी करुण वाणी सुनकर वन के प्राणी तुम्हारे पास सहानुभूति जताने आयेंगे और तब भी तुम्हारे अपने घर के पत्थर नहीं पिघलेंगे। घर का कोई व्यक्ति तुमसे कोई सहानुभूति नहीं दिखायेगा। लेकिन इसके लिए चिन्ता करने से तो काम नहीं चलेगा।”

इन शब्दों में नई प्रेरणा के लिए पर्याप्त सामग्री है। कवि का भाव यह है कि जब आपत्ति सर पर आकर पड़ ही गई है तो घबराने से क्या बनेगा? मनुष्य की चिन्ता का सीधा सम्बन्ध उसके अंतर्जगत् से है। एक सी ही परिस्थितियों में एक व्यक्ति घबरा कर गड़बड़ा जाता है जबकि दूसरा व्यक्ति उस विषम परिस्थिति को सम्हाल लेता है। कारण, दूसरा व्यक्ति जानता है कि चिन्ता की बजाय उद्योग करने से लाभ होगा। चिन्ता का कारण जानकर उसे दूर करना ज्यादा अच्छा मार्ग है।

चिन्ता मन की दुर्बल स्थिति की द्योतक है

मनोवैज्ञानिकों का मत है कि चिन्ता मनुष्य के मन की कमजोरी की सूचक है। कमजोर मन वाले अनेक अकारण भयों में लिप्त रहते हैं। कुछ न कुछ अनिष्ट ही सोचा करते हैं और अपनी छोटी- छोटी कठिनाइयों को भी बढ़ा-चढ़ा कर डरा करते हैं। ये अकारण भय मन के मन में ही सागर की तरंगों की भाँति उठते और गिरते रहते हैं। बहुत सी ऐसी कुकल्पनाएँ हमारी चिन्ताओं का कारण बन जाती हैं। मान लीजिए आप मन की ढीली-ढाली अवस्था में हैं। इच्छा शक्ति मजबूत नहीं है। इस अवस्था में यदि कोई अनिष्ट का विचार मन में बैठ जाये तो वह अपनी अँधेरी छाया सर्वत्र फैला देता है और मनुष्य मुरझा जाता है। अतः मन को ढीली अवस्था में न छोड़कर भविष्य के लिए आशावादी विचार रखना चाहिए।

कोई रचनात्मक कार्य कीजिए

जिन बातों से चिन्ता उत्पन्न हो रही है, उन्हें छोड़कर बिलकुल नया रचनात्मक कार्य प्रारम्भ कीजिए। नये कार्य करने से मन और शरीर के नये अवयव काम में आते हैं। उधर ही मन बँट जाता है। पुरानी जिस समस्या पर मस्तिष्क कार्य कर रहा था, उधर से शक्ति बचकर नई ओर लगने लगती है। सृजनात्मक कार्यों में मन लगाने से चिन्ता दूर हो जाती है। ऐसे कार्य स्वयं ही अपनी रुचि के अनुसार चुनने चाहिए। खेलना, टहलना, गो सेवा, बागवानी, घर की सफाई, वस्त्रों की धुलाई, रेडियो सुनना, स्वयं भजन इत्यादि गायन, मित्रों से वार्तालाप, नई पुस्तकों का अध्ययन, छोटे जानवर पालना, बढ़ईगिरी आदि और बहुत से उपयोगी रचनात्मक कार्य करके चिन्ता दूर की जा सकती है।


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