सच्चरित्रता और अमर-जीवन

February 1961

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परिमाग्ने दुश्चरितद्वाघस्वा मा सुचरिते भज। उदायुषादस्थाममृतां अनु।। यजु॰ ४।२८)

“हे अग्ने (ईश्वर) मेरे पाप को सब ओर से रोकिये। मैं कभी बुरे कर्मों में प्रवृत्त न होऊँ। मुझे(सच्चरित्रता) में प्रतिष्ठित करो। श्रेष्ठ और दीर्घ जीवन (अमृतत्व) का अनुसरण करता हुआ मैं उत्थान करूँ।

चरित्र ही जीवन की आधारशिला है। मनुष्य संसार में जो कुछ सफलता, सौभाग्य, सुख प्राप्त करता है उसके मूल में उसके चरित्र की उच्चता ही रहती है। निर्बल चरित्र वाले अथवा चरित्रहीन व्यक्ति का जीवन निस्सार और महाशून्य है। चाहे वह साँसारिक दृष्टि से थोड़ा या अधिक धन प्राप्त करके आराम का जीवन व्यतीत करता हो, पर अन्य लोगों की दृष्टि में वह कभी प्रतिष्ठा या सम्मान का पात्र नहीं हो सकता।

अधिकांश मनुष्य भगवान से या अन्य देवी-देवताओं से धन और संतान आदि की प्रार्थना किया करते हैं, पर वास्तव में मनुष्य को सबसे पहले सच्चरित्रता की प्रार्थना करनी चाहिए। क्योंकि चरित्र ही स्थायी धन है, सोना, चाँदी, हीरा-जवाहरात तो बिलकुल अस्थायी या क्षणिक धन है, जो जरा सी देर में छीना जा सकता है या नष्ट हो सकता है। आज जो आदमी बड़ी शान से कोठी में रहता है, गाड़ी और मोटर पर चढ़ता है, मेवा और मिठाई खाता है, वह किसी भी घटनावश दूसरे ही दिन बिलकुल कंगाल और दूसरों का मुंहताज हो सकता है। पर चरित्र रूपी धन ऐसा स्थायी और नष्ट न होने वाला है कि न उसे चोर चुरा सकता है, न डाकू लूट सकता है, न आग जला सकती है और न राजा छीन सकता है। चरित्रवान् व्यक्ति किसी भी स्थान या देश में चला जाय वह सदा सम्मान युक्त जीवन व्यतीत करेगा।

वैसे भगवान ने हमको जन्म से ही ऐसी शक्ति दी है कि सच्चरित्रता को प्राप्त कर सकना कठिन नहीं है, वरन् वह एक स्वाभाविक बात है। मनुष्य जन्म से कभी पापी, दुष्ट या नीच नहीं होता। वरन् एक साधारण मनुष्य में भी यह शक्ति होती है कि ज्यों-ही वह कुमार्ग पर पैर रखता है, नीचता के कार्यों में प्रवृत्त होता है, वैसे ही उसकी अंतरात्मा उसे रोकती है, चेतावनी देती है, सावधान करती हैं समाज भी ऐसे कार्यों पर किसी न किसी रूप में प्रतिबन्ध रखता है और उसके विपरीत चलने वालों को घृणा की दृष्टि से देखता है। पर फिर भी बहुसंख्यक मनुष्य कुसंग में पड़ कर या पाप कर्मों की ऊपरी चमक-दमक से आकर्षित होकर, कुमार्गगामी होकर चरित्र को खो देता है। इसलिए अपनी भलाई चाहने वाले मनुष्य का कर्तव्य है कि चरित्र के विषय में सदैव सावधान रहे और परमात्मा से यही प्रार्थना करता रहे कि वह उसे सुमार्ग पर चलाता हुआ सच्चरित्रता में स्थिर रखे। यदि उसका चरित्र निर्मल और उच्च रहेगा तो वह संसार में कभी असफल नहीं हो सकता, चरित्र की शक्ति से वह जहाँ कहीं जायेगा या रहेगा सफलता और सम्मान का जीवन ही व्यतीत करेगा।

वेद मन्त्र में यह भी कहा है कि "मैं श्रेष्ठ और उच्च जीवन द्वारा अमरता को प्राप्त करूँ। "मानव जीवन का सर्वोच्च लाभ अमरता ही है अस्थायी और क्षणिक धन और सुख की और तो मूर्ख लोग ही दौड़ते है, बुद्धिमान व्यक्ति बातों के लिए प्रयत्न करेगा जो सदैव स्थिर रहने वाली, टिकाऊ है। इस दृष्टि से विचार किया जाय तो सभी सांसारिक वस्तुएँ क्षणभंगुर हैं और आध्यात्मिक और दैवी गुण स्थायी अथवा - अमर हैं। इसको संदेष में हम यो भी कह सकते है कि यह संसार नाशवान है और भगवान अमर है। जो व्यक्ति संसार से मोह रखेगा, उसके पदार्थों को हि बढि़या समझ कर उनकी तरफ दौडे़गा वह स्वयं भी अस्थायी और नाशवान बन जायगा। इसके विपरीत जो कोई परमात्मा-भगवान से प्रीति रखेगा, उसके गुणों का चिन्तन करेगा, उससे सच्चरित्रता की, पाप-रहित मार्ग पर चलाने की प्रार्थना करता रहेगा, वह अमर जीवन की और अग्रसर होगा। ऐसा जीवन प्राप्त करने के लिए सच्चरित्रता सबसे पहली शर्त है, क्योंकि भगवान के दरबार में दुश्चरित्र व्यक्ति का प्रवेश नहीं हो सकता। वह तो पापों की ओर ही प्रेरित होगा और परिणाम स्वरूप नाश को प्राप्त होगा।

अमर जीवन का एक और आशय यह भी है कि मनुष्य समाज और देश में रहकर ऐसे कार्य करे जिनसे अन्य लोगों की भलाई हो, उनके सुख, सुविधा की वृद्धि हो, जिससे वे उसकी प्रशंसा करे, उसके प्रति कृतज्ञ हों और मृत्यु के पश्चात भी उसका गुण-गान करें। जैसा एक विद्वान ने कहा है कि दूसरों के लिए स्वार्थ त्याग और कष्ट सहन करने वाला मनुष्य संसार में यश-रूपी शरीर से सदैव जीवित रहता है, वास्तव में अमर-जीवन का तात्पर्य यही है कि मनुष्य की कीर्ति चिरकाल तक स्थयी रहे और उसके देशवासी तथा समाज के लोग श्रद्धा पूर्वक उसकी चर्चा करते रहें। भगवान की उपासना करना, शुद्ध जीवन व्यतीत करना, जप-तप-ध्यान करना भी बहुत श्रेष्ट और सराहनीय गुण हैं, पर इनका संबंध प्रायः व्यक्तिगत जीवन से ही होता है। बहुसंसयक मनुष्य ऐसे देखने में आते है कि जिनका रहन-सहन आचरण सब प्रकार से शुद्ध और त्यागमय है, पर दुनियाँ के लोग उनके विषय में कुछ भी नहीं जानते। इसलिए अमर-जीवन के अभिलाषी मनुष्य का परोपकारी और समाज सेवक होना परमावश्यक है। दुनियाँ हमको तभी याद करेगी, सर्व साधारण हमको तभी श्रद्धा की दृष्टि से देखेंगे जब हमारा जीवन और कार्य उनके लिए लाभदायक, कल्याणकारी प्रतीत होंगे। इसलिए वेद के उपदेशानुसार मनुष्य को सदैव सत्कृत्य और दूसरों की भलाई करते हुए जीवन व्यतीत करने का प्रयत्न करना चाहिए।

संसार में सभी मनुष्य स्वभायतः अमर-जीवन अथवा दीर्घ जीवन की इच्छा करते है। पूर्णतः वृद्ध, अशक्त हो जाने पर भी लिग जीवित रहने के लिए लालायित रहते हैं और उसके लिए तरह-तरह के प्रयत्न करते रहते है। पर उपयुक्त वेद मन्त्र से हमको यह प्रतीत होत है की दीर्घ जीवन तभी अच्छा है जब हम सच्छरित्र बन जायें और अपने साधनों तथा शक्तियों का समाज सेवा के लिये उपयोग करे। अगर हमारा चरित्र उथ नहीं है, हमारा मन पाप कर्मों की ओर ही दौड़ता है तो हम जितना अधिक जीवित रहेंगे उतना ही अधिक पापों की गठरी इकट्टा करेंगे। इसीलिए मंत्र-दृष्टा व्यपि ने सच्चरित्रता(सुचरिते) और दीर्घ जीवन या अमरता (अमृतान) का एक साथ ही जिक्र किया है। इसका तात्पर्य स्पष्ट रूप से यही है कि दीर्घ जीवन पुण्यात्मा का ही अच्छा है, पापी बनकर अधिक समय जीना तो और भी दुर्भाग्य की घात है। इसलिए मनुष्य मात्र का कर्तव्य है कि वे सदैव परमात्मा से वही प्रार्थना करें कि वह उनको सच्चरित्र परोपकारी, समाज सेवक बना कर सुमार्ग चलने की शक्ति दे।


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