मूल्याँकन (kavita)

February 1961

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एक भी आँसू न क कर बेकार -
जाने कब समन्दर मांगने आजाय !

पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है,
यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है;
और जिसके पास देने को न कुछ भी -
एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है ।
कर स्वयं हर गीत का श्रृंगार -
जाने देवता को कौन - सा भा जाय ?

चोट खा कर टूटते हैं सिर्फ दर्पण,
किन्तु आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं;
आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ-
हर समस्याएँ कभी रूठी नहीं हैं ।
हर छलकते अश्रु को कर प्यार -
जाने आत्मा को कौन नहला जाय ?

व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की,
काम अपने पांव ही आते सफर में
वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा -
जो स्वयं गिर जाय अपनी ही नजर में ।
हर लहर का कर प्रणय स्वीकार
जाने कौन तट के पास पहुँचा जाय ?

-रामावतार त्यागी


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