इन घटनाओं से हम कुछ सीखें

February 1961

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प्राणियों का पालनकर्ता मनुष्य नहीं है

शिवाजी महाराज सामनगढ़ किले का निर्माण करा रहे थे। हजारों मजदूर वहाँ पर काम कर रहे मन में यह भाव आया कि इस समय इतने प्राणियों का जीवन निर्वाह मेरे द्वारा हो रहा है।

शिवाजी के गुरू समर्थ रामदास भी उसी समय वहाँ आ पहुँचे। वे अन्तर्यामी थे, शिवाजी के मनोभाव को देख कर उन्होंने समझ कि इस प्रकार का अहङ्कार अन्त में हानिकारक ही होगा। इसलिये उन्होंने कहा"वाह शिवा! तुमने तो इतना बडा़ काम आरम्भ कर दिया है कि जिससे इतने व्यक्तियों का उदर निर्वाह हो रहा है।" शिवाजी ने हाथ जोड़ कर कहा" महाराज! सब आपकी कृपा है।" इतने में समर्थ की निगाह पत्थर की एक शिला पर पडी़। उन्होंने शिवाजी से कहा कि यह शिला बेकार पडी़ है, इसे तुड़वाकर द्प टुकडे़ करा दो। मजदूरों ने आकर बडे़ परिश्रम से उसे तोड़ दिया तो दिखाई पडा़ की उसके बीच में एक ओकली के बराबर गडढा है, उसमें पानी भरा है और उसमें एक मेडक भी है। रामदास ने कहा"वाह शिवा वाह! तुम्ने इस शिला के भीतर पानी भरसाकर मेढ़क के जीवित रहने की व्यवस्था भी करादी है।" बस शिवाजी अपने अहंकार की निस्सारता को समझ गये। उनको मालूम हो गया कि "इन सब प्राणियों का पेट भरने वाला मैं नहीं हूँ वरन कोई अन्य ही शक्ति है।" उन्होंने समर्थ के चरणों पर मस्तक रख कर अपनी गलती के लिये क्षमा प्रार्थना की।

मानवता का महत्व

फ्रांस के शासक नेपोलियन ने आन्द्रिया पर आक्रमण किया और जगह-जगह उसको सेनाओं को हराता हुआ राजधानी विएना नगर पर जा पहुँचा। उसने संधि का झण्डा देकर राजदूत को नगर में भेजा, पर नागरिकों ने रोप में आकर उसे मार डाला। इससे नेपोलियन बडा़ क्रूद्ध हुआ और उसने अपनी तोपों को नगर पर गोलावारी करने की आज्ञा दी। वहाँ के अनगिनती विशाल भवन तोपों की मार से टूट-फूट गये। एकाएक नगर का द्वार खुला और उसमें से दूत संधि का झण्डा लिये। बाहर निकला। नेपोलियन ने दूत का सम्मान करके संदेश पूछा। दूत ने कहा कि नगर में आपकी तोपों के गोले जहाँ गिर रहे हैं, वहाँ से समीप ही सम्राट की प्यारी पुत्री बीमार पड़ी है। अगर तोपें इसी प्रकार चलती रहीं तो विवश होकर सम्राट को अपनी पुत्री को अकेले छोड़कर चला जाना पड़ेगा।” नेपोलियन के सेनापतियों के मत से तोपों से गोलाबारी करना आवश्यक था, पर नेपोलियन ने कहा कि “युद्ध नीति की निगाह से तो आपकी बात ठीक है, पर मानवता की दृष्टि से एक रोगी राजकुमारी पर दया करना उससे भी अधिक महत्व की बात है।” तोपें वहाँ से हटा ली गईं।

माता की आज्ञा माननीय है

भारत के गवर्नर जनरल लार्ड कर्जन ने एक बार प्रसंगवश बंगाल के प्रसिद्ध विद्वान् और हाईकोर्ट के जज श्री आशुतोष मुखर्जी को विलायत जाने की सम्मति दी।

श्री आशुतोष स्वयं भी विलायत-यात्रा की इच्छा रखते थे और उनके मित्र भी उनको इसकी सम्मति दिया करते थे, पर उनकी प्राचीन परम्परा को मानने वाली बूढ़ी माँ समुद्र यात्रा को शास्त्र विरुद्ध मान कर उनको रोकती थीं। इसलिए आशुतोष ने लार्ड कर्जन से कहा कि - “मेरी माता विलायत जाने का विरोध करती हैं, इसलिए मैं नहीं जा सकता।”

लार्ड कर्जन ने कुछ सत्ता का भाव प्रकट करते हुये कहा कि आप अपनी माता से कहियेगा कि - “भारत के गवर्नर जनरल मुझे विलायत जाने की आज्ञा दे रहे हैं।”

श्री आशुतोष ने उत्तर दिया - “अगर आपका ऐसा ख्याल है तो मैं आपको अभी यह बतलाये देता हूँ कि आशुतोष मुखर्जी अपनी माता की आज्ञा किसी दशा में भंग नहीं कर सकता, चाहे भारत का गवर्नर जनरल या उससे भी कोई बड़ा उसके लिए आज्ञा क्यों न दे।”

वीरता का आदर्श

बाजीराव ने सन् 1728 में हैदराबाद के निजामुलमुल्क के ऊपर चढ़ाई करके गोदावरी के तट पर उससे युद्ध किया। निजाम की सेना हारकर पीछे हट गई। इतने में कोई मुसलमानी त्यौहार आ गया, पर उस समय निजाम की सेना में भोजन सामग्री का अभाव था। तब निजाम ने बाजीराव के पास सन्देश भेजा कि “हमारी सेना में भोजन सामग्री की बड़ी कमी आ गई है, इसलिए अनाज और किराना भेजो” पेशवा ने इस पत्र पर विचार करने के लिए सेनाध्यक्षों को बुलाया तो सबने यही सम्मति दी कि इस अवसर पर आक्रमण करके निजाम की शक्ति को पूर्णतः ध्वस्त कर दिया जाय। पर बाजीराव ने कहा कि “विपत्ति में फँसे हुए शत्रु को मारना वीरता की दृष्टि से प्रशंसनीय नहीं है। इस समय तो हमको नवाब की सहायता ही करनी चाहिए।” यह कहकर उन्होंने पाँच हजार बैलों पर लादकर सब प्रकार की सामग्री उसके लिए भेज दी। बाजीराव के सद्व्यवहार का निजाम पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि शीघ्र ही दोनों पक्षों में सुलह होकर मेल हो गया।

दान नम्रता के साथ दिया जाना चाहिये

श्री भूदेव मुखोपाध्याय ने अपने पिता विश्वनाथ तर्कभूषण की स्मृति में एक फण्ड कायम किया था जिसका उद्देश्य प्राचीन शास्त्रों के अध्ययन में संलग्न सदाचारी और त्यागी ब्राह्मणों को सहायता देना था। इसकी तरफ से जिन विद्वानों को सत्पात्र समझा जाता था उनके पास वर्ष में पचास रुपये की रकम मनीआर्डर द्वारा भेज दी जाती थी। इसके लिए न तो उनको किसी से प्रार्थना करनी पड़ती थी और न कार्यालय में जाना पड़ता था। इस फण्ड में से जिन लोगों को प्रथम वर्ष में सहायता दी गई उनकी सूची "एजुकेशन गजट” में प्रकाशित की गई। जिस कर्मचारी ने सूची तैयार की थी उसने आरम्भ में लिखा "इस वर्ष जिन आध्यापकों तथा विद्वानों को "विश्वनाथ-वृत्ति" दी गैइ उनकी नामावली।" जब भूदेव वायू ने उस सूची को देखा तो उन्होंने इस प्रकार लिखने को गलत बता कर कहा कि यहाँ इस तरह लिखना चाहिये कि "इस वर्ष जिन अध्यापकों तथा विद्वानों ने " विश्वनाथ-वृत्ति" स्वीकार करने की कृपा की उनकी नामावली।" सच है दान की शोभा नम्रता पूर्वक देने में ही है।

प्रेम और दया का व्यवहार ही भगवान को मान्य है।

बेलगाँव में चिक्षम्बर दीक्षित नामक एक महापुरुष रहते थे जो परोपकार के लिये प्रसिद्ध थे। एक दिन एक स्त्री सन्तान प्राप्त होने का उपाय पूछने उनके पास गैइ। वह उसके लिये बहुत समय से व्रत-उपवास आदि करती रहती थी, पर उसका हृदय प्रेम-दया आदि सदगुणों से शून्य था। चिदम्बर ने उसे दो मुट्ठी चने देकर थोडे़ समय तक अलग बैठी रहने को कहा। वह धीरे धीरे चना चबाने लगी। यह देख कर दो-चार छोटे-छोटे बालक भी उसके पास आकर खडे़ हो गये और उसके मुँह की तरफ देखने लगे। दो-एक ने हाथ भी पसारा। पर उसने अपने मन में कहा-'अगर मैं दो-एक को चना दूँगी तो फिर सभी को देना पडे़गा।' इससे उसने किसी को एक दाना भी नहीं दिया, सब चना खुद ही खा गई। तब चिदम्बर ने उससे कहा- "जब मुफ्त के चनों में से भी दो-चार चने तुम से बालकों को नहीं दिये गये तो तुम भगवान से हाड़-माँस का बालक पाने की आशा कैसे रख सकती हो? केवल बाह्य धर्माचरण से काम नहीं चलता, हृदय में सदभाव और उदारता को होना भी आवश्यक है।"

व्यापार का सच्चा आदर्श

रायचन्द्र भाई सौराष्ट्र के बडे़ विद्वान और सन्त पूरुष थे। वे आजन्म गृहस्थ आश्रम में ही रहे पर उनका आचरण बडे़-बडे़ सन्तों से भी उच्च था। महात्मा गँधी उनको गुरुतुल्य मानते थे। वे बम्बई में जवाहरात का काम करते थे। एक बार उन्होंने किसी व्यापारी से जवाहरात का सौदा किया कि एक माँने बाद वह इतने जवाहरात उनके हाथ इस भाव पर बेचेगा। संयोगवश जवाहरात का दाम चढज्ञे लगा और एक महीने में इतना अधिक हो गया कि अगर वह व्यापारी उस सौदे के अनुसार जवाहरात देता तो उसका सौदे के अनुसार जवाहरात देता तो उसका दिवाला निकल जाता, मकान भीविक जाता। जवाहरात का भाव चढज्ञे की बात सुनकर रायचन्द्र भाई उस व्यापारी की दुकान परमये। इनका देख कर उसने कुछ चिन्तित होकर कहा कि "आपके सौदे के विषय में मुझे स्वयं चिन्ता है। कुछ भी हो दो-तीन दीन में रूपये की व्यवस्था करके आपका देना चुकाऊँगा।"

रायचन्द्र ने कहा-"इस सादे के बारे में जैसी चिन्त तुमको है वैसी मुझको भी है और इस चिन्ता का कारण इसकी यह लिखापढी़ है। अगर इसे खत्मकर दिया जाय तो दोनों की चिन्ता का अन्त हो सकता है।

व्यापारी ने कहा-"आप ऐसा चिचार न करें। मैं दो दिन के भीतर आपका रूपया अवश्य दे दूँगा।"

रायचन्द्र भाई ने उसके सामने ही सौदे की लिखा पढी़ के कागज को फाड़ कर फेंक दिया और कहा-"मै जानता हूँ कि इस समय जयाहरात का दाम बड़ जाने से तुम पर मेरा चालिस-पचास हजार रूलेना हो गया है। पर मैं यह भी जानता हूँ कि इतना रूपया देने से तुम्हारी क्या हालत हो जायगी। रायचन्द्र दूध पी सकता है खून नहीं पी सकता।

रायचन्द्र भाई की अयाचित उदारता को देख कर वह व्यापरी उनके पैरों पर मस्तक नवाने लगा की -"आप तो मनुष्य नहीं सचमुच देवता हैं।" रायचन्द्र भाई ने व्यापार का सच्चा आदर्श उदाहरण देवर समझ दिया।"


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