संत तुकाराम और उनकी लोक-कल्याण की भावना

February 1961

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(श्री सत्यनारायण रामचन्द्र शास्त्री)

भारतवर्ष की आध्यात्मिक-साधन प्रणाली का मूल-मन्त्र परोपकार है। यद्यपि योगशास्त्र में एकान्त में बैठकर धारणा, ध्यान, समाधि के अभ्यास को साधन का स्वरूप बतलाया है ओर वेदान्त वाले जगत के प्रपंच का मिथ्या समझ कर उससे पूर्णतः निर्लिप्त रहने को सर्वश्रेष्ठ साधन बतलाते हैं, पर जब उनके भीतर घुसकर सार मर्म को खोजा जाता है तो सबका तात्पर्य लोक-सेवा और लोक-कल्याण ही सिद्ध होता है। अविकसित मनोभूमि वाले साधक भले ही बाह्य क्रियाओं अथवा अकेले जप, ध्यान आदि को अपना एक मात्र लक्ष्य समझते रहें पर वास्तविक ज्ञान से भेंट होने पर वे समझ जाते हैं कि इस संसार में अगर कुछ सार है तो परोपकार ही है, और जितना भी भजन-साधन किया जाता है उसका उद्देश्य अपने का परोपकार के योग्य बनाना ही है। इसी बात को लक्ष्य में रखकर गुजरात के भक्त नरसी महता ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया है-

“वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाने रे।’’

यद्यपि आज भगवान की भक्ति का रूप बहुत कुछ व्यक्तिगत पूजा, भजन, उपासना बन गया है और अधिकाँश लोग घर में या मन्दिर में भगवान की स्तुति, प्रार्थना, कीर्तन, भजन कर लेने को ही ईश्वर-भक्ति का मार्ग समझने लगे हैं, पर इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि यदि इन कार्यों के फलस्वरूप हमारे हृदय में भूत दया, दुखियों के साथ करुणा और आपत्तिग्रस्तों की सहायता का भाव उदय नहीं होता तो वह सब भजन, पूजा बिलकुल दिखावटी अथवा मूढ़ता है और उससे हमारा आत्मकल्याण कभी नहीं हो सकता। प्राचीन समय में जो प्रसिद्ध भक्त, संत और त्यागी-तपस्वी हुए हैं वे सब लोक-सेवक और लोक-शिक्षक ही थे, यह दूसरी बात है आज सैकड़ों वर्ष का समय बीत जाने से और अपनी त्रुटिपूर्ण मनोभावना के कारण उनके चरित्रों को हमने केवल भजन-पूजा और कुछ अलौकिक चमत्कारों तक ही सीमित कर दिया है।

तुकाराम जी महाराष्ट्र प्राँत के एक प्रमुख संत हुए हैं जिन्होंने विट्ठल प्रभु की भक्ति का उस प्रदेश में बहुत अधिक प्रचार किया था। वहाँ के साधारण लोग आज भी उनके रचे “अभंगों” को गाकर भगवत् भक्ति की प्रेरणा लेते रहते और उनके पद-चिह्नों पर चलकर आत्म-कल्याण का प्रयत्न करते रहते हैं। तुकाराम के चरित्र की एक मुख्य विशेषता यह है कि वे जन्म से ही हीन वर्ण के थे, उनका आविर्भाव कुनवी जाति में हुआ, जिसका मुख्य पेशा खेती किसानी है और जिसकी गणना शूद्रों में की जाती है। वैसे इनके घर में बहुत पीढ़ियों से लेन-देन और व्यवसाय का कार्य होता आया था, तो भी ब्राह्मणों की दृष्टि में वे हीन वंश के और शूद्र ही थे। तुकाराम ने भी स्वयं कभी जातीय उच्चता अथवा पवित्रता का दावा नहीं किया, पर उनके प्रभाव से महाराष्ट्र के निम्न वर्ग में आत्मानुभूति की भावना उत्पन्न हो गई और वे यह अनुभव करने लगे कि हमारा जन्म पतित और दलित अवस्था में रहकर ही जीवन समाप्त कर देने को नहीं हुआ है, वरन् हम भी उस जीवन को अतिवाहित कर सकते हैं जो वास्तव में उच्च, शुद्ध और पवित्र है, चाहे अभिमानी और अहंकारी लोग उसे स्वीकार न करे। इस प्रकार तुकाराम के आत्मत्याग और निस्वार्थ सेवा-भावना से सर्वसाधारण में उस आत्म-चेतना का आविर्भाव हुआ जो जातियों और राष्ट्रों के उत्थान का एक परमावश्यक अंग हैं।

जैसा हमने ऊपर बतलाया है तुकाराम का मुख्य कार्य विट्ठल-भक्ति की वृद्धि करना ही था और उनकी लाभ की चिन्ता छोड़कर परोपकार को ही प्रथम स्थान दिया और इसके फल से जो कुछ कठिनाइयाँ आईं उन सबको सहर्ष सहन किया। इसका वर्णन करते हुए वे एक अभंग में कहते हैं-

“भगवान अच्छा हुआ जो मेरा दिवाला निकल गया। अकाल पड़ा यह भी अच्छा ही हुआ। कष्ट पड़ने से ही तेरा ध्यान आया और संसार घृणित जान पड़ने लगा। स्त्री मर गई यह भी अच्छा हुआ और अब जो दुर्दशा भोग रहा हूँ वह भी ठीक ही है। संसार में अपमानित हुआ, गाय, बैल, द्रव्य सब नष्ट हो गया यह भी अच्छा हुआ। लोक लाज नहीं रही यह भी ठीक हुआ, क्योंकि इन्हीं बातों से अन्त में मैं तुम्हारी शरण में आ सका।”

इस प्रकार तुकाराम ने अपना सब कुछ अन्तःकरण से ईश्वरार्पण कर दिया था और इसका परिणाम यह हुआ कि अपने सेवाकार्य में चाहे कैसी भी हानि या विपत्ति उठानी पड़ी उनकी कभी उसका दुःख या चिन्ता न हुई। पर आजकल हम देखते हैं कि लोग लोककल्याण और सेवा की बड़ी-बड़ी बातें तो करते हैं, पर इस मार्ग में जैसे ही उनके स्वार्थ पर आघात लगता है, कष्ट सहन करने पड़ते हैं वैसे ही वे भाग खड़े होते हैं। पर तुकाराम ने प्रत्येक बात को ईश्वरीय इच्छा समझ लिया था और उसमें किसी प्रकार का दोष या बुराई समझना एक ‘पाप’ कार्य था। इसी आधार पर खड़े रहने का यह परिणाम था कि वे कष्टों और विरोधों का प्रसन्नता पूर्वक सामना करते रहे और उनके चित्त में कभी किसी प्रकार की कमजोरी या क्रोध की भावना नहीं आई।

पर सच्चे भक्त को यह सब स्वार्थ त्याग और कष्ट सहन करते हुए भी अपने मन का भाव ऐसा रखना पड़ता है कि मन में अहंकार का उदय न हो जाये। मनुष्य का मन बड़ा मायावी और छलिया है। यह एक नहीं तो दूसरे प्रकार से अपने फन्दे में फँसाने की कोशिश करता है। किसी उपाय से स्वार्थी संसार के फन्दे से छूटे तो यह हृदय में त्याग और तपस्या का अभिमान उत्पन्न कराके ही नीचे गिराने का प्रयत्न करता है। इसलिए तुकाराम बीच-बीच में आत्म निरीक्षण भी करते रहते थे। जिससे अहंकार को अपना जाल फेंकने का मौका न मिले? वे कहते हैं-

“मैं अपने मन में ही चतुर बना बैठा हूँ, पर हृदय में कोई भाव नहीं है, केवल यह अहंकार हो गया है कि मैं भक्त हूँ। अब यही बाकी रह गया है कि नष्ट हो जाऊँ, क्योंकि काम क्रोध भीतर आसन जमाये बैठे ही हैं, मेरे अन्दर प्रेम भाव का पता ही नहीं लगता कि कहाँ है। इससे तो अच्छा यही है कि लोगों में मेरी बदनामी हो, साधु कह कर जो लोग मेरी सेवा करते हैं वे सब निन्दा करते हुये मेरा तिरस्कार करे, क्योंकि ऐसा होने से मैं तुम्हारी सेवा एकाग्र मन से कर सकूँगा।”

आगे चलकर तुकाराम ने व्यंग का सहारा लेकर भगवान को खरी खोटी सुनाते हुए अपने दोषों को वर्णन किया है। वे कहते हैं-

“भगवान, तुम बड़े हो या मैं बड़ा हूँ, जरा इस पर भी विचार करें मैं पतित हूँ यह बात तो बनी बनाई है, पर तुम पतित-पावन हो यह तुमने अभी तक सिद्ध करके नहीं दिखाया। मैं भेदभाव को अपने प्राणों से लिपटाये बैठा हूँ पर तुमसे उसका निराकरण नहीं होता। मेरे दोष इतने बलवान हैं कि उनके सामने तुम्हारी भी कुछ नहीं चलती अब तुम कहो कि तुम बड़े हो या मैं बड़ा?”

इस प्रकार तुकाराम आजीवन मन-वचन कर्म से साधारण जनता में भक्ति प्रचार के रूप में आत्मोत्कर्ष की भावना भरते रहे, उनको यह समझाते रहे कि सच्चा भक्त वही है जो अपने दुःख सुख और हानि लाभ का विचार छोड़कर सदैव भगवान विभूति स्वरूप सब प्राणियों के हित के लिए दत्तचित्त रहे और सब के कल्याण में ही अपना कल्याण और अपनी मुक्ति का अनुभव करे।

*समाप्त*


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