साधना और उसका स्वरूप

August 1961

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साधना के दो भेद हैं (1) भावात्मक (2) क्रियात्मक। स्वाध्याय सत्संग, चिन्तन, मनन यह चार कार्य भावात्मक साधना के अंतर्गत आते हैं। इनसे विचारों की, दृष्टिकोण की भावना की शुद्धि होती है। क्रियात्मक साधना से संस्कारों का संशोधन एवं पोषण होता है। जो अशुभ संस्कार मनोभूमि में गहराई से जमे हैं उन्हें उखाड़ने का कार्य क्रियात्मक साधना द्वारा ही संभव होता है। शुभ संस्कारों का बीजारोपण तथा उनका परिपोषण भी क्रियात्मक साधना द्वारा ही संभव होता है।

भावात्मक साधना के संबंध में कुछ प्रकाश पिछले पृष्ठों में डाला जा चुका है। क्रियात्मक साधना के अनेक उपक्रम हैं जिनका उपयोग साधक की निष्ठा अभिरुचि एवं परिस्थिति के अनुरूप किया जाता है।

गायत्री महामन्त्र के जप का क्रियात्मक साधना में सर्वप्रथम स्थान है। इसे अनिवार्य धर्म कर्तव्य माना गया है। धर्म शास्त्रों में ऐसी व्यवस्था मिलती है कि भोजन से पूर्व कम से कम एक माला गायत्री का जप प्रत्येक धर्मप्रेमी को करना चाहिए। जो इसकी उपेक्षा करें उन्हें शूद्र कहकर तिरस्कृत किया गया है। प्राचीनकाल में सम्भवतः नित्य गायत्री जप की उपेक्षा करने वाले लोग शूद्र रहकर तिरस्कृत किये गये होंगे ओर पीछे उनकी स्वतंत्र जाति ही बन गई होगी।

मस्तिष्क और हृदय दोनों ही क्षेत्रों पर गायत्री जप का गंभीर प्रभाव पड़ता है। स्मरण शक्ति, बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता, सूझबूझ, परिमार्जित कल्पना, अनुत्तेजित एवं सन्तुलित मनःस्थिति यह मस्तिष्क के गुण हैं। गायत्री उपासना से इन सभी गुणों का साधके प्रयत्न अनुरूप विकास होता है। निष्ठा, श्रद्धा, दृढ़ता, साहस, धैर्य, उत्साह, श्रेष्ठता, आदर्शवादिता, एवं संकल्प शक्ति हृदयगत गुण हैं। गायत्री जप से इनका भी अभिवर्धन होता है। गायत्री बुद्धि एवं भावना की देवी है। जहाँ उसकी प्रतिष्ठा होगी वहाँ सद्ज्ञान एवं सद्भाव का विकास स्वयमेव होता चलेगा। अन्तः भूमि का स्वस्थ विकास स्वयमेव होता चलेगा। अन्तः भूमि का स्वस्थ विकास इन्हीं दो तत्त्वों पर निर्भर है। गायत्री उपासना निस्सन्देह मनुष्य की अपूर्णताओं की खाई पाटती हुई उसे पूर्णता के परम लक्ष तक पहुँचा देने में समर्थ होती है।

जिन्हें अपने हृदय एवं मस्तिष्क के विकास में अभिरुचि हो उन्हें गायत्री उपासना एक रामबाण अमोघ औषधि के रूप में अपनानी चाहिए। आत्मिक उन्नति की दिशा में जिनका उत्साह अधिक है, जो गुप् आध्यात्मिक शक्तियों को विकसित करके अपने आपको सामान्य स्थिति से ऊँचा उठाकर असामान्य स्थिति में ले जाना चाहते हैं उनके लिए गायत्री के अनुष्ठान, पुरश्चरण एवं तपश्चर्यात्मक अनेक विधान हैं। लौकिक आकांक्षाओं की पूर्ति एवं उपस्थित आपत्तियों के समाधान में भी गायत्री उपासना की अनेक विधियाँ बड़ी उपयोगी सिद्ध होती है। आत्मा को परमात्मा तक पहुँचाने की लक्ष्यपूर्ति के लिए भी गायत्री से अधिक सरल एवं शीघ्र सफल होने वाला साधन और कोई नहीं है।

गायत्री उपासना कैसे की जाय, इस संबंध में कितने ही ग्रंथ लिखे जा चुके हैं। फिर भी समय-समय पर अपनी मनोभूमि का परीक्षण कराते हुए उसके अनुरूप साधनाओं में परिवर्तन करते रहना चाहिए। जिस प्रकार कक्षाएँ उत्तीर्ण करता हुआ छात्र, अगली कक्षा में अपने पाठ्यक्रम को बदलता है उसी प्रकार साधना पथ पर अग्रसर साधक को भी अपने क्रमिक विकास के अनुरूप समय-समय पर अपने साधन विधान में हेर-फेर करना आवश्यक होता है। रोग के लक्षणों में हेर फेर होने और बीमारी घटने-बढ़ने पर कुशल वैद्य चिकित्सा, व्यवस्था, परिचर्या एवं पथ्य में परिवर्तन करते हैं। इसी प्रकार अन्तः स्थिति के उतार चढ़ाव के अनुसार साधन विधानों में भी हेर फेर की अपेक्षा रहती है। अनुभवी और विश्वासी मार्गदर्शक की सहायता से ही इस प्रकार का परिवर्तन ठीक प्रकार बन पड़ता है।

जप के अतिरिक्त प्राण शक्ति की साधना तथा ध्यान योग द्वारा मनोबल की दो कक्षाएँ आती हैं। जप को प्राथमिक पाठशाला मानें तो प्राण साधना को हाई स्कूल और ध्यान को कालेज मानना पड़ेगा। प्राणायामों के अनेक भेद हैं। आठ इनमें से प्रधान हैं। 84 प्राणायामों का परिचय, साधना ग्रन्थों में मिलता है। शारीरिक स्वास्थ्य सुधारने में, मनोबल बढ़ाने में, चित्त की चंचलता रोकने में, विकार वृत्तियों पर नियंत्रण करने में, प्राणायामों का विशेष महत्व है। अखिल विश्व में व्याप्त सूक्ष्म प्राण तत्त्व को अमुक साधना विधानों के आधार पर आकर्षित करके अपने में धारण करना तथा अपने को प्राण शक्ति सम्पन्न बनाना भी प्राणायाम विद्या का ही कार्य है। षट्चक्रों का सेवन, कुण्डलिनी जागरण, इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना की सिद्धि, स्वर योग तत्त्व साधना, सोऽहम् तत्त्व, अजपा गायत्री प्रभृति अनेकों चमत्कारी एवं दिव्य शक्ति सम्पन्न साधन प्राण विद्या से ही संबंधित हैं।

ध्यान योग की साधनाएँ भी अनेक प्रकार की है। भक्तियोग, ध्यान साधना का ही एक अंग है। अमुक देवताओं या अवतारों की मूर्तियों की पूजा तथा उनकी छवि का स्मरण करते हुए ईश्वरीय प्रेम का जागरण करना ध्यान योग का ही एक विशेष विधान है। निराकार उपासक ज्योति का धारा प्रवाह चिंतन करते हैं। नाद योग भी इसी के अंतर्गत आता है। सूक्ष्म जगत में जो नाना प्रकार की ध्वनियाँ होती रहती हैं उन्हें एकाग्रता पूर्वक सुनना और उनके आधार पर अदृश्य क्षेत्र में हो रही हलचलों का पता लगाना नाद योग का काम है। यह साधना भी ध्यान की एकाग्रता से ही संभव है। देव दर्शन, ईश्वर प्रणिधान, आत्म साक्षात्कार, समाधि आदि की उच्च आध्यात्मिक सफलताएँ भी ध्यान योग के विधि विधानों से ही सम्बन्धित हैं।

तप साधना का उद्देश्य शरीर और मन में भरे हुए कुसंस्कारों का परिमार्जन करना है। जिस प्रकार स्वर्ण की अशुद्धता अग्नि में तपाने से नष्ट होती हैं उसी प्रकार आत्मा पर चढ़े हुए मल विक्षेप भी तपश्चर्या की अग्नि में जल जाते हैं। पापों का प्रायश्चित्त भी कष्ट साध्य तपों द्वारा ही होता है। चांद्रायण, कृच्छ चांद्रायण आदि कठोर व्रत उपवास इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हैं। एक महीने तक एक-एक आस प्रतिदिन घटाने बढ़ाने के क्रम से आहार लेना और पंचतत्व (गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र, गोबर) ग्रहण करना चांद्रायण व्रत का एक अंग है। हर महीने कई-कई व्रत उपवासों के पर्व रहते हैं, इनके आधार पर जिह्वा इन्द्रिय, कामेन्द्रिय तथा अन्य इन्द्रियों को वश में करना सरल होता है। कार्तिक माघ, बैसाख आदि के स्नान-तप भी इसी प्रकार के हैं। पैदल तीर्थ यात्रा भी इसी उद्देश्य के लिए की जाती है। सुसंस्कारी सात्विक अन्न ही ग्रहण करने के कष्ट साध्य प्रतिबंधों का पालन करना भी इसी श्रेणी में आता है। मन वचन और कर्म से ब्रह्मचर्य पालन करना भी तप है। मौन को भी तप ही कहा गया है। अपने शरीर की सेवायें स्वयं ही करना, भूमि शयन स्वल्प वस्त्र, जूते, निद्रा, हजामत, शृंगार आदि का सीमित या पूर्ण त्याग भी तप ही प्रयोग हैं। हठ योग की नेति धोति, वस्ति, वज्रोली, कपालभाति आदि क्रियाऐं भी तपश्चर्या ही कहीं जाती हैं। प्रत्येक मास की संक्रान्ति के दिन अथवा प्रत्येक सोमवती अमावस्या आदि पर्व आने पर कोई विशेष तप जप दान का नियम लेना और उसे एक वर्ष या अमुक समय तक निर्वाण कर अन्त में पूर्णता के लिए विशेष आयोजन, उद्यापन करना भी तपश्चर्या के ही हलक प्रयोग है। सत्कार्य के लिए दान पुण्य करके अपने सुख साधनों में खुशी-खुशी कमी कर लेना त्याग का उत्तम स्वरूप है। यह भी तप ही कहा जाएगा। यज्ञ भी तप का ही एक अंग है।

पूर्व जन्मों के संगृहीत कुसंस्कार तथा इस जन्म में किये हुए पाप कर्मों का प्रायश्चित्त हो जाने से साधना मार्ग की अनेकों बाधाएँ तथा कठिनाइयाँ दूर हो जाती हैं और आत्मिक प्रगति में बड़ी सुविधा रहती है। शरीर शोधन के लिए कल्प चिकित्सा करने वालों को पहले वमन, विरेचन, स्वेद आदि के द्वारा भीतर भरे हुए मलों का निष्कासन करना पड़ता है और तब कोष्ठ शुद्धि होने पर औषधि सेवन का विधान चलता है। इसी प्रकार आन्तरिक दुखों का परिशोधन करने के लिए विविध तपश्चर्याएँ करनी पड़ती हैं। किस व्यक्ति के लिए कैसी तपश्चर्या अनुकूल पड़ेगी, किस दुरित का समाधान करने के लिए किस तपश्चर्या का विधान है यह भी विज्ञ मार्ग दर्शकों के परामर्श से निश्चय किया जा सकता है।

जप, तप, प्राण प्रक्रिया एवं ध्यान योग के अंतर्गत क्रियात्मक साधना के अनेक भेद सन्निहित हैं। तंत्र साधना का अपना अलग ही विज्ञान है जिसमें अमुक संस्कार में संस्कारित वस्तुओं की सहायता से, विभीषिका युक्त तपश्चर्या का माध्यम अपना कर प्रकृति की किन्हीं शक्तियों का माध्यम अपना कर प्रकृति की किन्हीं शक्तियों को यशस्वी किया जाता है। शव साधन, यक्षिणी विजय, अधिकार प्रयोजन, पक्का मकर, भैरवी चक्र, अघोर कृत्य आदि कितने ही ऐसे साधन वाम मार्गी तन्त्र ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। उस मार्ग के साधक गुरु परम्परा से प्राप्त गुप्त विधानों की गोपनीयता नष्ट नहीं होने देते और उन्हें केवल परीक्षित शिष्यों को ही बताते हैं। तन्त्र साधना भौतिक लाभों एवं चमत्कारों की दृष्टि से उपयोगी हो सकती है पर आत्म कल्याण की दृष्टि से उसका कुछ भी उपयोग नहीं है। वरन् उलटी बाधक सिद्ध होती है।

वेदोक्त दक्षिणमार्गी क्रियात्मक साधनाएँ सरल हैं। उन्हें गृहस्थ जीवन-यापन करते हुए कोई भी व्यक्ति आसानी से कर सकता है। मन मर्जी से बिना विधि-विधान के करने पर उनका अभीष्ट लाभ नहीं मिलता किन्तु यदि सही मार्ग दर्शन उपलब्ध हो जाए तो उनसे बड़ा लाभ होता है। भौतिक जीवन की अनेक समस्याएँ सुलझती हैं और पारलौकिक, अध्यात्मिक जीवन की सुख शांति का द्वारा खुलना आरंभ हो जाता है। संन्यासी और विरक्तों के लिए योगाभ्यास की कुछ विशेष साधनाएँ भी हैं पर साधना शास्त्र का अधिकांश भाग गृहस्थ नर-नारियों के लिए ही है। जिस प्रकार जीविका उपार्जन, गुरु व्यवस्था, शरीर रक्षा आदि कार्यों के लिए नियमित समय लगाया जाता है उसी प्रकार यदि एक दो घंटे भी साधना कार्य के लिए दृढ़ निश्चय के साथ नियम कर लिये जाय तो उतने में ही बहुत प्रगति हो सकती है। आत्मिक स्वास्थ्य की सुरक्षा और आत्म बल की अभिवृद्धि साधना पर ही निर्भर है।

जिन्हें शरीर की तुलना में आत्मा का महत्व कम प्रतीत नहीं होता, जो क्षणिक भौतिक लाभों की तुलना में अनन्त काल तक स्थिर रहने वाले आत्मिक लाभों को तुच्छ नहीं मानते उन्हें यह भी जानना चाहिए कि शरीर सुख और धन उपार्जन की तुलना में साधना कार्य में लगा हुआ समय किसी भी प्रकार कम उपयोगी-कम लाभदायक नहीं है। प्राचीन काल में प्रत्येक नर-नारी की, बाल वृद्ध की दिनचर्या में साधना के लिए अनिवार्य रूप से स्थान रहता था। फलस्वरूप उन्हें आत्म निर्माण का महान् लाभ प्राप्त होता था और उसके फलस्वरूप भौतिक उन्नति एवं सुविधाओं का द्वार सहज ही प्रशस्त रहता था और वे लोक और परलोक दोनों को ही सफल बनाते हुए मानव जीवन के अलभ्य अवसर का पूरा सत्परिणाम प्राप्त कर लेते थे। आज साधना पथ का परित्याग करके हम आध्यात्मिक उन्नति से वंचित हो रहे हैं, साथ ही आन्तरिक दुर्बलताओं के कारण भौतिक जीवन की कठिनाइयों और असफलताएँ भी बढ़ती जाती हैं।

उच्च आध्यात्मिकं स्तर की साधनाएँ करने के लिए घर छोड़कर किन्हीं पवित्र वातावरण के स्थानों में रहने की आवश्यकता हो सकती है। जीवन के अंतिम भाग में वानप्रस्थ जैसा विरक्त जीवन भी इस दृष्टि से उपयोग हो सकता है पर साधारण साधना के लिए घर या व्यवसाय छोड़ने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। गृहस्थ योग अपने आप में एक सर्वांग पूर्ण योग है। उसे यदि साधनात्मक दृष्टि से ग्रहण किया जाय तो पूर्णता प्राप्ति के लिए वह भी एक सर्वांगीण सुंदर साधन हो सकता है। कितनी ही साधनाएँ तो ऐसी हैं जो हर किसी के लिए सुगम और सुविधाजनक है। जैसे सूर्य नमस्कार एवं आसनों की सरल व्यायाम पद्धति बूढ़े से लेकर बच्चे तक सभी के उपयोग की हैं। उनसे शरीर की ही नहीं मनोबल की भी पुष्टि होती है। गर्भिणी और दुर्बल प्रकृति की महिलाएँ भी कुछ आसनों से अपनी स्वास्थ्य संबंधी कठिनाइयों को स्वयं हल कर सकती हैं। कितने ही रोग आसन और प्राणायामों के, बन्ध और मुद्राओं के सरल साधनों से दूर हो सकते हैं। बंध्यापन, उन्माद, अनिद्रा, रक्तचाप, मधुमेह, हृदय दौर्बल्य आदि कितने ही असाध्य समझ जाने वाले रोग ऐसे हैं जो योग चिकित्सा के आधार पर स्थायी रूप से अच्छे हो सकते हैं। शारीरिक और मानसिक रोगों के दूर करने में किसी भी चिकित्सा पद्धति की अपेक्षा तुलना में योग चिकित्सा ही अधिक उत्कृष्ट सिद्ध होती है। यह योग चिकित्सा भी साधना विज्ञान का ही एक अभिन्न अंग है।

साधना की उपयोगिता महान् है। उसकी उपेक्षा करना न तो बुद्धिमत्ता है और न दूरदर्शिता। यदि थोड़ी गंभीरता से सोचा जाए तो यह सहज ही जाना जा सकता है कि जीवन के महान् अवसर से समुचित लाभ उठाने के लिए साधना नितांत आवश्यक है।


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