आत्म-निर्माण का पुण्य-पथ

August 1961

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आज साधना का अर्थ केवल भजन-पूजन समझा जाता है और किसी देवी देवता से कुछ सिद्धि वरदान प्राप्त करना या परलोक में मुक्ति का अधिकारी बनना उसका उद्देश्य माना जाता है। साधना के अंतर्गत यह बात भी आती है, पर उसका क्षेत्र इतना ही नहीं-इससे कहीं अधिक विस्तृत है। भौतिक और आध्यात्मिक ही है।

साधना से हमारे अन्तःप्रदेश का ऐसा शोधन ,परिष्कार एवं अभिवर्धन होता है जिसके फलस्वरूप सर्वतोमुखी उन्नति का स्वर्गं द्वार खुले और जो विघ्न बाधाएँ प्रगति का मार्ग रोकते हैं उन्हें हटाया जा सकें? पिछले पृष्ठों पर लौकिक समस्याओं के सुलझाने में साधना किस प्रकार सहायक होती है इस तथ्य पर कुछ प्रकाश डाला गया है।

स्वाध्याय और सत्संग, चिंतन और मनन यह चार उपाय अपनी अन्तःभूमि के निरीक्षण, परीक्षण करने, त्रुटियों एवं दोषों को समझने तथा कुविचारों को त्याग कर सत्प्रवृत्तियों अपनाने के है। यह चार उपाय भी साधना के ही अंग हैं। जीवन समस्याओं को सुलझाने में सहायक सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय करना हर विचारशील धर्मप्रेमी व्यक्ति का एक दैनिक नित्यकर्म होना चाहिए। आज किन्हीं पौराणिक कथा ग्रन्थों या आज हजारों लाखों वर्ष पूर्व की स्थिति के अनुरूप मार्ग दर्शन करने वाले संस्कृत ग्रन्थों का बार-बार पढ़ना ही स्वाध्याय माना जाता है। यह मान्यता अस्वाभाविक है। आज हमें ऐसी पुस्तकों के स्वाध्याय की आवश्यकता है जो वर्तमान परिस्थितियों के अनुरूप जीवन के सर्वांगीण विकास में सहायक हो सकें। प्रत्येक युग में सामयिक ऋषि उत्पन्न होते हैं ओर वे देश काल पात्र के अनुरूप जन शिक्षण करते हैं। आज के युग में गाँधी, विनोबा, दयानंद, विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, तुकाराम, कबीर आदि संतों का साहित्य जीवन निर्माण की दिशा में बहुत सहायक हो सकता है। आत्म सुधार, आत्म निर्माण एवं आत्म विकास का जो विवेचनात्मक सत्साहित्य मिल सके हमें नित्य नियमित रूप से पढ़ते रहना चाहिए। स्वाध्याय की दैनिक आदत इतनी आवश्यक है कि उसकी उपेक्षा करने से आत्मिक प्रगति के मार्ग में प्रायः अवरोध ही पैदा हो जाता है।

सत्संग का अर्थ है सम्भ्रान्त, आदर्श चरित्र तत्त्वदर्शी मनीषियों की संगति सान्निध्य और शिक्षा का अवगाहन। ऐसे मनीषी आज बहुत ही कम हैं। जो हैं वे कार्य व्यस्त रहने के कारण व्यक्तिगत सत्संग के लिए समय नहीं दे पाते। ऐसी दशा में आत्म निर्माण संबंधी प्रवचनों की जहाँ व्यवस्था हो वहाँ पहुँचा जा सकता है। महापुरुषों के ग्रन्थ भी सत्संग का काम दे सकते हैं। वे मनीषी भले ही हमसे दूर हों या स्वर्गवासी हो चुके हों तो भी उनके विचार उनके लिखे ग्रन्थों में सदा प्रस्तुत मिलेंगे और वे हमें सत्संग का लाभ देते रहेंगे। आज सत्संग के नाम पर निराशावादी, भाग्यवादी, पलायनवादी, अतिवादी विचारधारा देने वाले साधु, बाबाजी बहुत हैं, इन विचारों से भ्रम जंजाल ही बढ़ता है। और उसके प्रभाव से व्यक्ति एक प्रकार से निकम्मा ही बन जाता है। इसलिए ऐसे सत्संग को कुसंग मानकर उससे बचते रहना ही उचित है।

चिन्तन और मनन बिना पुस्तक बिना साथी का स्वाध्याय सत्संग ही है। अपने आप अपनी स्थिति पर, अपना त्रुटियों और दुर्बलताओं पर विचार करके, बुराइयों को छोड़ने और अच्छाइयों को बढ़ाने के लिए अकेले में सोच विचार करना चिंतन है और उत्थान पथ पर अग्रसर करने वाली सत् शिक्षा के महत्व एवं महात्म्य पर विस्तार पूर्वक सोचना एवं उसी ढाँचे में अपने को ढालने की योजना बनाना मनन है। चिंतन और मनन करते रहने वाला व्यक्ति अपनी बौद्धिक, चरित्र एवं लौकिक दुर्बलताओं को आत्म निरीक्षण एवं आत्म आलोचना के आधार पर भली प्रकार जान सकता है और जिस प्रकार रोग का निदान होने पर चिकित्सा सरल हो जाती है उसी प्रकार अपनी त्रुटियों को जानने वाला उन्हें सुधारने का उपाय भी ढूँढ़

ही निकालता है।रात्रि को सोते समय दिन भर के भले बुरे विचारों और कार्यों का लेखा जोखा लेना चाहिए। जीवन की वास्तविक सम्पत्ति समय ही है। नियमित कार्यक्रम बनाकर अपने बहुमूल्य समय का सदुपयोग करने की कला जिसे आ गई उसने सफलता का रहस्य समझ लिया। रात को सोते समय दिन भर के विचारों और कार्यों की भलाई बुराई का विश्लेषण करके यह देखना कि आज दिन का कितना सदुपयोग, अपव्यय एवं दुरुपयोग हुआ। इसी प्रकार प्रातःकाल उठते समय दिन भर का कार्यक्रम बनाना तथा पिछले दिन की बात को स्मरण रखते हुए जीवन के अपव्यय एवं दुर्व्यय को बचाकर अधिकाधिक सदुपयोग की योजना बनाई जाए। नित्य डायरी रखकर भी इस प्रकार आत्म निरीक्षण एवं आत्म निर्माण का आयोजन करते रहा जा सकता है। जो दुर्गुण अपने में हो उन्हें दिन में कई बार ध्यान करके उनकी पुनरावृत्ति न होने देना एक उत्तम अभ्यास है। जिन सद्गुणों को और भी विकसित करना है उनका भी दिन में कई बार स्मरण किया जाना चाहिए और उनको बढ़ाने के लिए जो भी अवसर प्राप्त होते रहें उन्हें हाथ से न जाने देना चाहिए।

महात्मा गाँधी के साबरमती आश्रम में रहने वाले प्रत्येक आश्रमवासियों को अपनी डायरी रखनी पड़ती थी जिसमें उनके विचारों और कार्यों का विवरण रहता था। गाँधीजी के सामने वे सभी डायरियां प्रस्तुत की जाती थी और वे उन्हें ध्यान पूर्वक पढ़कर सभी को आवश्यक परामर्श एवं मार्ग दर्शन प्रदान करते थे। यह पद्धति उत्तम है। परिवार की व्यवस्था संबंधी समस्याओं पर विचार करने के लिए घर के सब सदस्य मिलकर विचार कर लिया करें और उलझनों को सुलझाने का उपाय सोचा करें तो कितनी ही कठिनाइयाँ तथा समस्याएँ आसानी से हल हो सकती है।

मन में उठने वाले कुविचारों की हानि भयंकरता तथा व्यर्थता पर विचार करना तथा उनके प्रतिपक्षी सद्विचारों को मन में स्थान देना, आत्म सुधार के लिए एक अच्छा मार्ग है। विचारों को विचारों से ही काटा जाता है। सद्विचारों की प्रबलता एवं प्रतिष्ठा बढ़ाने और कुविचारों का तिरस्कार एवं बहिष्कार करने से ही उनका अन्त हो सकता है। आत्म निर्माण के लिए इस मार्ग का अवलम्बन करना आवश्यक है।

जिस प्रकार साँसारिक कला कौशल एवं ज्ञान विज्ञान की शिक्षा के लिए व्यवहारिक मार्ग दर्शन करने वाले शिक्षक की आवश्यकता होती है उसी प्रकार आत्म निर्माण के लिए भी एक ऐसे मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है जिसे आत्म निर्माण का व्यक्तिगत अनुभव हो। गुरु की आवश्यकता पर आध्यात्म ग्रन्थों में बहुत जोर दिया गया है, कारण कि अकेले अपने आपको अपने दोष ढूँढ़ने में बहुत कठिनाई होती है। अपने आप अपने दुर्गुण दिखाई नहीं देते और न अपनी प्रगति का ठीक प्रकार पता चल पाता है। जिस प्रकार छात्रों के ज्ञान और श्रम का अंदाज परीक्षक ही ठीक प्रकार लगा सकते हैं इसी प्रकार साधन की आन्तरिक स्थिति का पता भी अनुभवी मार्ग दर्शक ही लगा सकते हैं। रोगी अपने आप अपने रोग का निदान और चिकित्सा ठीक प्रकार नहीं कर पाता उसी प्रकार अपनी प्रगति और अवनति को ठीक प्रकार समझना और आगे का मार्ग ढूँढ़ना भी हर किसी के लिए सरल नहीं होता।

इसमें उपयुक्त मार्ग दर्शक की अपेक्षा होती है। प्राचीनकाल में आत्म निर्माण की महान् शिक्षा हर व्यक्ति के लिए एक नितान्त अनिवार्य आवश्यकता मानी जाती थी और तब गुरु वरण भी एक आवश्यक धर्म कृत्य था। आज की और प्राचीन काल की अनेक परिस्थितियों और आवश्यकताओं में यद्यपि भारी अंतर हो गया है फिर भी आत्म निर्माण के लिए उपयुक्त मार्ग दर्शक की आवश्यकता ज्यों की त्यों बनी हुई हैं जिसने यह आवश्यकता पूर्ण कर ली उसने इस संग्राम का एक बड़ा मोर्चा फतह कर लिया ऐसी ही मानना चाहिए।

किस व्यक्ति में क्या दुष्प्रवृत्तियाँ हैं और उनका निवारण किन विचारों से, किस स्वाध्याय से किस मनन से किस चिन्तन से किस साधन अभ्यास से किया जाए, इसकी विवेचना यहाँ नहीं हो सकती। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को मनोभूमि में दूसरों की अपेक्षा कुछ भिन्नता होती है और उस भिन्नता को ध्यान में रखकर ही व्यक्ति की अन्तःभूमिका को शुद्ध करने का मार्ग दर्शन संभव हो सकता है। इसी प्रकार किस व्यक्ति में कौन-सी सत्प्रवृत्तियाँ विकासोन्मुख हैं और उनका अभिवर्धन करने के लिए किस प्रकार का स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिन्तन, ध्यान, संकल्प एवं अभ्यास आवश्यक है इनका विवेचन भी लेख रूप में नहीं हो सकता क्योंकि व्यक्ति की मनोभूमि का स्तर पहचान कर ही उनका भी निर्णय हो सकना संभव है।

साधना का उद्देश्य है-मनोभूमि का परिष्कार। आत्मा के गुह्य गह्वर में बहुत कुछ ही नहीं सब कुछ भी भरा हुआ है। परमात्मा की सारी सत्ता एवं शक्ति उसके पुत्र आत्मा को स्वभावतः प्राप्त है। मनुष्य ही ईश्वर का उत्तराधिकारी युवराज है। उसकी संभावनाएँ महान् हैं। वह महान् पुरुष, नर रत्न, ऋषि महर्षि, सिद्ध समर्थ, देव अवतार सब कुछ है। उसकी सारी शक्तियों को जिन दुष्प्रवृत्तियों ने दबा कर एक निम्न स्तर के प्राणी की स्थिति में डाल रखा है, उन दुष्प्रवृत्तियों को हटाना एक महान् पुरुषार्थ है। इसी से सारे भव बंधन टूटते हैं। इसी से तुच्छता का महानता में परिवर्तन होता हे। इसी से आत्मा की परमात्मा में परिणति होती है। इस प्रकार की सफलता प्राप्त कर सकना अपार धन, बड़ा पद, विस्तृत यश, विपुल बल और अनन्त ऐश्वर्य प्राप्त करने से भी बढ़कर है। क्योंकि यह वस्तुएँ तो जीवन काल तक ही सुख पहुँच सकने में समर्थ हैं पर दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा प्राप्त जीवनमुक्त आत्मा तो सदा के लिए अनन्त आनंद का अधिकारी हो जाता है।

आत्म शुद्धि की साधना, भौतिक दृष्टि से, लौकिक उन्नति और सुख सुविधा की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। इस पथ पर चलने वाला पथिक दिन-दिन इस संसार में अधिकाधिक आनंद दायक परिस्थितियाँ उपलब्ध करता जाता है। उसकी प्रगति के द्वार तेजी से खुलते जाते हैं। पारलौकिक दृष्टि से तो यह आत्म शुद्धि की साधना महान् पुरुषार्थ ही है। जीवन लक्ष की पूर्ति इसी में है। मुक्ति और स्वर्गं का एक मात्र मार्ग भी यही है।


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