सेवा व्रत ही (kahani)

February 1961

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धर्म एवं लोक हित के नाम पर अनेक निकम्मे व्यक्ति भोले-भाले लोगों का शोषण करते हैं, उससे स्वयं बचना चाहिए और दूसरों को बचाना चाहिए। आज अनेक व्यक्तियों ने स्वार्थ सिद्धि के लिए सेवा को भी एक व्यवसाय बना लिया है। कोई न कोई आडम्बर रच कर, लोक हित या धर्म वृद्धि की बात कहकर लोगों को ठगते और अपना स्वार्थ साधते रहते हैं। राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्रों में ऐसे लोग भरे पड़े हैं। इन कुपात्रों के जाल में फँस जाना अपनी सेवा भावना का दुरुपयोग होने देना है। उदार हृदय व्यक्तियों को जहाँ परमार्थ के लिए तत्पर रहने की आवश्यकता है, वहाँ इन धूर्तताओं से सहज रहने की भी आवश्यकता है।

सेवा में किये गये प्रयत्न का सत्परिणाम निकले इसके, लिए सत्पात्र का ध्यान रखना आवश्यक है। धन एवं श्रम से आपत्तिग्रस्त उत्कर्ष अभियानों की सहायता हो सकती है। पर सबसे बड़ी और सबसे अस्थायी सेवा किसी को अधिक उत्कृष्ट मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने में ही है। मनुष्य में अनन्त सामर्थ्य भरी हुई है। उसके पास ही बहुत कुछ है। यदि वह अपने सामर्थ्य को पहचान कर उसका सदप्रयोग करने लगे तो वह न केवल अपनी समस्याओं को सुलझा सकता है वरन उन्नतिशील जीवन व्यतीत करता हुआ अन्य अनेकों के लिए भी प्रकाश प्रदान कर सकता है। किसी की सच्ची सेवा इसी में है कि उसकी निज की क्षमता को समझ सकने एवं उसका सदप्रयोग करने के लिए आवश्यक ज्ञान, साहस एवं उत्साह उत्पन्न कर दिया जाय.।

इस ज्ञान दान की महान सेवा की तुलना अन्न, वस्त्र, जल स्थान आदि देने जैसी तुच्छ सहायताओं से नहीं हो सकती। क्योंकि उनका लाभ क्षणिक एवं तात्कालिक है। वे वस्तुऐं समाप्त होती है और व्यक्ति फिर पूर्ववत् अभावग्रस्त हो जाता है। पर जिसकी अन्तःशक्ति जागृति हो गई है वह अपने भीतर भरे हुए खजाने से परिचित हो जाने पर सदा के लिए सम्पन्न बन जाता है।

नारदजी ने डाकू वाल्मीकि को आत्म बोध कराया। उसने लूट, डकैती, हत्या छोड़कर इससे अनेकों व्यक्ति लुटने से, सताये जाने से, मारे जाने से बचें। यदि बाल्मीकि डाकू ही बने रहे तो हर व्यक्ति उनके द्वारा संत्रस्त होते। नारद को उन पीड़ितों को उनकी खोई वस्तुऐं अपने पास से दान करने पर, ज्यों का त्यों कर देने पर जो पुण्य मिलता, उतना ही पुण्य एक डाकू का स्वभाव बदल देने से भी मिल गया। डाकू को नरक जाना पड़ता। उसे उस त्रास से बचा देने का पुण्य भी नारदजी को मिला। उस आत्मबोध के कारण बाल्मीकि का परिवर्तन होने पर वे महान ऋषि बने, इतने बड़े ऋषि कि उनके संरक्षण में भगवान राम ने अपने स्त्री बच्चा की सुरक्षा का उत्तरदायित्व सौंपा। यह कोई साधारण स्थिति नहीं थी।

एक अन्त्यज कुल में उत्पन्न, डाकू का व्यवसाय अपनाये हुए घृणित व्यक्ति का महर्षि बाल्मीकि के रूप में परिवर्तन कर देना आत्मबोध द्वारा ही संभव हो सका। वह डाकू जब तक जीवित रहता संसार में भारी पीड़ा और अशान्ति उत्पन्न करता रहता, पर जब वह महर्षि बन गया तो न जाने कितने और महर्षि उसकी प्रेरणा और शिक्षा से बन गये होंगे। उनकी बनाई बाल्मीकि रामायण ने कितने मनुष्यों को श्रेष्ठ मनुष्य बना दिया होगा इसकी कल्पना कर सकना भी कठिन है।

आत्मबोध का ऐसा ही महत्व है। इसे प्राप्त कर मनुष्य बदलता है। और इस परिवर्तन के कारण वह तुच्छ से महान बन जाता है। इसलिए ज्ञान-दान को संसार का सर्वश्रेष्ठ दान माना गया है। जो ब्राह्मण के पूज्य माना जाने का कारण उसका यह आत्मबोध कराने में संलग्न रहने का सेवा व्रत ही था। ज्ञान के


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