बुद्ध की जीवन साधना

February 1961

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(महापण्डित अश्वघोष कृत संस्कृत काव्य ‘बुद्ध चरितम्’ के आधार पर)

राजकुमार बुद्ध एक दिन वन-विहार की इच्छा प्रकट करते हैं। राजा शुद्धोधन इसके लिए व्यवस्था कर देते हैं। राजकुमार भावुक थे। उनके कोमल हृदय पर किसी प्रकार का आघात न लगे इस विचार से राजमार्ग पर से पीड़ितों, रोगियों, वृद्धों और दीन-दुखियों को हटा दिया जाता है। यात्रा की आवश्यक तैयारी शीघ्र ही पूरी हो जाती है।

स्वर्ण मंडित रथ, जिसमें चार शिक्षित घोड़े जुते थे और बलवान, चतुर सारथी था। राजकुमार के लिए लाया गया। वे उस पर बैठ कर यात्रा के लिए चले।

मार्ग में एक वृद्ध पुरुष को राजकुमार ने ध्यानपूर्वक देखा और सारथी से पूछा,

“हे सारथी, यह कौन पुरुष आया? इसके केश सफेद हैं, हाथ में लाठी है, भौहों से आँखें ढकी हुई हैं, अंग ढीले और झुके हुए हैं। क्या यह कोई रोग है? क्या यह इसका स्वभाव है? क्या यह कोई आकस्मिक संयोग है?”

सारथी ने कहा - रूप की हत्या करने वाली, बल की विपत्ति, शोक को उत्पन्न करने वाली, आनन्द की मृत्यु, स्मृति का नाश करने वाली, इन्द्रियों की घातक यह वृद्धावस्था है, जिसने इस वृद्ध को तोड़ डाला है।

बचपन में इसने भी दूध पिया। फिर रेंगना, खड़ा होना और चलना सीखा। तब सुन्दर युवक बना, तरुण हुआ और यथाक्रम अब वह वृद्धावस्था को प्राप्त हुआ।

ऐसा कहे जाने पर विचलित होकर राजकुमार ने सारथी से पूछा - क्या यह दोष मुझ में भी होगा?

सारथी ने उत्तर दिया - आप आयुष्मान् को भी समयानुसार निस्संदेह यह वृद्धावस्था प्राप्त होगी।

यह सुनकर राजकुमार बहुत खिन्न हुआ। लम्बी साँस लेकर सिर हिलाते हुए वृद्ध की ओर फिर देखा और उद्विग्न होकर कहा - स्मृति, रूप और पराक्रम की हत्या करने वाली वृद्धावस्था को प्रत्यक्ष देखते हुए भी लोग क्यों उसके सम्बन्ध में चिन्तित नहीं होते?

आगे मार्ग में एक रोगग्रस्त मनुष्य दिखाई दिया। राजकुमार ने करुणापूर्ण दृष्टि से उसे देखा और सारथी से पूछा-

‘यह कौन मनुष्य है? इसका पेट फूला हुआ है, लम्बी साँसें चलने से शरीर काँप रहा है, हाथ ढीले पड़ गये हैं, शरीर सूख गया है, त्वचा पीली पड़ गई है, दूसरे का सहारा लिए करुणा पूर्वक अम्मा-अम्मा कहता हुआ कराह रहा है”

सारथी ने कहा - हे सौम्य धातु प्रकोप से रोग उत्पन्न होते हैं, उसी ने एक समय के बलवान इस व्यक्ति को भी ऐसा दुर्दशाग्रस्त कर दिया हे।

राजकुमार ने दुखी होकर सारथी से फिर पूछा - रोग केवल इसी को हुआ है यह भय अन्य मनुष्यों को भी होता है?

सारथी बोला - हे कुमार यह दोष साधारण है। यह सारा संसार ही इस प्रकार रोगों से पीड़ित होता रहता है।

कुमार का चित्त काँपने लगा। उसने लम्बी साँस खींचते हुए कहा - रोगियों की रोग रूप विपत्ति देखते हुए भी लोग कैसे इस संसार में निश्चिन्त रहते हैं? अहा कितना विशाल अज्ञान है इन मनुष्यों का, जो रोग भय से ग्रसित होने पर भी हँसते रहते हैं।

मार्ग में आगे एक मृत व्यक्ति दीखा, जिसे कंधे पर रख कार श्मशान में ले जाया जा रहा था।

तब उस राजकुमार ने सारथी से पूछा - यह कौन है? जिसे चार पुरुष कंधे पर रख कर ले जा रहे हैं। और कितने ही लिग दुःखी हिकर इसके पीछे रोते जा रहे हैं।

सारथि ने उत्तर दिया यह कोई मृतक है। जिसकी बुद्धि, इन्द्रियाँ, प्राण, गुण सदा के लिये सो गये हैं। जो तृण एवं काष्ठ के समान संज्ञा हीन हो गया है। प्रयत्नपूर्वक सेवा और संरक्षण करने वाले प्रिय जन भी अब इसका परित्याग करने जा रहे हैं।

यह सुनकर उनका मन बहुत संक्षुच्छ हुआ और फिर पूछाक्या ऐसा परिणाम केवल इसी मनुष्य का हुआ है? या और लोगों का भी ऐसा ही अन्त होता है?

सारथि ने कहा सभी मनुषों का यही अंतिम कर्म है। धनी, निर्धन, मूर्ख , ज्ञानी संसार में सभी का विनाश नियत है।

मृत्यु की बात सुनकर राजकुमर काँपने लगा। उसने रूँधे कण्ठ से गम्भीर होकर कहा-लोगों का यह विनाश नियत है और संसार उस विनाश का भय छोड़ कर असावधानी कर रहा है। मनुष्यों के मन कितने कठोर हैं कि मृत्यु के मार्ग में इस प्रकार पडे़ होने पर भी निश्चित हैं।

हे सारथि, हमारे रथ को लौटाइये। विहार यात्रा करने का यह देशकाल नहीं है। अपना विनाश देखता हुआ भी कोई बुद्धिमान इस संकट काल में में कैसे असावधान रह सकता है!

राजकुमार को आमोद-प्रम्प्द करने के लिए एक सुरम्य उपवन में भेजा जाता है। वहाँ तरूणी वेश्याओ का नृत्य तथा याद्य का आयोजन किया जाता है। राजा द्वारा नियुक्त कर्मचारी इस प्रमोद में भाग लेने के लिये राजकुमार को बहुत उकसाते है। पर वह उनकी व्यर्थता को प्रकट करते हुए इन विनोद संयोजकों से कहते है:-

"मैं विपयों की अवज्ञा नहीं कर रहा हूँ। संसार उन्हीं में रत है यह भी मैं जानता हूँ। पर जगत कोन नाशवान देख कर मेरा मन इनमें नहीं रम रहा है"।

"यदि जरा, व्यधि और मृत्यु ये तीनों न होते तो इन रन को लुभाने वाले विषयों में मुझे भी आनन्द आता"।

"यदि इन स्त्रियों का यही रूप सदा बना रहने वाला होता तो इन दोपयुक्त विषयों में मेरा मन भी अवश्य ढगता"।

"इनका यौवन, जरा द्वारा खाया जा रहा है। शीघ्र ही इनके शरीर वृद्ध और घृणित हो जायँगे। कोई मोहग्रस्त ही ऐसे नाशवान शरीर में आनन्द ले सकता है"।

मृत्यु व्याधि और जरा के आधीन रहने वाला मनुष्य यदि इन्हीं विकारों से प्रसित दूसरे शरीरों में रमण करने पर भी विरक्त और भयभीत नहीं होता तो वह पशु-पक्षियों के समान ही ज्ञान-रहित है।

"अहो!" तुम लोगों का मन अति कठोर है जो इअ चंचल कामोपभोगों में भी सार देखते हो। अति तीव्र भय रहते हुए भी, मृत्यु मार्ग पर लोगों का जाते हुए देख कर भी तुम विषयों में आसक्त हो"।

"और मैं, जरा, व्याधि और मृत्यु की चिन्ता करता हुआ भयभित और विकाल हो रहा हूँ। आग से मानों जलते हुए जगत को देख कर न शान्ति पाता हूँ, नवैर्य! आनन्द तो पाऊँगा ही कहाँ से? "

"मृत्यु अवश्यंभावी है, यह जानते हुए भी जिस मनुष्य के हृदय में काम पैदा होता है, जो इस महासंकट के समय में भी निश्चित है, मिर्भय है, उसकी बुद्धि को मैं लोहे की बनी समझता हूँ।"

राजकुमार बुद्ध आत्म ज्ञान की खोज में बा चाहते है। तप करना चाहते हैं। राजा शुद्धोदन उन्हें रोकते है। अनेक प्रकार से समझते हैं। वे उन्हें उत्तर देते हैं-

"हे राजन् ! आप मेरे लिये चार प्रबंध कर दीजिये तो मैं तप करने न जाऊँगा।"

"मेरा जीवन मृत्यु को प्राप्त न हो। रोग मेरे स्वास्थ्य का हरण न करे जरा मेरे यौवन को न छीने। "और न कभी कोई विपत्ति मेरे वैभव का अपहरण करे।

यदि यह सम्भव नहीं है तो मुझे न रोकिये। क्योंकि आग से जलते घर से निकलने की इच्छा रखने वाले को पकड़ना उचित नहीं।

“जब जगत का वियोग ध्रुव है, तब धर्म के लिए स्वयं पृथक् हो जाना भी क्या बुरा है? तृष्णाओं की पूर्ति हो जाने से पूर्व ही मुझे विवशतापूर्वक मृत्यु घसीट ले जायेगी और तब अपने आप भी वियोग ही हो जायेगा।”

वन पहुँच कर साथ में आए हुए छन्दक नामक सेवक को घोड़े समेत लौटाते हुए उसके द्वारा अपने पिता के लिए राजकुमार संदेश भेजते हैं-

“हे छन्दक राजा! राजा को बार-बार मेरा प्रणाम कहना और उनके सन्ताप को दूर करने के लिए मेरा यह निवेदन करना -

‘जरा, व्याधि और मरण का नाश करने के लिए मैंने तपोवन में प्रवेश किया है। स्वर्ग की तृष्णा से नहीं। स्नेह के अभाव से नहीं। क्रोध से भी नहीं।”

“अतः इस तरह निकले हुए के लिए आपको शोक नहीं करना चाहिये। क्योंकि संयोग भी चिरकाल तक नहीं रहता। अन्त में वियोग निश्चित है। इसलिए मुझे वह प्रयत्न करने को है जिससे फिर स्वजनों से वियोग न हो।”

“मुझ शोक का अन्त करने के लिए निकले हुए के लिए शोक करना उचित नहीं। शोक को उत्पन्न करने वाले काम-भोगों में आसक्त अज्ञानी लोगों के लिए ही शोक करना उचित है।

“यदि वे कहें कि राजकुमार असमय बन गया - तो कहना कि जीवन चंचल होने के कारण धर्म के लिए कोई समय, असमय नहीं है।”

छन्दक विदा होते समय दुखी होता है तब उसे राजकुमार समझाते हैं,

“मेरे वियोग के प्रति हे छन्दक! संताप छोड़ो। देहधारियों का पृथक् होना नियत है। मृत्यु के बाद पृथक् हो ही जाते हैं।

“यदि स्नेह के कारण स्वजनों को मैं नहीं भी छोड़ें तो भी मृत्यु हम विवश हो कर एक दूसरे का वियोग करा ही देगी।”

जिस प्रकार बाँस के वृक्ष पर समागम होने के पश्चात् पक्षी पृथक् पृथक् दिशाओं में चले जाते हैं अक्सर ही उसी प्रकार प्राणियों के संयोग का अन्त वियोग से होता है।”

“जिस प्रकार बादल एकत्रित होकर फिर अलग हो जाते हैं उसी प्रकार प्राणियों के संयोग-वियोग को भी मानना चाहिए।”

“साथ पैदा होने वाली डाली से पौधों का वियोग होता है, फिर क्या हम लोगों का वियोग न होगा?

“कपिल वस्तु में मेरी प्रतीक्षा करने वाले लोगों से कहना - उसके प्रति मोह छोड़िए, उसके निश्चय को सुनिए-

“या तो वह जन्म और मृत्यु का क्षय करके लौटेगा या प्रयत्नहीन और असफल होकर मृत्यु को प्राप्त करेगा।”

राजकुमार को खोजते हुए पुरोहित और मंत्रीगण वन प्रदेश में पहुँचते हैं। उन्हें घर लौट चलने के लिए अनेक प्रकार से समझाते हैं। पिता, पत्नी एवं अन्य परिजनों के शोक संतप्त होने की चर्चा करते हैं उन सबको उत्तर देते हुए बुद्ध ने कहा-

“मेरे कारण राजा को शोक हो रहा है यह जो आप लोगों ने कहा सो मुझे प्रिय नहीं लगा। क्योंकि संयोग स्वप्न सदृश होने और वियोग अवश्यम्भावी होने पर भी वे संताप करते हैं।

"जगत की विचित्र गति समझ कर आप लोग ऐसा सोचिए कि संताप का कारण न पुत्र है न पिता, शोक का निमित्त तो अज्ञान ही है।"

"पथिकोंके समान इस सम्सारमें अत्पन्न हुए लोगों का वियोग नियत है। अतः स्वजन समझे जाने वाले लोगों का वियोग होने पर भी ज्ञानी जन शोक क्यों करें?"

"पूर्व जन्मों के स्वजनों को छोड़ कर मनुष्य यहाँ आता है और फिर यहाँ से भी स्वजनों को ठग कर अन्यत्र चला जाता है; इस प्रकार परित्याग धर्म वाले मनुष्यों में आसक्ति क्यों की जाय?"

"जब गर्भ से लेकर सब अवस्थओं में मृत्यु, मारने के लिये, तैयार है तो पिताजी क्यों कहते हैं कि मैं असमय में बन का आश्रय ले रहा हूँ?"

"विषय सेवन के लोये काल नियत है, धन उपार्जन का भी समय होता है किन्तु मृत्यु तो संसार में समय-कु समय कुछ नहीं देखती, फिर कल्याण मार्ग के लिए समय की प्रतिक्षा कैसी?"

"मुझे सिंहासन पर बिठाने के लिये पिताजी राज्य छोडज्ञा चाहते हैं सो उनकी उदारता है, पर मेरे लिये उसे ग्रहण करना, रोगी के लोभवश अन्न ग्रहण करने के समान अनुपयुक्त ही है।"

"सोने के जलते महल के समान, विपुयुक्त मधुर भोजन के समान, घडियालों से भरे कमलयुक्त सरोवर के समान, राज्य सुख रमणीय तो है, पर विपत्तियों का आश्रय भी है।"

"राज्य से न सुख होता है न धर्म। यह अनुभव होने पर पूर्व काल में राजा लोग वृद्धावस्था में राज्य छोड़ कर वन को जाते रहे हैं।"

"यदि शान्ति में प्रीति हो तो राज्य शिथिल होगा। यदि राज्य में मति हो तो शान्ति नष्ट होगी। दोनों का आपस में वैसे ही मेल नहीं जैसे शीतल जल और अष्ण अग्नि में एकता नहीं होती।"

(अपूर्ण)


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