जीवन विकास के स्वाभाविक क्रम

February 1961

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(श्री विद्यालंकार वर्मा एम. ए.)

मनुष्य को संसार-बन्धन में जकड़ने वाला मुख्य कारण विषय-वासना में आसक्ति है। इस विषय वासना की वृद्धि जिस प्रकार शारीरिक इन्द्रियों से होती है उसी प्रकार उसका उच्छेद भी मानव देह द्वारा ही किया जा सकता है। इसका उपाय यह है कि अपने रूप, यौवन की ममता को त्याग कर इस मन्त्र का जप करें कि “मैं देह नहीं हूँ जब तक यह भावना श्वांस-प्रश्वास में न समा जाये और जब तक यह जीवन का महाव्रत न बन जाये, तब तक इसका अभ्यास करना आवश्यक है। क्योंकि विषय-वासना को नष्ट करने का उपाय उसके ऊपर आत्म बल द्वारा प्रहार करना है। मनुष्य की विषय-वासना का रूप यही होता है कि या तो वह देह के रूप और यौवन का स्वामी बनाना चाहता है या अपने नव-यौवन की शक्ति का अहंकार करता है यदि मनुष्य इस प्रकार की भावना को त्याग दे तो फिर यह देह ही विषय-वासना को मिटाने का साधन बन सकती है। देह से ही आसक्ति होती है और इसी से उसे त्यागा भी जा सकता है। आप विचार करेंगे तो मालूम हो जायेगा कि जो अपनी देह में आसक्ति रखता है उसे दूसरे की देहों के साथ भी आसक्ति रहना पड़ता है और जो अपनी देह के प्रति आसक्ति का का त्याग कर देता है वह फिर संसार की किसी देह में आसक्ति नहीं हो सकता। तुम जिस दृष्टिकोण से अपनी देह से बर्ताव करोगे तुम्हारी प्रकृति तुमसे सारे संसार के साथ वैसा ही बर्ताव कराके छोड़ेगी।

जो मनुष्य अपने रूप, यौवनादि को स्थायी करना चाहते हैं उन्हें देह रचना सम्बन्धी प्राकृतिक रहस्य का ज्ञान नहीं है उनकी धारणा तो यही होती है कि दूसरों को अपने रूप यौवन के बन्धन में फँसाने और स्वयं उनके रूप रस आदि को भोगे। इस प्रकार व अपनी चावल की खिचड़ी अलग पकाना चाहते हैं, पर वास्तविकता यह है कि मनुष्य रूप यौवन आदि की उपेक्षा करने से ही अच्छा मनुष्य बनता है। इसी उपाय से समाज व्यवस्था में पवित्रता और संसार में शान्ति रहती है। यदि हम कहे कि भगवान ने रूप और यौवन को मनुष्य की परीक्षा लेने और सच्चा प्रमाणित करने को ही बनाया है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं। मनुष्य की विषय-वासना दो काम किया करती है - एक तो वह मनुष्य की रूप-यौवनादि की उपेक्षा नहीं करने देती और दूसरे आत्मा में स्थित “सत्य”के दर्शन से वंचित रखती है। अतः जो व्यक्ति सदा सचेत और जागृत रहता है वही मनुष्य नाम का अधिकारी होता है। विषय-वासना या कामना मानव जीवन रूपी जंगल में पैदा होने वाला वह कूड़ा करकट है जिसे ज्ञान की आग में फूँक देना चाहिये। इससे मनुष्य में ब्रह्म की भावना का उदय होता है। इसके विपरीत जिस व्यक्ति का अशुद्ध मन विषय वासना के कीचड़ में लिप्त रहता है वह मनुष्यता का अधिकारी नहीं माना जा सकता है और वास्तविक दृष्टि से वह मृतक तुल्य है। मनुष्य को जानना चाहिये की उसे रूप यौवन आदि किस लिए दिये गये हैं? वे उसे सत्य-दर्शन कराने के लिए दिये गये हैं। इसलिए जिस व्यक्ति का मन शुद्ध रहेगा वह विषय-वासना में न फँस कर अपने जीवन को धन्य मानेगा और अशुद्ध मन वाला काम विकार आदि में फँस कर नारकीय जीवन बितायेगा।

जब मनुष्य बाल्यकाल बिताकर समर्थ आयु में प्रवेश करता है तब उसके सामने अपना जीवन मार्ग चुनने की समस्या उपस्थित होती है। उस समय मनुष्य को समयानुकूल या असमयानुकूल जीवन बिताने का निर्णय कर लेना पड़ता है। जीवन मार्ग चुनने का यह अवसर प्रत्येक मनुष्य के जीवन में आता है। परन्तु यह आता एक ही बार है जो दो बालक एक साथ और एक ढंग में पाले-पोसे गये है, वे इसी निर्णायक-दिवस के पश्चात दो विभिन्न विशाओं में चलने लग जाते हैं। जीवन में केवल एक बार आया अवसर ही या तो मनुष्य के उत्थान या पतन का कारण बन जाता है। इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपने जीवन को चाहे जैसा बनाना मनुष्य स्वतन्त्र छोड़ दिया जाता है कि वह चाहे तो इस अवसर को सच्चे लक्ष्य-भ्रष्ट होकर अशुभ बन जाने दे।

मनुष्य जैसे अपने माता-पिता के यहाँ जन्म लेकर स्वाभाविक ममता के बन्धन में बँधता है और अपने भौतिक शरीर के पालन-पोसने और बढाज्ञे का अवस पाता है, वैसे ही इस बन्धन में रहता हुआ इससे मुक्त होने का भी अवसर पा सकता है। यह पात गहुत कुछ घरों के वातावरण पवित्र हो तो मनुष्य देह के बन्धन में रहते हुये भी, इस देह में रहकर, विदेह, अमर बनने का अवसर पा सकता है।

यह कैसे स्म्भव होता है सो सुनिये कर्तव्य परायण माता-पिता संतान को गोद में पाकर अंधे नही हो जाते, वरन्, एसा समय आते ही उनके ज्ञान नेत्र खुल जाते है। वे सन्तान को गोद में पाते ही अपने आपको उसके भूठे मोह से पृथक रखने का निश्चय कर लेते है और सन्तान को भी अपने मोह बन्धन में फँसने नहीं देते। वे अपने कर्तव्य परायण जीवन द्वारा सन्तान को एसी शिक्षा देते ऐ कि उनकी सन्तान इस मायायुक्त संसार के मोह से अपने को मुक्त कर लेती है। पर यदि माता-पिता ही मूर्खता करें और संतानों को अपने मोह से न छुडा़यें तो उनकी सन्तान को संसार-मोह से छोटने की फला का ज्ञान कैसे प्राप्त हो सकेगा? फिर यह बात भी स्पष्ट है कि संतान के लिये संसार-मोह से छूटने की शिक्षा देने वाला माता-पिता से अच्छा शिक्षक भी दूसरा नहीं मिल सकता। अवस्था बढज्ञे के साथ-साथ जब संतान के मन में माता-पिता के अतिरिक्त अन्य मानवीय शरीरों के सम्बन्ध जोडज्ञे की भावना उत्पन्न होती है तो वही, यौवन-लालसां की उत्पत्ति का अवसर होता है। उस समय जो कर्तव्य परायण मनुष्य अपनी दूषित इच्छाओं को संयत करके माता-पिता के पवित्र बन्धन को परम-पिता परमेश्वर तथा जगत माता आध्याशक्ति से जोड़ लेता है, वही रूप और यौवन के विकार से बचकर धर्मानुसार जीवन व्यतीत कर सकता है। ऐसा ही मनुष्य घरमें या एकान्त में रहकर "वैराग्य" की भावना से श्रेष्ठ मार्ग का पथिक बन सकता है।

मनुष्य के स्वरूप में अनन्त गुण भरे पढे़ है। दूर्भाग्य से मनुष्य अपनी इस अमूल्य गुणराशि से लाभ नहीं उठाता और भोग-लालसा पर मोहित हो जाता है। इस भोग लालसा को उत्पन्न होते ही मिटा डालने की दिव्य शक्ति मनुष्य के स्वभाव में है। शास्त्रों के आदेशानुसार तो भोगेच्छा का अन्त कर डालना ही मनुष्य की बुद्धि का स्वाभाविक कार्य है और विषयों की कामना को पोषण करना स्वभाव विरुद्ध कर्म है। मनुष्य तब ही सच्चा मनुष्य बनता है, जब वह इस लालसा का अंत करता है। इसका सरल मार्ग यही है कि सबसे पहले अपने शरीर की भोगेच्छा से लडे़ और त्याग दे। भोग में भी एक प्रकार की मिठास है, परन्तु वह ऐसी मूढ़ मिठास है कि मनुष्य को मनुष्यता से पतित करके उसे पशु बना देती है। उसकी यही भोगेच्छा उसे महापुरूष नहीं बनने देती। मनुष्य को जानना चहिये कि संसार में जो शरीर दिखलाई पड़ते है उनको धारण करने वाली विश्वव्यापी सत्त एक ही है। उसने करोड़ बार अपने स्वरूप का दिव्य अनुभव लेने के लिये ही ये अनन्त देह धारण किये है। मनुष्य के पीछे चिपटी हुई इस विषय-वासना का अन्त उसी दिन होता है जिस दिन वह इस विश्वव्यापी विराट देही के असंख्य देह धारण करने के अभिप्राय को जान लेता है और अपने सच्चे लक्ष्य को समक्त कर अपनी देह और मन का सदुपयोग करता है।


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