सन्तोषी-सर्वदा सुखी

February 1961

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(श्री दत्तात्रेय पुण्डरीक आप्टे)

कितने ही व्यक्ति अपनी वर्तमान परिस्थितियों से बहुत खिञ और परेशान रहते हैं।अपना वर्तमान उन्हें असन्तोपपूर्ण और भविष्य निराशामय दीखता है। वसुओं की कमी और परिस्थितियों की प्रतिकूलता के कारण जितना कष्ट होता है उससे कहीं अधिक कष्ट उन्हेण अपनी असंतुलित मनोभूमि के कारण होता है। मानसिक संतुलन ठिक न रहने से वे परिस्थितियों को सुधारने, अभावों को मिटाने का मार्ग भी नहीं सिच पाते, फलतः उनकी चिन्ता इस असन्तोपपूर्ण मनोस्थिति के कारण सुधरने की अपेक्षा दिन दिन बिगड़ती ही जाती है।

एक व्यक्ति कम आमदनी के कारण, बहुत आर्थिक कष्ट अनुभव करता है और इसलिये अपने को अभावप्रस्त, भाग्यहीन तथा दीन दूखी अनुभव करता है। पर दूसरा व्यक्ति उन्हीं परिस्थितियों में रह कर, उतनी ही आमदानी से अपना काम चलाता है और बडे़ आनन्द तथा सन्तोष के साथ दिन काटता है। कई बार तो उससे भी गईबीती आर्थिक परिस्थिति के लोग अपेक्षाकृत और भी अधिक प्रसन्न और सन्तुष्ट देखे जाते हैं। अदि धन की मात्रा ही सुख दुःख का कारण रही होती तो उसी आचार पर उसकी न्यूनाधिकता दृष्टिगोचर होनी चाहिए थी। पर देखा इसके विपरीत जाता है। बडे़-बडे़ धनपति और श्रीमन्त लोग प्रचुर मात्रा में धन होते हुए भी दुखी, असंतुष्ट और चिन्तित देखे जाते हैं और अनेकों निर्धनों की झोपडि़याँ स्वर्गीय सुख शान्ति को अपने अन्दर धारण किये होती हैं।

इसी प्रकार यश, कीर्ति, सफलता, स्वास्थ्य, विद्या, बुद्धि, कला-कौशल, चातुर्य, देश, जाति, आयु, रूप यौवन आदि विभूतियों के आधार पर भी सुख दुख निर्भर नहीं है। इनमें से जिस वस्तु का भी अभाव होता है उसी को लिग अपने दुख का कारण मान लेते हैं और अपने को निर्दोष समझ कर उन अभावों का ही रोना रोया करते हैं। वे सोचते हैं कि हमारा अमुक अभाव दूर हो जाय तो फिर प्रसन्नता और संतुष्टि उपलब्द हो सकती है। प्रयत्न करने पर वह अभाव दूर भी हो जाते हैं फिर भी देखा गया है कि प्रसन्नता दूर ही हटती चली जाती है। उस अभाव के पूर्ण होते ही दूसरा अभाव अखरने लगता है। कोई न कोई अभाव तो बना रहेगा। सारे अभावों का दूर हो जाना, समस्त कामनाओं का पूर्ण हो जाना सम्भव नहीं है। इसलिये उनके लिये सुख-शान्ति भी एक असम्भव तथ्य बनी रहती हैं। रोते, झींकते, खिन्नता और चिन्ताओं में प्रसित रहते हुए ही उन्हें जीवन के बहुमूल्य क्षण समाप्त करने होते हैं। आज अधिकांश व्यक्तियों की आन्तरिक स्थिति यही है। ये जीते तो हैं पर उसमें कोई आनन्द या सन्तोष अनुभव नहीं करते।

क्या इस स्थिति का बदला जाना सम्भव नहीं है? सुख का आस्वादन करते हुए प्रसन्नतापूर्ण जीवनयापन कर सकना अपने हाथ की घात नहीं है? इस समस्या पर गम्भीरता पूर्वक विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि जीवन को सन्तोष और आनन्दपूर्ण परिस्थिति में व्यतीत कर सकना निश्चय ही मनुष्य के अपने हाथ की घात है। यह ठिक है कि अनुकूल परिस्थितियों में मनुष्य अधिक सुविधा अनुभव करता है पर यह भी गलत नहीं है कि स्वल्प साधनों एवं सामान्य परिस्थितियों को भी प्रसन्नता की उतनी मात्रा उपलब्द हो सकती है कि व्यक्ति अपने जीवन को असफल एवं दुर्भाग्य- ग्रस्त न माने। जब अन्य असंख्यों व्यक्ति हम से गई गुजरी परिस्थिति में रह कर संतोष पूर्वक रह सकते हैं तो हम उनसे कहीं अधिक सुविधाएँ प्राप्त होते हुए भी दुखी रहें इसका कोई कारण नहीं है।

प्रसन्नता और अप्रसन्नता की गुत्थी बाहरी पदार्थों की संख्या, मात्रा या उत्कृष्टता के आधार पर सुलझाई नहीं जा सकती। क्योंकि जो कुछ हम चाहते हैं वह साधन जिन्हें उपलब्ध हैं वे ही कहाँ सन्तुष्ट हैं? जो परिस्थितियाँ आज हम चाहते हैं, उनके प्राप्त हो जाने पर वे भी स्वल्प लगेगी ओर उससे अधिक उत्कृष्टता की, अधिक मात्रा की आवश्यकता अनुभव होगी, फिर वही अभाव खटकने लगेगा इस कुचक्र का कहीं अंत नहीं। इस संसार की सारी साधन सामग्री मिलकर भी एक व्यक्ति की तृष्णा को तृप्त नहीं कर सकती। सुरसा राक्षसी की तरह उसका मुँह फटता ही जाता है। इसमें से बच निकलने का एक ही उपाय है, अपने को छोटा बनाना। हनुमान जी ने इसी युक्ति से अपना पिण्ड छुड़ाया था। सुरसा वस्तुतः तृष्णा ही है, हमारा आकार कितना ही बढ़े उस का मुँह और भी अधिक फटता जायेगा। राजा और रंक, श्रीमन्त और श्रमिक सभी उसकी दाढ़ों के नीचे कुचले जाते और अपने - अपने ढंग से दुर्भाग्य का रोना रोते हुए चीखते चिल्लाते रहते हैं।

हम सिर्फ अभावों और कठिनाइयों के बारे में सोचते रहे हैं और विशेष जो कुछ उपलब्ध है उसकी महत् और प्रचुरता पर ध्यान नहीं देते। यदि हम अपने से नीचे वालों के साथ अपनी तुलना करने लगें तो प्रतीत होगा कि कितने ही प्राणी हमें अपनी तुलना में उतना ही साधन सम्पन्न समझते होंगे जितना कि हम अपनी तुलना में देवताओं को समझते हैं। यदि हम उन बेचारों की परिस्थिति में होते और उस समय कोई देवता आकर वह परिस्थिति प्रदान करता जो हमें आज उपलब्ध है तो निश्चय ही वह परिवर्तन एक वरदान ही माना जाता। संसार में लाखों अन्धे हैं यदि उन्हें हमारी तरह देख सकने वाली आँखें मिल जाये तो वे आनन्द से फूले न समायेगें। इसी प्रकार कितने ही लँगड़े, लूले, बहरे, अपाहिज, पागल, रोगग्रस्त, जराजीर्ण मनुष्य ऐसे हैं जो और कुछ न सही केवल शारीरिक स्थिति ही हमारे जैसी मिल जाये तो उसे एक दैवी वरदान ही मानेंगे। पर हमें अपनी उस सम्पन्नता का कभी अनुभव भी नहीं होता। जो कुछ हमें प्राप्त हे उसकी उत्कृष्टता पर यदि हम विचार करें तो प्रतीत होगा कि ईश्वर ने जो कुछ दिया है वह भी इतना है कि उस पर संतोष और गर्व किया जा सकता है। जो प्राप्त है उससे सन्तुष्ट रहना और अधिक के लिए प्रयत्न करना यही प्रगति का निर्दोष क्रम है। विवेकवान इसी रास्ते उन्नति की मंजिल पर बढ़ते हैं।

इस संसार में मनोवाँछित परिस्थितियाँ किसी को भी प्राप्त नहीं। हर एक को कोई न कोई अभाव रहता ही है। यदि इसी कारण लोग असन्तुष्ट रहने लगें तो फिर सारी दुनिया में एक भी व्यक्ति सुखी न मिलेगा। पर बात ऐसी नहीं है, अनेकों निर्धन तथा कठिनाइयों में ग्रस्त मनुष्य भी ऐसे मौजूद हैं जो प्रयत्नशील तो हैं पर वर्तमान में जो कुछ सामने है उससे खिन्न नहीं होते। हँसते खेलते उसे ईश्वर की अनुकम्पा मान कर अपना मन प्रसन्न रखते हैं और संतोष की साँस लेते हुए जीवन के दिन पार करते हैं।

कई लोग सोचते हैं कि संतोष कर लेने से प्रगति शिथिल हो जायेगी, उन्नति के प्रयत्न ढीले हो जायेंगे, जो कुछ है सब ठीक है यह मान लेने की आदत पड़ जायेगी और फिर विकास के लिए उत्साह न रहेगा। यह आशंका उन अस्थिर मति वाले क्षणिक बुद्धि लोगों के लिए ही की जाती है जो आवेश में या नशा पीकर ही कुछ कर सकते हैं। विवेकशील लोग अपने जीवन को एक क्रमबद्ध व्यवस्था के रूप में विनिर्मित करते हैं वे जानते हैं कि असंतुलित खिन्न और उद्विग्न मन होना एक प्रकार की रूम्ण अवस्था है जिसमें कुछ कर सकना तो दूर, ठिक तरह सोच सकना भी कठिन होता है। झूंझलाइट, खीज, परेशानी और उद्वेग की स्थिति में मस्तिष्क उलटे ही विचार करता है, उतावला होता विपत्ति को बढा़-बढा़ कर सोचता है, दूसरों पर भविष्य में भयंकर विपत्ति की आशङ्का करता है, और सब छोड़कर कहीं भाग जाने या आत्महत्या करने जैसी ऊटपटांग बातें सोचता है। कभी-कभी वह अपने भयङ्कर कल्पना चित्रों का दोष किसी दूसरे पर मढ़ कर उस पर ऐसे आक्रमण कर बैठता है जिसके लिये पिछे पश्चाताप ही हाथ रहे।

असन्तोष बढ़ कर इन उपरोक्त परिस्थितियों में ही जा पहुँचता है और शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को बुरी तरह नष्ट कर देता है। वह एक मानसिक रोग है, आन्तरिक उत्पात है, इससे बचने में ही कल्याण है। जो लोग सोचते हैं कि असन्तोष से प्रगति की आकांक्षा जागृत होती है वे भूल करते हैं।प्रगति तो स्वस्थ्य आत्मा का स्वाभाविक चिन्ह है। शान्त और संतुलित मस्तिष्क सदा प्रगति की बात सोचेगा ओर उसके लिये वह गतिविधि भी अपनायेगा जो सफलता कि मंजिल पार करने में समर्थ होती है।

हमें सन्तुष्ट रहना चाहिए। सन्तोष में ही शांति है। आज जो उपलब्द है उसके लिए ईश्वर को अनेक धन्यवाद देना और उसके लिए पूर्ण रूप से प्रसन्न रहना ही हर विवेकशील के लिए उचित है। जिन्हें इनसे कम मिला है, उनकी तुलना में अधूरे साधन एवं घटिया वस्तुओं के होते हुए भी हम भाग्यशाली हैं। इस अपने सौभाग्य पर हमें क्यों प्रसन्न नहीं होना चाहिये? क्यों सन्तोष नहीं करना चाहिए? यदि सुखि रहने की इच्छा है तो सन्तोष को अपने स्वभाव में सम्मिलित करना ही पडे़गा। और भी अधिक उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त करने के लिये इस प्रयत्न करें, वह उचित है, पर इसके लिये खिन्न या असंतुष्ट होने की अवश्यकता नहीं है, वह कार्य तो सन्तुष्ट और प्रसन्न मन में ही सुविधापूर्वक हो सकता है।


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