सबसे उच्च कोटि का परमार्थ

February 1961

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

शारीरिक, परिवारिक और सांसारिक सुखों को प्राप्त करने के लिये सभी मनुष्य प्रयत्नरत रहते हैं। जितना जिसका पुरूषार्थ, ज्ञान एवं प्रारब्द होता है उसके अनुसार उपलब्द भी करते हैं। पर इतने मात्र से ही किसी का आत्मा सन्तुष्ट नहीं रह सकता। अन्तरात्मा में से पुण्य की, परमार्थ की आकांक्षा भी उठती रहती है। उसकी उपेक्षा की जाय, अतृप्त रखा जाय तो जीवन में किसी बडी़ कमी एवं अपूर्णता का अनुभव होता रहता है। भीतर-ही-भीतर अशांति बनी रहती है।

सेवा मानव-जिवन का एक आवश्यक अंग है। आत्म-सन्तोष उसी के आधार पर मिलता है। अपने से पिछडे़ हुओं को अपने समान बनाने का प्रयत्न सेवा कहलाता है। परमार्थ का वास्तविक स्वरूप यही है। हर विवेकशील व्यक्ति अपनी शरीर यात्रा के साथ-साथ सेवा एवं परोपकार के लिए भी प्रयत्नशील रहता है। इसी में दूर-दर्शिता भी है। लोक के साथ-साथ परलोक का भी ध्यान रखा ही जाना चाहिये।

सत्पात्र की सेवा ही सफल मानी जाति है। कुपात्रों को दिया हुआ सहयोग या दान, देने वाले को उलटा नरक में ले जाता है, क्योंकि वह कुपात्र उस उपलब्द हुई सहायता का दुरूपयोग करके अवांछनीय कृत्य ही करता है। इससे उसका तथा अन्य व्यक्तियों का अपकार ही होता है। इसलिये सेवा एवं परोपकार करने वाले को पहले सत्पात्र की तलाश करनी पड़ती है।

आकस्मिक आपत्ति के समय धन, अन्न, वस्त्र आदि से किसी की तात्कालिक सहायता की जा सकती है। उससे उस समय की विपत्ति से उसकी रक्षा हो जाती है। महामारी, भूकम्प, अग्निकाण्ड, दुर्भिक्ष, दुर्घटना, चोरी, आक्रमण आदि कारणों से मनुष्य कई बार अचान्क ही आपत्तियों में फँस जाता है। उस समय उसे दूसरे की सहायता की आवश्यकता होती है। अपने बल-बूते, अपने पावों पर खडे़ हो सकना उस समय उसके लिये कठिन होता है। ठिकर खाकर गिरे हुए को उठ कर खडे़ होने, सम्भलने और चलने की स्थिति में होने तक की सहायता आवश्यक होती है। जब भी ऐसा कोई अवसर सामने आवे, हर उदार हृदय व्यक्ति का सामर्थ्य के अनुसार सहायता करे, सेवा करे।

अपङ्ग, अपाहिज, अनाथ बालक, असमर्थ्य वृद्ध, कई छोटे बच्चों वाली असहाय महिलायें आदि को भी दूसरों की सहायता अपेक्षित होती है। इस वर्ग के लिए भी अपना श्रम, धन एवं सहयोग देने के लिये तत्पर रहना मानवता का आवश्यक धर्म है।

ज्ञान वृद्धि, सामूहिक उत्कर्ष, दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन जैसे शुभ कायों में संग्न व्यक्तियों तथा संस्थाओं का पोषण करना भी श्रेष्ठ सत्कर्म हैं। इनमें सहयोग देना सेवा धर्म का उचित मार्ग है।

धर्म एवं लोक हित के नाम पर अनेक निकम्मे व्यक्ति भोले-भाले लोगों का शोषण करते हैं, उससे स्वयं बचना चाहिए और दूसरों को बचाना चाहिए। आज अनेक व्यक्तियों ने स्वार्थ सिद्धि के लिए सेवा को भी एक व्यवसाय बना लिया है। कोई न कोई आडम्बर रच कर, लोक हित या धर्म वृद्धि की बात कहकर लोगों को ठगते और अपना स्वार्थ साधते रहते हैं। राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्रों में ऐसे लोग भरे पड़े हैं। इन कुपात्रों के जाल में फँस जाना अपनी सेवा भावना का दुरुपयोग होने देना है। उदार हृदय व्यक्तियों को जहाँ परमार्थ के लिए तत्पर रहने की आवश्यकता है, वहाँ इन धूर्तताओं से सहज रहने की भी आवश्यकता है।

सेवा में किये गये प्रयत्न का सत्परिणाम निकले इसके, लिए सत्पात्र का ध्यान रखना आवश्यक है। धन एवं श्रम से आपत्तिग्रस्त उत्कर्ष अभियानों की सहायता हो सकती है। पर सबसे बड़ी और सबसे अस्थायी सेवा किसी को अधिक उत्कृष्ट मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने में ही है। मनुष्य में अनन्त सामर्थ्य भरी हुई है। उसके पास ही बहुत कुछ है। यदि वह अपने सामर्थ्य को पहचान कर उसका सदप्रयोग करने लगे तो वह न केवल अपनी समस्याओं को सुलझा सकता है वरन उन्नतिशील जीवन व्यतीत करता हुआ अन्य अनेकों के लिए भी प्रकाश प्रदान कर सकता है। किसी की सच्ची सेवा इसी में है कि उसकी निज की क्षमता को समझ सकने एवं उसका सदप्रयोग करने के लिए आवश्यक ज्ञान, साहस एवं उत्साह उत्पन्न कर दिया जाय.।

इस ज्ञान दान की महान सेवा की तुलना अन्न, वस्त्र, जल स्थान आदि देने जैसी तुच्छ सहायताओं से नहीं हो सकती। क्योंकि उनका लाभ क्षणिक एवं तात्कालिक है। वे वस्तुऐं समाप्त होती है और व्यक्ति फिर पूर्ववत् अभावग्रस्त हो जाता है। पर जिसकी अन्तःशक्ति जागृति हो गई है वह अपने भीतर भरे हुए खजाने से परिचित हो जाने पर सदा के लिए सम्पन्न बन जाता है।

नारदजी ने डाकू वाल्मीकि को आत्म बोध कराया। उसने लूट, डकैती, हत्या छोड़कर इससे अनेकों व्यक्ति लुटने से, सताये जाने से, मारे जाने से बचें। यदि बाल्मीकि डाकू ही बने रहे तो हर व्यक्ति उनके द्वारा संत्रस्त होते। नारद को उन पीड़ितों को उनकी खोई वस्तुऐं अपने पास से दान करने पर, ज्यों का त्यों कर देने पर जो पुण्य मिलता, उतना ही पुण्य एक डाकू का स्वभाव बदल देने से भी मिल गया। डाकू को नरक जाना पड़ता। उसे उस त्रास से बचा देने का पुण्य भी नारदजी को मिला। उस आत्मबोध के कारण बाल्मीकि का परिवर्तन होने पर वे महान ऋषि बने, इतने बड़े ऋषि कि उनके संरक्षण में भगवान राम ने अपने स्त्री बच्चा की सुरक्षा का उत्तरदायित्व सौंपा। यह कोई साधारण स्थिति नहीं थी। एक अन्त्यज कुल में उत्पन्न, डाकू का व्यवसाय अपनाये हुए घृणित व्यक्ति का महर्षि बाल्मीकि के रूप में परिवर्तन कर देना आत्मबोध द्वारा ही संभव हो सका। वह डाकू जब तक जीवित रहता संसार में भारी पीड़ा और अशान्ति उत्पन्न करता रहता, पर जब वह महर्षि बन गया तो न जाने कितने और महर्षि उसकी प्रेरणा और शिक्षा से बन गये होंगे। उनकी बनाई बाल्मीकि रामायण ने कितने मनुष्यों को श्रेष्ठ मनुष्य बना दिया होगा इसकी कल्पना कर सकना भी कठिन है। आत्मबोध का ऐसा ही महत्व है। इसे प्राप्त कर मनुष्य बदलता है। और इस परिवर्तन के कारण वह तुच्छ से महान बन जाता है। इसलिए ज्ञान-दान को संसार का सर्वश्रेष्ठ दान माना गया है। जो ब्राह्मण इस पुण्य कार्य में संलग्न रहते थे उन्हें अत्यधिक आदर की दृष्टि में देखा जाता था । ब्राह्मण के पूज्य माना जाने का कारण उसका यह आत्मबोध कराने में संलग्न रहने का सेवा व्रत ही था। ज्ञान का ज्ञान, स्वर्ण एवं रत्न दान से भी बढ़ कर माना गया है।

आत्म-बोध या ज्ञान-दान सामूहिक अथवा सामुदायिक रूप में भी किया जा सकता है और उसका महत्व भी कम नहीं है। व्यक्तिगत सेवा या उपकार में किन्हीं अंशों में पारस्परिक सम्बन्ध की महत्ता की सम्भावना भी रहती है, पर सामुदायिक सेवा प्रायः स्वार्थ विहीन होकर ही की जाती है। इसमें एक विशेषता यह भी होता है कि ज्ञान प्रसार का कार्य जब सामूहिक रूपसे करते हैं तो सब नहीं तो कुछ व्यक्ति, जो उपयुक्त पात्र होते है, इससे लाभ उठा ही सकते हैं। इस प्रकार की सेवा अनुप्रह अथवा प्रत्युपकार की भावना को भी विशेष अवसर नहीं रहता और उपकार ग्रहण करने वाले के चत्त पर हीनता का कोई प्रभाव नही पड़ता। इसलिये यदि सामर्थ्य हो तो मनुष्य को अपनी सेवा का दायरा बढा़कर सार्वजनिक रूप से भी ज्ञान-दान के महान धर्म की पूर्ति करना चाहिये।

सेवा कर्म की महत्त समझने वाले और उसमें प्रवृत्ति रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को आत्मबोध की उत्कृष्ट सेवा के लिये तत्पर होने और उसके लिये सत्पात्र तलाश करने का प्रयत्न करना चाहिये। सत्पात्र के साथ किया हुआ श्रम ही सफल होता है। कुपात्रों को दिया दान सर्प को दूध पिलाने की तरह विष उत्पन्न करता है। उन्हे यदि धन दिया जाय तो उसका कुकर्मों में दुरूपयोग करते है और यदि शिक्षा दी जाय तो उसका उपहास करते है। अहंकार वश वे अपने को, अपनी स्थिति को बड़प्पन से भरा हुआ मानते है। सुधार के लिये उछ कहा जाय तो इसे अपना अपमान मानते है।

फिर दूसरों को उपदेश करने का अधिकार भी हर किसी का नहीं है। जिसने अपने आपको चिर काल तक आदर्शपूर्ण परिस्थितियों में रहकर ज्ञान, अनुभव और तप के आधार पर अपने को नारद के समान विशिष्ट बना लिया हो वहि उपदेश देने को अधिकारी भी है और उसी का प्रभाव भी पड़ता है। जो अपने अन्दर अनेक दुर्बलताएँ धारण किए हुए है, जिसने उन आदर्शों को अपने जीवन में भली प्रकार उतार नहीं लिया है वह यदि दूसरों को शिक्षा दे भी, तो उसका उपहास न भी उडा़या जाय तो भी यह निश्चित है किसी पर कोई विशेष प्रभाव न पडे़गा।

ऐसी दशा में क्या आत्मबोध की, ज्ञान-दान की महान सेवा से हमें वंचित ही रहना पडे़गा? क्या उस उत्कृष्ट पुण्य का लाभ हमें साधारण महत्व की, अन्न-जल आदि की सेवाओं तक ही सीमित रहना पडे़गा? नही ऐसी बात नहीं है। हमारे लिये भी वैसा अवसर मौजूद है। हमारा अपना मन, हमारे सबसे अधिक आज्ञानुवर्ती और अधिक निकट होने के कारण ऐसा सत्पात्र हो सकता है जिसकी आत्मबोध द्वारा सेवा की जा सके। इसे आज की डाकू की स्थिति में से बदल कर यदि महर्षि बना सके तो, हम भी नारद के समान ज्ञान-दान की महान सेवा का पुण्य फल प्राप्त करने के अधिकारी बन सकते है और आत्म निर्माण द्वारा परमार्थ के साथ-साथ अत्यन्त उस कोटि का स्वार्थ भी सिद्ध कर सकते है। -क्रमशः


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118